Sunday 15 December 2013



व्यंग्य (नईदुनिया, 06.04.13)
         इनकी दाड़ियाँ आखिर कब कटेंगी ?
                             ओम वर्मा om.varma17@gmail.com
न तीनों में अलगू चौधरी और जुम्मन शेख से भी गाढ़ी मित्रता थी। तीनों को अक्सर राष्ट्रहित, जनहित, विश्व शांति व मानवता को प्रभावित कर सकने वाले हर ज्वलंत मुद्दे पर बहस- चिंतन करते देखा जा सकता था।
     तीनों की संत फक़ीरों की तरह बढ़ी हुई दाड़ियाँ देखकर मैं थोड़ा चौंका। पांचाली के केश खुले रखने, चाणक्य द्वारा चोंटी पर गाँठ बाँधने और इंदिरा गाँधी को चुनाव में हराने वाले राजनारायण जी द्वारा दाड़ी बढ़ाने के पीछे जाहिर है कि समय की धारा को मोड़ देने जैसे कोई संकल्प हुआ करते थे जिनके पूरे होने पर केश विन्यास हुएगाँठें खोली ग्ईं और समारोहपूर्वक दाड़ी बनवाई गई। तीनों ने  अपने संकल्पों के बारे में कुछ इस तरह बताया-
     रामलाल दिल्ली रेप काण्ड के बाद से पूरे देशवसियों की तरह व्यथित थे। स्त्री की अवमानना तो द्वापर और त्रेता युग में भी हुई थी। मगर आजकल अवमानना का स्थान हर दूसरे – तीसरे दिन होने वाले सामूहिक उत्पीड़न व बलात्कार (मीडिया की भाषा में गेंग रेप )ने ले लिया। लिहाजा रामलाल ने भी केश खुले रखने की तर्ज पर दाड़ी न बनाने की शपथ ली है। उनका  संकल्प है कि जब तक लगातार पूरे सात दिन बिना गेंग रेप की खबर वाले अखबार एकत्र न कर लें, दाड़ी नहीं बनाएँगे। उनके बैग में ऐसे सामूहिक अभियानों की ढेर सारी कतरनें भी थीं।   
     दूसरे मित्र मुहम्मद भाई से दाड़ी न कटवाने का राज पूछा तो वे कुछ इस अंदाज़ में बोले – “मैं अपने मुल्क में हो रहे नित घोटालों से हैरान-परेशान हूँ। विपक्ष वाले एक के पीछे हंगामा करें, धरने में लगे टेंट वाले की उधारी चुकाने वाले को ढूढ़ें उसकी पहले ही अगला घोटाला उजागर ! मैंने भी प्रण किया है कि अखबारों में जिस दिन भी घोटाले की खबरों में कम से कम एक सप्ताह का अंतर होगा तभी अपनी दाड़ी बनवाऊँगा। कतरनें इनके पास भी कुछ कम न थीं।
     तीसरे मित्र डिसूजा ने अपनी दाड़ी बढ़ाने का भी कुछ ऐसा ही ठोस कारण बताते हुआ कहा, “जिस दिन अखबार में देश व प्रदेश की राजधानियों में नेता द्वारा गाली गलौच की भाषा वाला या एक दूसरे को साँप बिच्छू व दीमक की उपाधि देने वाला, एक दूसरे के निजी जीवन या चरित्र पर लांछन लगाने वाला बयान या किसी के विवाह करने या न करने पर कोई अमर्यादित टिप्पणी नहीं मिलेगी, उस दिन ही दाड़ी बनवाऊँगा। इनके पास भी रामलाल व मुहम्मद की तरह कतरनों का ढेर था। जब तक दुष्कर्मी, घोटालेबाज़ और बयानवीर अपनाकर्म नहीं छोड़ते तब तक भाई राम, मुहम्मद और डिसूजा, अपना  संकल्प नहीं छोड़ने वाले!
     मुझे उम्मीद है कि मैं अपने जीवनकाल में एक बार इन तीनों को क्लीन शेव देख पाऊँगा।
आमीन !
                          ***

Saturday 14 December 2013



विचार

        तीन भारत रत्ननरेंद्र मोदी और
                साहित्यकार  
                                                         
                        ओम वर्मा
                                           om.varma17@gmail.com  

नके साम्राज्य मेँ सूर्य कभी अस्त नहीं होता। सुगम संगीत की इस साम्राज्ञी के लिए कहे गए इस कथन से बेहतर कोई दूसरी उक्ति हो ही नहीं सकती। वे कई दशकों से फिल्म संगीत मेँ, हर हिंदुस्तानी के दिल मेँ और माँ सरस्वती के आँचल तले बसी हुई हैं। कृतज्ञ राष्ट्र ने इसके लिए उन्हें भारत-रत्न जैसे सर्वोच्च सम्मान से सम्मानित कर एक तरह से इसी भावना या विचार का अनुमोदन ही तो किया है।
     लता मंगेशकर वह शख्सियत हैं जो धर्म, जातीयता और राजनीतिक विचारधारा से कहीं ऊपर हैं। राज्य सभा के कांग्रेसी सांसद सचिन तेंडुलकर को वे अपने पुत्रवत और भाजपा के पितृ-पुरुष आडवाणी जी को वे आदरवश दादा बोलती हैं। यानी उनके प्रशंसक इस दल से उस दल तक या कहें कि चतुर्दिक फैले हुए हैं। उनकी इस सर्वस्वीकृत छवि के आगे राजनीतिक छवि या किसी दल विशेष के व्यक्ति की छवि की तुलना की जाए तो वामन और विराट वाली स्थिति बनती है। तटस्थता के प्रति इसी प्रतिबद्धता मेँ अपनी आस्था व्यक्त करने के लिए कई बार देश के तत्कालीन महामहिम राष्ट्रपतियों ने मतदान का अधिकार त्यागा भी  है।    
     इस परिप्रेक्ष्य में यह प्रश्न विचारणीय है कि क्या लता जी को अपनी यह इच्छा कि
नरेंद्र मोदी को देश का प्रधानमंत्री बनना चाहिए सार्वजनिक मंच पर व्यक्त करनी चाहिए? इस देश की नागरिक होने के नाते उन्हें अपनी पसंद के उम्मीदवार के पक्ष में मतदान करने का पूरा अधिकार है और सार्वजनिक मंच पर अपनी राय व्यक्त करने से भी इस देश का कानून उन्हें रोक नहीं सकता। लेकिन कानूनी अधिकार और नैतिकता को एक पलड़े पर नहीं तोला जा सकता। राहुल गांधी और उनके दल  या यहाँ कहें कि यूपीए परिवार में भी उनके प्रशंसक लाखों में ही होंगे। क्या वे इस सरस्वतीकन्या के आशीर्वाद के पात्र नहीं हैं? ईश्वर की स्तुति या आराधना कर कोई भक्त आशीर्वाद माँगता है तो वह प्रतिद्वंद्वी के लिए आराधना व कृपा के द्वार बंद नहीं कर रहा होता है। मगर भारतीय जनमानस में देवीय आसान ग्रहण कर चुकी स्वर साम्राज्ञी जब नरेंद्र मोदी को पीएम के रूप में देखने की इच्छा व्यक्त करती हैं तो उसका निहितार्थ नरेंद्र मोदी के किसी भी प्रतिद्वंद्वी के लिए पराजय की कामना भी तो है। यानी प्रतिद्वंद्वी के लिए उनके पास आशीर्वाद और शुभकामनाओं का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। लता जी ने मोदी को लेकर जो मनोकामना व्यक्त की इस बात को लेकर उनके पक्ष या विरोध मेँ तर्क दिए जा सकते हैं पर उनसे भारत रत्न वापस लिए जाने की माँग निर्विवाद रूप से निहायत ही घटियापन है। यही दुविधा एक अन्य भारत रत्न अमर्त्य सेन को लेकर सामने आती है। मोदी के नाम पर उन्होंने अपने विचार कुछ ऐसे व्यक्त किए मानो मोदी राजनीति के क्षेत्र मेँ ही नहीं बल्कि देश के लिए भी अस्पृश्य और अवांछित व्यक्ति हों। क्या उनके ये विचार उन्हें दिए गए भारत रत्न अलंकरण का रिटर्न गिफ्ट  नहीं माने जाने चाहिए? अब यदि कल मोदी पीएम बन जाएँ तो क्या वे विरोध स्वरूप भारत रत्न अलंकरण वापस लौटाएंगे?    
     यहाँ हाल ही मेँ भारत रत्न से नवाजे गए सचिन तेंडुलकर का उदाहरण सामने आता है। वे राज्य सभा में यूपीए सरकार के मनोनीत सांसद हैं। उनका क्रिकेट प्रेमियों के बीच वही स्थान है जो संगीत प्रेमियों के बीच लता जी का। शासक दल की ओर से उनसे कांग्रेस का चुनाव प्रचार करने का आग्रह किया गया तो उन्होंने विनम्रतापूर्वक इंकार करके अपना कद और भी बढ़ा लिया। सचिन पूरे देश का वह रत्न है जिसकी बिदाई की तुलना अमेरिकी अखबार द्वारा गांधीजी की बिदाई से की गई, ब्रिटिश संसद द्वारा जिसे बधाई दी गई और जिसके सारे रेकॉर्ड्स स्वयं उसकी महानता की कहानी कह रहे हैं।  ऐसे सचिन अगर किसी दल विशेष का प्रचार करते तो क्या वे अपने आभा मण्डल को सीमित नहीं कर रहे होते? क्या तब उनके लिए वानखेड़े मेँ लग रही सचिन सचिन की एक सुर मेँ लगाई जा रही पुकार बीच मेँ किसी भी पल मोदी मोदी मेँ नहीं बदल जाती!
     कुछ ऐसा ही चमत्कार दो साहित्यकारों ने कर दिखाया। कन्नड़ साहित्यकार अनंतमूर्ति ने मोदी को लेकर जो बयानबाजी की वह किसी भी साहित्यकार के लिए सर्वथा अशोभनीय है। जिसे जनता ने तीन बार चुना हो और जब गुजरात दंगों की सर्वोच्च अदालत के मार्गदर्शन मेँ हुई जाँचों मेँ भी इस बात के कोई सबूत नहीं पाए गए कि दंगों के लिए मोदी स्वयं किसी भी प्रकार से जिम्मेदार थे, उसके लिए अन्य राज्य के साहित्यकार द्वारा विरोध करना क्या गुजरात की जनता का अपमान नहीं है? गुजरात के दंगों मेँ मोदी द्वारा समय पर नियंत्रण न कर पाने और ’84 के सिख नरसँहार मेँ तत्कालीन दिल्ली सरकार द्वारा न कर पाने को अलग अलग चश्मे से देखने वाले शंका के घेरे मेँ आने से नहीं बच सकते। इससे बेहतर होता कि अनंतमूर्ति नरेंद्र मोदी के विचारों का तार्किक भाषणों या लेखों के माध्यम से जवाब देते।
     ऐसी ही एक अप्रिय व फूहड़ स्थिति मेरे शहर (देवास) मेँ अभी कुछ माह पूर्व एक पुस्तक विमोचन के कार्यक्रम मेँ बनी। कार्यक्रम मेँ पधारे एक कवि की कविता का विषय उनमें व नरेंद्र मोदी के नाम मेँ समानता को लेकर था। लोकतांत्रिक पद्धति से निर्वाचित किसी राजनीतिक शख्सियत को कविता के बहाने भी गालियाँ दी जा सकती हैं यह पहली बार देखा था। इस दौरान कुछ श्रोताओं को असहज होते व बाद मेँ अधिकांश को तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए भी देखा गया। कवि को अपने नाम नरेंद्र (विदिशा के नरेंद्र जैन) होने पर तो अफसोस था पर उन्हें शायद यह पता नहीं है कि नरेंद्र नाम आचार्य नरेंद्र देव व स्वामी विवेकानंद का भी था।
     अब समय आ गया है कि राजनीति के धरातल से ऊपर स्थापित किए जा चुके सेलेब्रिटीज़ तय करें कि वे राष्ट्र की धरोहर हैं, न कि किसी राजनीतिक दल की। उनकी प्रतिबद्धता शोषित, आमजन व अंततः वतन के प्रति ही होनी चाहिए, किसी दल या राजनीतिक व्यक्तित्व के लिए नहीं। इसी तरह साहित्यकारों मेँ सियासती छद्म का थाह लेने की सूक्ष्म दृष्टि होनी चाहिए। उन्हें अपनी लेखनी को वैमनस्य फैलाने का माध्यम हरगिज़ नहीं बनने देना चाहिए।    
                       ***   

100, रामनगर एक्सटेंशन, देवास 455001 (म.प्र.)          

Friday 13 December 2013


नईदुनिया के परिशिष्ट 'नायिका' में  04.12.13 के अंक में प्रकाशित टिप्पणी।


   
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ओम वर्मा  
नईदुनिया, इंदौर  ने अपने कुछ गिने चुने उत्कृष्ट व्यंग्य अपने वेब- पोर्टल  'वेबदुनिया' पर अपलोड कर रखे हैं। उनमें जनवरी'2011 में प्रकाशित मेरा यह प्रिय व्यंग्य भी है। 

  
    मुर्गी या अंडा; कटआउट और झण्डा   

                                                       - ओम वर्मा

भारत एक त्योहारों का देश है। यकीन न हो तो आप कोई भी कैलेंडर उठाकर देख लें। हर दिन किसी न किसी धर्म, जाति, संप्रदाय, खाप या कबीले का त्योहार या उसके किसी 'महापुरुष' की जन्म या निर्वाण तिथि मिलेगी। उस दिन भी इनमें से कोई बड़ा त्योहार ही था। 

  हर त्योहार की तरह उस दिन उमंग-उल्लास देखते ही बनता था। सुबह के बाद थोड़ा समय सुख-चैन से बीता ही था कि दोपहर तक उमंग और उल्लास उन्माद में बदलने लगा। आठ-दस डीजे साउंड एवं 'उभरते' नेताओं के आदमकद पोस्टरों से सजे-सँवरे वाहन शहर में घूमने लगे। 

ND
   देखते ही देखते शहर का कोना-कोना कानफोड़ू संगीत के शोर-शराबे में डूब गया। बीमार अपने-अपने इष्ट देवता का स्मरण करने लगे। कुछ लोगों की नजरों में, घर में बोझ समझे जाने वाले वरिष्ठ नागरिक अपनी बेकाबू धड़कनों को थामने की नाकामयाब कोशिशें करने लगे।

     आखिर हिम्मत करके एक कबीरनुमा सज्जन ने चौराहे पर जाकर एक अति उत्साही कार्यकर्ता को समझाने यानी भैंस के आगे बीन बजाने का प्रयास करते हुए कहा, 'भाई! थोड़ा कम आवाज में बजाओ। इतनी तेज आवाज से बच्चे, बूढ़े और बीमार सभी को तकलीफ होती है।'

     इस पर धर्मप्रेमी सज्जन ने जवाब दिया, 'क्यों, हमको तो मनाकर रिये हो, पर जब 'उनके' त्योहार पर वे जोर से बजाते हैं तब उनको क्यों नहीं रोकते! जाहिर है कि कबीर निरुत्तर हो गए थे।

    कुछ दिन बाद दूसरे संप्रदाय का त्योहार आया। फिर वही कानफोड़ू डीजे साउंड...शोर-शराबा, नारों से गूँजता और झंडियों से पटा शहर...!" बदला था तो सिर्फ लोगों के दुपट्टों, टोपियों और झंडियों का रंग। इस कबीर की फिर वही पीड़ा थी। इसने फिर वही हिमाकत की। और जाहिर है कि फिर वही उत्तर पाया, 'क्यों हमको तो मना कर रिये हो पर...।' 

ND
     कबीर का यह वंशज तब से अब तक दोनों समुदायों के बीच अपने प्रश्नों का उत्तर खोज रहा है। तय नहीं हो पा रहा है कि यह घातक ध्वनि प्रदूषण आखिर किस धर्म, मजहब या समुदाय के अनुयायी फैला रहे हैं? बच्चों, बुजुर्गों और बीमारों की शांति पर डाका आखिर कौन डाल रहे हैं? ये इसलिए चिल्ला रहे हैं कि कल वो चिल्ला रहे थे...! कल वो इसलिए चिल्लाएँगे कि आज इन्होंने नाक में दम कर रखा है।

    ऐसी कई श्रृंखलाएँ अनवरत जारी हैं। आज ये संसद इसलिए ठप कर रहे हैं कि कल उन्होंने की थी। या अगली बार सत्ता में ये आ गए तो कल वे करेंगे। सीधी सी बात है कि मुर्गी क्यों है? क्योंकि अंडा है। वही अंडा जो किसी मुर्गी ने ही दिया है। पहले किसे खत्म किया जाए ताकि दूसरा भी न रहे, यह चिंतन आज और भी प्रासंगिक हो गया है।

    मुर्गी पक्ष वाले और अंडा पक्ष वाले दोनों यह कब समझेंगे कि उदरस्थ तो दोनों को ही किया जा रहा है। और पहले आप-पहले आप में हमारी 'शांति एक्सप्रेस' छूटी जा रही है।                         ***

Wednesday 4 December 2013



       

 कहानी
 (नईदुनिया, 01.12.13)
 http://naiduniaepaper.jagran.com/Details.aspx?id=606683&boxid=29120442          
              एक सपने की मौत
                      ओम वर्मा om.varma17@gmail.com
ब पहली बार उससे मेरी आँखे चार हुईं तो मैं हतप्रभ रह गया। सोचता रह गया कि ये आँखें मैंने पहले कहाँ देखी हैं ! दिमाग पर ज्यादा देर तक जोर नहीं डालना पड़ा। अभी कुछ दिन पूर्व ही मुंबई के जीजाबाई उद्यान में स्थित चिड़ियाघर में अपनी छह वर्षीया भतीजी को घुमाने ले गया था। वहाँ देखा था एक मृगशावक जिसकी आँखें मैं निर्निमेष देखता रह गया था ! मुझे लगा था कि ऊपर वाले की वर्कशॉप में पूरे छह दिन यानी सोमवार से शनिवार तक बाकी सारे जीव बनाए जाते होंगे और मृग सिर्फ संडे को। मगर उस मृगशावक को देखकर मेरा संडे वाला भ्रम भी टूट गया था। उस शावक को संडे को बनाने के बाद ईश्वर की वर्कशॉप के सारे मिस्त्री शायद हड़ताल पर चले गए थे और शावक की आँखे बनाना रह गई थीं। फिर ईश्वर ने स्वयं अपने हाथों से दो तीन दिन का समय लिया और उस मृग शावक की आँखें तैयार की। शायद वे आँखें वहाँ से निकलकर या उड़कर इसके चेहरे पर लग गई हैं...या शायद इसने चुरा ली हैं।
     घर पर मेनगेट से प्रवेश करते ही पहले नज़र गलियारे में लगे नल और बरतन माँजने के स्थान पर पड़ती है। उस दिन शाम को ऑफिस से जैसे ही घर लौटा और बरतन माँजती उस मृगनयनी से मेरी आँखें चार हुईं कि मुझे हिप्नोटाइज़ होने में देर नहीं लगी। पत्नी ने द्वार खोला और मुझे उस बारह- तेरह वर्षीया मृगलोचनी की आँखों के मोहपाश से मुक्त कराते हुए कहा,
      “यह सपना है, आज से इसको रखा है झाड़ू पोंछा और बरतन के लिए...!”                                                   
       उसका पूरा चेहरा रक्ताभ था। ड्राइंग रूम में आने के बाद सुनयना की आँखों व जंगली फूल जैसे सौंदर्य के मोहपाश की मनःस्थिति से पति होने की अहंकारी मनःस्थिति में लौटते हुए मैंने पत्नी से पूछा,
     “तुमने इसको काम पर क्यों रखा ? इतनी छोटी लड़की क्या काम कर पाएगी ! और जरा उसका रंग-रूप देखो ! कल से उसके साथ दिल्ली जैसा कुछ उल्टा-पुल्टा हो जाए तो हम कहाँ भागते फिरेंगे !”
     “मैंने इसे नहीं इसकी माँ को रखा था,” पत्नी ने सरकारी किस्म का जवाब देकर मुझे संतुष्ट करने का प्रयास किया, “पर माँ ने काम और पैसा तय करके हमारे यहाँ अपनी लड़की को रखवा दिया और खुद पीछे वाली ठाकुर भाभी के यहाँ काम करने चली गई।“
     तो यह बात है। मुझे इन काम वाली बाइयों पर कोफ्त होने लगी। काम ढेर सारा ले लेती हैं और नहीं बनता तो बच्चों को उलझा लेती हैं।
     अपनी बिटिया से मैंने स्कूल होमवर्क और पढ़ाई की जानकारी ली। मुझे यह सोचकर आत्मसंतुष्टि हुई कि मैं पढ़ा-लिखा हूँ और परिवार का निर्वाहन करने में सक्षम हूँ...बच्चों को पढ़ा-लिखा कर इस लायक तो बना ही सकता हूँ कि मेरे बच्चों को कहीं छोटू या बारीक़ नहीं बनना पड़ेगा, और न ही कहीं बेटी को बरतन साफ करना पड़ेंगे।
     सपना की आँखें धीरे-धीरे मेरे दिल का कमरा ऑक्युपाइ करने लगीं। एक दिन मुझसे रहा नहीं गया और उससे आखिर पूछ ही बैठा,
     “क्यों सपना, तू सिर्फ काम ही करती है या स्कूल भी जाती है ?”  
     “स्कूल तो जाती थी अंकलजी...पर इस साल माँ ने तीसरी क्लास से पढ़ना छुड़ा दिया।“
     “क्यों ?” मैं चौंका।
     “वो माँ से इत्ते घरों का काम नी संभलता था तो मेरे को और मेरी छोटी बेन संगीता को दो-दो घर दिला दिए।“
     यानी उसकी एक छोटी बहिन भी है। मेरी जानकारी में इजाफा हुआ। मैंने पूछा,
     “छोटी बहिन कहाँ जाती है, और तुम कितने भाई बहिन हो ?”
     “छोटी बहिन संगीता मोती बंगले में एक साब के घर रख छोड़ी है और तीन छोटी बहनें और भी हैं।                                                 “मतलब....”
          “हम कुल पाँच बहिनें हैं और मैं सबमेँ बड़ी हूँ।“
      “तुम्हारे पापा क्या करते हैं ?”
      “मेरा बाप बेलदारी का काम करता है।”
      बेलदारी का मतलब उसने बताया कि छत भरने की यानी आर.सी.सी. भरने की मजदूरी को निमाड़ी लोग बेलदारी कहते हैं। निमाड़ से काम के वास्ते यहाँ आए थे वे लोग। बाप कभी कभार ठेकेदार के पास छत भरने की मजदूरी करता है और माँ कई घरों में बरतन – पोंछे का काम कर लेती है। लेकिन मेरी यह समझ में नहीं आया कि जब दोनो मनक कमा रहे हैं तो फिर बच्चों से काम क्यों करवाते हैं। मेरे पूछने पर सपना ने यह भी बताया कि शहर में शिवानी नर्सिंग होम और इंकम टैक्स ऑफिस के बीच की जगह में झाबुआ और निमाड़ से आए कुछ लोग झुग्गियाँ बनाकर रहते हैं वहीं इनका भी घर है। सरकारी स्कूल में वो पढ़ती थी जहाँ फीस भी नहीं लगती थी और खाना भी मिलता था। एक दिन उस मृगनयनी से मैं आखिर पूछ ही बैठा-
     “सपना तू काम छोड़ दे और स्कूल जाया कर ! नहीं पढ़ेगी तो जिंदगी भर बरतन ही माँजेगी और पढ़ लिख लेगी तो अच्छे घर जाएगी।“
     इस पर सपना ने जो जवाब दिया वह मेरा कलेजा हिला देने को काफी था-
     “अंकलजी मैं स्कूल जाना तो चाहती हूँ, पर स्कूल जाऊँगी तो घर (जहाँ काम करती है) छूट जाएँगे...और घर छूटने पर बाप रोज माँ को और हम सब बहिनों को ज्यादा मारेगा। बाप को तो रोज दारू चईये... चाहे हमको खाने को मिले या न मिले...!”
     आगे की सारी कहानी मेरी समझ में आ गई थी। माँ और दो बेटियों को मिलकर रोजाना कमाकर घर भी चलाना है और मार भी खाते रहना है।
     लेकिन मैं एक होनहार बचपन को काम के बोझ में लुप्त होते नहीं देखना चाहता था। मैंने पूछा-
     “तेरे पास स्कूल की कॉपी किताब या जो भी सामान हो, लेकर कल से रोज मेरे पास पढ़ने बैठ जाया कर। तेरा काम भी हो जाएगा और मैं रोज पढ़ा भी दिया करूँगा।“ कम से कम पाँचवी क्लास तक तो वो पढ़ ही ले, ऐसी मेरी दिली इच्छा थी। 
     “ठीक है, ले आऊँगी अंकलजी !” 
     अगले दिन उसके काम के बाद मैंने उसका ज्ञान टटोला। उसे सौ तक गिनती और पाँच तक पहाड़े याद थे। इतना तो काफी है आगे सीखने के लिए।
     उसने रोजाना मुझसे पढ़ना शुरु किया। एक दो दिन तक पत्नी को मेरी बात एक सनक सी लगी। लेकिन फिर वह भी अक्षरदान की पुण्य सलिला में अपना अर्ध्य देने लगी। आठ दस दिन तक यह सिलसिला चला तो मुझे लगा कि पैसेंजर गाड़ी किसी दिन एक्सप्रेस में बदल जाएगी । लेकिन तभी अचानक सिगनल लाल हो गया।
     “वो अंकलजी...बात ये है कि मैं आज से अब नी पढ़ूँगी...।“ 
     “क्यों...!” मैं चौंका !
     “वो पढ़ने में मेरा जो टेम जाता है उससे मेरे दो घर का काम छूट जाता है और माँ नाराज़ होती है...बोलती है कि काम मत छोड़। वो मोती बंगले वाले साब के यहाँ काम पे नी पोंचेगी तो वो दूसरी बाई रख लेंगे और तू पैसे नी लाएगी तो बाप मारेगा।”
     मैंने उसकी माँ से बात करी। उसने हमें समझाया कि लड़की का काम पर जाना जरूरी है, नहीं पढ़ेगी तो चलेगा पर पैसे नहीं मिले और इसके बाप को दारू नी मिली तो वो हम माँ-बेटी को और ज्यादा माराकूटी करेगा।
    “तुम लोग पुलिस में रिपोर्ट क्यों नहीं कर देते...”, मैंने किसी डेंटेड-पैंटेड सोशलाइट की तरह उसे समझाया।       
     “पुलिस आदमी को माराकूटी करके बंद कर देगी...फिर छुड़ाने तो हमको ही जाना पड़ेगा। हमारा घर-बार और पेट तो हमको ही भरना है...।“
     “तुम सपना को रात को भेज दिया करो...।“
     “तुम सपना को रात को भेज दिया करो...।”
     “रात को भेजेंगे तो वो और लड़ेगा झगड़ेगा।”
     उसने  यह  भी  बताया कि वो टी टी आपरेशन भी नी करवाने देता। उसको
लड़का चइए...वो अब फिर से माँ भी बनने वाली है।
     मेरी दिलो-जान से इच्छा थी कि सपना उस नर्क से मुक्ति पा जाए और थोड़ा बहुत पढ़ लिख सके। मैं स्वयं समय निकालकर उसे पढ़ाना चाहता था, मगर समय सपना के पास नहीं था। बाल श्रम करवाने के पाप से पूरे समाज की तरह मैं भी नहीं बच सका। मेरी सपना के प्रति सहानुभूति दिनों-दिन बढ़ती ही जा रही थी। मुझे उसमें व अपनी बेटी में कोई फर्क़ ही नज़र नहीं आता था। मैं जान बूझकर बर्तनों को कुछ इस तरह से उपयोग में लाता कि एक दो जूठे बर्तन कम निकलते। ऐसा करके मुझे यह एहसास बना रहता कि मैं उसका श्रम व समय बचा रहा हूँ...और इससे शायद उसे पढ़ने के लिए प्रेरणा मिले, ऊर्जा बची रहे।
     लेकिन मैं भी हवा को गले लगाए था और पारे की बूँद को पकड़ना चाहता था। सपना को आगे नहीं पढ़ना था सपना को मुझसे नहीं पढ़ना था...सपना को मेरी बेटी की तरह माता-पिता का प्यार नहीं पाना था सो नहीं मिला। सपना को एक कमाऊ पूत की तरह घर चलाने में सहयोग देना था और बाप की दारू का इंतजाम करना था और बदले में रात को माँ को पिटते भी देखना था, खुद भी मार खानी थी , बहिनों को पिटते देखना था...सो वह कर रही है।
     सपना की माँ ने एक और समझदारी का काम किया। उसकी बेटी की पढ़ाई और ज़िंदगी को लेकर मुझे बार बार झुँझलाते, दुबलाते और पूछताछ करते देख आखिर उससे हमारा घर ही छुड़वा दिया। अब वह किसी और घर में बर्तन पोंछा कर रही होगी जहाँ कम से कम पढ़ने लिखने को लेकर कोई उसके पीछे नहीं पड़ता होगा।
     एक मासूम बालमन की कम से कम मेरे सामने तो हत्या नहीं हो रही है...मैं यही सोचकर खुद को संतुष्ट करने का प्रयास कर रहा हूँ।  
             ***

ओम वर्मा, 100, रामनगर एक्सटेंशन, देवास 455001  

Thursday 21 November 2013

  व्यंग्य (नईदुनिया, 18.11.13)
बापू के चरखे की नीलामी 
                                                         ओम वर्मा                                            om.varma17@gmail.com     
त्य, अहिंसा, धोती, सत्याग्रह और चरखे को मिलाओ तो गांधी बनता है ! बरुआ जी से क्षमा याचना कर करना चाहूँगा कि गांधी इज़ चरखा; चरखा इज़ गांधीसागौन की लकड़ी से बना यह पोर्टेबल चरखा यरवड़ा जेल में भी गांधी के व्यक्तित्व और दिनचर्या का अविभाज्य अंग था। 1933 में रिहा होने के बाद उन्होंने इसे वर्धा की एक मिशनरी के रेवरेण्ड डॉ. फ्लायड ए. पफ़र  (1888-1965) तथा उनकी पत्नी को भेंट कर दिया था। और इसी करामाती चरखे को गत 5 नवं. को लंदन के मलस्क्स आक्शन हाउस में एक लाख दस हजार पौंड मेँ नीलाम कर दिया गया। नीलामी की खबर से सभी दलदलों, आयमीन राजनीतिक दलों मेँ खलबली मच गई।
     “ये बापू आखिर चरखा क्यों चलाते थे? क्या इसका सूत और उससे बना कपड़ा चीन के सूत या कपड़े से भी सस्ता था?” एक कार्यकर्ता ने सवाल किया।   
     “इससे तो अच्छा होता कि चुनाव जीतने या कट्टे तमंचे बनाने के गुर सिखाकर जाते.. अब चरखे को चाटेंगे क्या
?” मंत्रीजी के एक लट्ठ-भारती विशेषज्ञ पट्ठे ने मूंछों पर ताव देते हुए अपनी जिज्ञासा सामने रखी।
     “मेरे ख्याल से वो चरखा हमें ही खरीद लेना था।“ एक और चुनावी झाँकी विशेषज्ञ ने सुझाव दिया।
     “क्या चरखे टाइप बात कर रहे हो यार! ब्रिटिश पौंड आज सौ रु. का है। एक करोड़ के चरखे पर एक करोड़ तो कस्टम वाले ही ले लेते। दो करोड़ से भी ज्यादा का चरखा लेकर अचार डालेंगे क्या?” पार्टी के चुनावी फण्ड के लिए चंदा वसूलने मेँ माहिर होने के कारण इन्हें बजट के समय चैनल चौपालों पर भी कुछ इसी तरह दहाड़ते हुए देखा जाता था। आज भी इस ‘अर्थशास्त्री’ कार्यकर्ता ने बापू को कुछ इसी तरह श्रद्धांजलि दी।
     “सोचो अगर बापू का चरखा हमारे पास आ जाता तो हम पटेल के स्टेचू ऑफ यूनिटीसे भी बड़ा मुद्दा जनता के सामने रख सकते थे और लोगों की व प्रेस वालों की इसगलतफहमी को भी दूर कर सकते थे कि हम गांधी को सिर्फ दो अक्तूबर और वो जनवरी मेँ कौन सी तारीख थी यार...हाँ वो तीस को ही याद करते हैं।“ इस जोरदार विचार पर कुछ ने ताली बजाई तो कुछ नंगे सिर होते हुए भी हेट्स ऑफ! हेट्स ऑफ !! चिल्लाने लगे।
     “मैं कहता हूँ अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है। क्यों न हम किसी बड़े साधू से यह बयान दिलवा दें कि उसे सपना आया है कि फलाने फलाने किसी दलित व्यक्ति के यहाँ रखा चरखा ही बापू का असली चरखा है। फिर वहाँ हमारे बड़े सर एक रात रुकें, मुँह जूठा कर लें, कुछ मच्छरों को रक्तदान कर दें और चरखा लेकर राष्ट्र को समर्पित भी कर दें। इससे ये दलित लोग भी खुश हो जाएंगे, मच्छरों का भी टेस्ट चेंज हो जाएगा और वो यूपी के साइकिल वाले बाप-बेटों का मुँह भी बंद हो जाएगा। फिर उसी चरखे से काते गए सूत मेँ से एकाध धागा लेकर बाकी सिंथेटिक सूत मिलाकर उससे बनी साड़ियाँ देश की तमाम मातृशक्ति मेँ बँटवाने की घोषणा कर दी जाए। चरखे की हिफाजत भी हो जाएगी, खादी का प्रचार भी हो जाएगा और गांधीगिरी वाला मुद्दा भी हमारे पलड़े में आ जाएगा।“ स्वयं को पार्टी का थिंक टेंक समझने व बुद्धिजीवीनुमा गेट-अप वाले वरिष्ठ नेताजी ने कहा।
       चरखा कहीं प्याज़ की तरह ले न डूबे इसलिए कुछ सुझाव आए कि मेनोफेस्टो मेँ उसे वापस लाने की घोषणा हो; या एम.जी. रोड की तरह हर  मोहल्ले मेँ एक एक चरखा केंद्र खुलवा कर  सूत कताई का साप्ताहिक आयोजन हो। और यह भी कि आचार संहिता को ठोकर मारते हुए जगह जगह चरखे के कट आउट्स लगा दिए जाएँ!     
        चरखे पर गांधीगिरी जारी है।
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100, रामनगर एक्सटेंशन, देवास 455001 (म.प्र.)
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Thursday 7 November 2013


व्यंग्य
 ओपिनियन पोल – एक प्राचीन परंपरा
                                                  ओम वर्मा
                                                       om.varma17@gmail.com
चौदह वर्ष का वनवास काट कर प्रभु श्रीराम अयोध्या पहुँचे। इधर बिना स्वप्न आधारित या बिना पुरातत्वीय खुदाई के अपनी मातृभूमि को स्वर्णनगरी मेँ बदल देने वाले त्रिलोकपति लेकिन महाअहंकारी दशानन का वध कर जब प्रभु श्रीराम अयोध्या लौटे तो इतिहास का पहला ओपिनियन पोल उनकी राह देख रहा था ।
     बाहरी व्यक्ति द्वारा अपहृत पत्नी को वापस उचित स्थान दिए जाने का अपराध करने पर हो रही लोकनिंदा व कानाफूसी से जब रामजी  तंग आ गए तो उन्होंने स्वयं छद्म भेष धारण कर दलित के घर रात गुजारने वाली स्टाइल मेँ एक लॉन्ड्री वाले के यहाँ व कुछ अन्य अड्डों पर कुछ समय व्यतीत कर आम नागरिकों की राजा के आचरण पर प्रतिक्रिया जानी। हर अयोध्यावासी से मिलना उनके लिए संभव नहीं था। जाहिर है कि त्रेता युग के इस महान  शासक ने किसी संस्था से फिक्स्ड सर्वे करवाने के बजाय स्वयं एक सेंपल सर्वे कर पहले ओपिनियन पोल की विधिवत शुरुआत कर दी थी।
     मगर इतिहास मेँ एक और ओपिनियन पोल का उल्लेख मिलता है जो इससे थोड़ा भिन्न है। हुआ यूँ कि एक दिन बादशाह अकबर भरमा बैंगन की शानदार सब्जी खाकर मस्त हो गए थे और उसका स्वाद मुँह मेँ देर तक बना रहा। सभासदों के बीच मेँ उन्होंने सबसे पहले इसका जिक्र किया तो बीरबल ने तुरंत राजनीति के अनुशासित सिपाही की तरह बयान जारी किया, “हुज़ूर बैंगन तो सब्जियों का राजा है। उसका रंग शानदार, सर पर बादशाहों जैसा ताज! जहांपनाह का हुक्म हो तो बैंगन को राजकीय सब्जी घोषित कर दिया जाए!”
     बैंगन को राजकीय सब्जी घोषित करने की प्रक्रिया चल ही रही थी कि एक दिन बादशाह अकबर ने फिर वही मसालेदार सब्जी और ज्यादा खा ली। उन दिनों वहाँ न तो कोई जयराम रमेश थे और न कोई नरेंद्र मोदी, तब भी उन्हें शौचालय की महत्ता समझ मेँ आ गई। अगले दिन उन्होंने दरबार मेँ बैंगन की सब्जी को कोसते हुए जैसे ही अपनी हालत के बारे मेँ बताया कि चतुर सुजान बीरबल ने तुरंत नीतीशकुमार द्वारा मोदी के बारे मेँ बदली गई राय की तरह बैंगन के बारे मेँ अपनी राय बदली, जी आलमपनाह! बैंगन भी कोई सब्जी है...काला कलूटा ...सिर पर काँटों भरा ताज...कोई गोल तो कोई लंबा...! मेरी मानें तो हुज़ूर इसकी खेती पर ही पाबंदी लगा दें ताकि कल कोई इसमें नस्लीय बदलाव (जेनेटिक रूपान्तरण) न कर सके।“
     प्रभु श्रीराम चक्रवर्ती सम्राट व कानूनी तौर पर एक राज्य के राजा थे। राजतंत्र मेँ भी उन्हें ओपिनियन पोल जैसी लोकतांत्रिक व्यवस्था मेँ विश्वास था। मगर लोकतंत्र मेँ चौदह वर्ष से राजनीतिक वनवास काट रहे राजा का ओपिनियन पोल के बारे मेँ स्वयं का ओपिनियन सर्वथा भिन्न है। वे शायद बीरबल द्वारा बादशाह की स्तुति जैसा राजतंत्री ओपिनियन पोल चाहते हैं। वे यह भूल जाते हैं कि बैंगन प्रकरण मेँ अपनी नीति परिवर्तन पर बीरबल ने बादशाह सलामत को डिप्लोमेटिक जवाब देते हुए यह भी तो कहा था-
   “हुज़ूर गुलाम नमक आपका खाता है न कि बैंगन का!”   
   आज के बादशाहों को कौन समझाए कि जनता तो अपनी ही गाढ़ी कमाई से खरीदा नमक खा रही है हुज़ूर!  
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100, रामनगर एक्सटेंशन, देवास 455001 (म॰प्र॰)

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Tuesday 15 October 2013


विचार
     चुनाव प्रचार मेँ बदलाव जरूरी
      
  
                             
                                          ओम वर्मा
                                    
                   om.varma17@gmail.com
पाँच राज्यों की विधान सभाओं के लिए चुनावों की घोषणा हो गई है और इनमें नई सरकारों के काम संभालते संभालते ही अगली लोकसभा के चुनावों का बिगुल भी जाएगा। चुनाव आयोग ने भले ही एक उम्मीदवार के चुनाव प्रचार की सीमा लोकसभा के लिए चालीस लाख व विधान सभा के लिए सोलह लाख रु॰ निर्धारित कर दी हो पर सच यह है कि वास्तविक व्यय इससे कई गुना ज्यादा होता है जिसमें काले धन की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। विजयी उम्मीदवार के लिए यह वह निवेश है जो उसे लाभांश प्राप्त करने के लिए पूरे पाँच वर्ष प्रेरित करता रहता है। और जिन एजेंसियों/व्यक्तियों  ने चुनावी अभियान को प्रायोजित किया है क्या वे किसी भी नीति या निर्णय को अपने अनुकूल बनवाना या लागू करवाना नहीं चाहेंगे ? इसका दूसरा पहलू यह भी है कि धनबल और बाहुबल के इस युद्ध में कभी भी अधिक बेहतर या योग्य विकल्प उभरकर सामने आ ही नहीं सकता।
     और फिर चुनाव प्रचार ! झंडे
, रैलियाँ, कानफोड़ू डीजे साउंड वाली तेज आवाज में प्रचार करते व धूल-धुएँ से पर्यावरण को प्रदूषित करते वाहन ! प्रचार – विज्ञापन में लगने वाला कई टन कागज ! किसी भी अनुत्पादक कार्य में जो पैसा लगेगा वह जाहिर है कि सिर्फ महँगाई ही बढ़ाएगा। कागज जितना अधिक प्रयुक्त होगा उतना ही अधिक पर्यावरण का विनाश...! जब हम एक टन कागज इस्तेमाल करते हैं तब हम 17 पेड़, 2103 ली. तेल, 4077 कि.वा. ऊर्जा, 31587 ली. पानी, और 266 कि.ग्रा. हवा को  प्रदूषित तथा भूमि का 2.33 घनमीटर हिस्सा 'लैण्ड फिल' यानी बंजर बना रहे होते हैं |
   
 लाख टके का सवाल य है कि आखिर चुनाव प्रचार के इस विकृत स्वरूप को कैसे बदला जाए ? इसका एकमात्र तरीका य हो सकता है कि पोस्टर, बैनर, झण्डे आदि पूरी तरह प्रतिबंधित कर दिए जाएँ व चुनाव प्रचार सिर्फ टीवी के माध्यम से हो। प्रतिदिन कुछ समय उम्मीदवार के लिए व कुछ दल के अन्य नेता या वक्ता के लिए हो। पार्टी के अलग अलग स्तर के वक्ता के लिए उसके पद के अनुसार समय निर्धारित किया जा सकता है। उम्मीदवारों की आमने सामने चर्चा, बहस या परिसंवाद करवाया जा सकता है। अब प्रश्न यह आता है कि क्या इलेक्ट्रानिक मीडिया के माध्यम से रखी गई बात मतदाताओं तक पहुँचेगी या क्या आम जन इसे अपने संज्ञान में लेगा। तो जवाब यह है कि आज टीवी घर घर मेँ, झुग्गी झोंपड़ियों तक पहुँच चुका है और आम आदमी की जरूरत बन चुका है। अगर बहस को रोचक ढंग से प्रस्तुत किया जाए तो दर्शक अवश्य रुचि लेंगे। किसी भी स्थापित पद्धति को हटाने या बदलने पर पहले लोगों मेँ कुछ झिझक और विरोध होता ही है मगर धीरे धीरे उसे अपना लिया जाता है। वोटिंग मशीन (ईवीएम), कंप्यूटर, रंगीन टीवी आदि सभी चीजों का भी पहले विरोध ही हुआ था, मगर आज ये सब हमारी  जीवन पद्धति मेँ समाहित हो चुकी हैं। इसे स्थापित करने के लिए रविवार के दिन अधिक समय व प्राइम टाइम मेँ प्रतिदिन कुछ समय निर्धारित किया जा सकता है। अब समय आ गया है कि मतदान अनिवार्य करने की दिशा मेँ भी सोचा जाना चाहिए। इसके लिए मतदान करने वाले के बैंक खाते मेँ तत्काल कुछ प्रोत्साहन राशि या मानदेय जमा किया जा सकता है। यह राशि चुनावों में होने वाले खर्च और पर्यावरण को होने वाली क्षति से तो निश्चित ही कम होगी। शासकीय कर्मचारी को अगली वेतनवृद्धि मतदान प्रमाण-पत्र प्रस्तुत करने पर ही दी जाए। गैस सब्सिडी या अन्य किसी भी शासकीय सुविधा या राजसहायता के लिए भी मतदान प्रमाण-पत्र प्रस्तुत करना अनिवार्य किया जा सकता है। यथासंभव पूरे देश में लोकसभा व विधानसभा के चुनाव एकसाथ करवाकर भी पर्यावरण संरक्षण व चुनावी खर्च बचाने की दिशा में ठोस कदम उठाए जा सकते हैं।       
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100, रामनगर एक्सटेंशन, देवास 455001