Tuesday 15 October 2013


विचार
     चुनाव प्रचार मेँ बदलाव जरूरी
      
  
                             
                                          ओम वर्मा
                                    
                   om.varma17@gmail.com
पाँच राज्यों की विधान सभाओं के लिए चुनावों की घोषणा हो गई है और इनमें नई सरकारों के काम संभालते संभालते ही अगली लोकसभा के चुनावों का बिगुल भी जाएगा। चुनाव आयोग ने भले ही एक उम्मीदवार के चुनाव प्रचार की सीमा लोकसभा के लिए चालीस लाख व विधान सभा के लिए सोलह लाख रु॰ निर्धारित कर दी हो पर सच यह है कि वास्तविक व्यय इससे कई गुना ज्यादा होता है जिसमें काले धन की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। विजयी उम्मीदवार के लिए यह वह निवेश है जो उसे लाभांश प्राप्त करने के लिए पूरे पाँच वर्ष प्रेरित करता रहता है। और जिन एजेंसियों/व्यक्तियों  ने चुनावी अभियान को प्रायोजित किया है क्या वे किसी भी नीति या निर्णय को अपने अनुकूल बनवाना या लागू करवाना नहीं चाहेंगे ? इसका दूसरा पहलू यह भी है कि धनबल और बाहुबल के इस युद्ध में कभी भी अधिक बेहतर या योग्य विकल्प उभरकर सामने आ ही नहीं सकता।
     और फिर चुनाव प्रचार ! झंडे
, रैलियाँ, कानफोड़ू डीजे साउंड वाली तेज आवाज में प्रचार करते व धूल-धुएँ से पर्यावरण को प्रदूषित करते वाहन ! प्रचार – विज्ञापन में लगने वाला कई टन कागज ! किसी भी अनुत्पादक कार्य में जो पैसा लगेगा वह जाहिर है कि सिर्फ महँगाई ही बढ़ाएगा। कागज जितना अधिक प्रयुक्त होगा उतना ही अधिक पर्यावरण का विनाश...! जब हम एक टन कागज इस्तेमाल करते हैं तब हम 17 पेड़, 2103 ली. तेल, 4077 कि.वा. ऊर्जा, 31587 ली. पानी, और 266 कि.ग्रा. हवा को  प्रदूषित तथा भूमि का 2.33 घनमीटर हिस्सा 'लैण्ड फिल' यानी बंजर बना रहे होते हैं |
   
 लाख टके का सवाल य है कि आखिर चुनाव प्रचार के इस विकृत स्वरूप को कैसे बदला जाए ? इसका एकमात्र तरीका य हो सकता है कि पोस्टर, बैनर, झण्डे आदि पूरी तरह प्रतिबंधित कर दिए जाएँ व चुनाव प्रचार सिर्फ टीवी के माध्यम से हो। प्रतिदिन कुछ समय उम्मीदवार के लिए व कुछ दल के अन्य नेता या वक्ता के लिए हो। पार्टी के अलग अलग स्तर के वक्ता के लिए उसके पद के अनुसार समय निर्धारित किया जा सकता है। उम्मीदवारों की आमने सामने चर्चा, बहस या परिसंवाद करवाया जा सकता है। अब प्रश्न यह आता है कि क्या इलेक्ट्रानिक मीडिया के माध्यम से रखी गई बात मतदाताओं तक पहुँचेगी या क्या आम जन इसे अपने संज्ञान में लेगा। तो जवाब यह है कि आज टीवी घर घर मेँ, झुग्गी झोंपड़ियों तक पहुँच चुका है और आम आदमी की जरूरत बन चुका है। अगर बहस को रोचक ढंग से प्रस्तुत किया जाए तो दर्शक अवश्य रुचि लेंगे। किसी भी स्थापित पद्धति को हटाने या बदलने पर पहले लोगों मेँ कुछ झिझक और विरोध होता ही है मगर धीरे धीरे उसे अपना लिया जाता है। वोटिंग मशीन (ईवीएम), कंप्यूटर, रंगीन टीवी आदि सभी चीजों का भी पहले विरोध ही हुआ था, मगर आज ये सब हमारी  जीवन पद्धति मेँ समाहित हो चुकी हैं। इसे स्थापित करने के लिए रविवार के दिन अधिक समय व प्राइम टाइम मेँ प्रतिदिन कुछ समय निर्धारित किया जा सकता है। अब समय आ गया है कि मतदान अनिवार्य करने की दिशा मेँ भी सोचा जाना चाहिए। इसके लिए मतदान करने वाले के बैंक खाते मेँ तत्काल कुछ प्रोत्साहन राशि या मानदेय जमा किया जा सकता है। यह राशि चुनावों में होने वाले खर्च और पर्यावरण को होने वाली क्षति से तो निश्चित ही कम होगी। शासकीय कर्मचारी को अगली वेतनवृद्धि मतदान प्रमाण-पत्र प्रस्तुत करने पर ही दी जाए। गैस सब्सिडी या अन्य किसी भी शासकीय सुविधा या राजसहायता के लिए भी मतदान प्रमाण-पत्र प्रस्तुत करना अनिवार्य किया जा सकता है। यथासंभव पूरे देश में लोकसभा व विधानसभा के चुनाव एकसाथ करवाकर भी पर्यावरण संरक्षण व चुनावी खर्च बचाने की दिशा में ठोस कदम उठाए जा सकते हैं।       
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100, रामनगर एक्सटेंशन, देवास 455001 

व्यंग्य (नईदुनिया,15.10.13)
       मात्रा और तादाद          
                                                         ओम वर्मा
                                           om.varma17@gmail.com
वे दोनों आज के महानायक हैं। एक फिल्मों के तो एक राजनीति के। फिल्मी महानायक तो जहाँ भी खड़े हो जाते हैं लाइन वहीं से शुरू होती ही है और राजनीति के महानायक जिस निर्वाचन क्षेत्र या कार्यकर्ता समागम में चले जाते हैं वहाँ या तो  आस्थाएँ बदलने लगती हैं या वहाँ के मुख्यमंत्री के अनुसार डेंगू फैलने लगता है। यह भी जाहिर है कि लोग अपने अपने महानायकों  की अदाओं, उनकी भाव भंगिमाओं और कभी कभी उनकी बातों या भाषा का अनुसरण भी करते हैं। इलाहाबादियों की हिंदी तो वैसे भी बहुत नफीस होती ही है उस पर भी यदि कोई शख्स डॉ हरिवंशराय बच्चन का पुत्र हो तो उससे अपेक्षा और भी बढ़ जाती है। तो ये महानायक जब केबीसी जैसे लोकप्रिय कार्यक्रम का संचालन करते है तो उनसे दर्शकों का भाषाई शुद्धता का आग्रह रखना कतई अनुचित नहीं होगा। इस कार्यक्रम के पिछले सीजन में उनके मुख से एक बार कृपया करके व इस बार फास्टेस्ट फिंगर फ़र्स्ट के प्रतियोगी के लिए अधिक मात्रा में अंक व एक एपिसोड में सिक्किम द्वारा सबसे कम मात्रा में सांसद भेजे जाने की बात सुनकर मेरे हिंदी प्रेमी मन को कुछ वैसा ही झटका लगा जैसे दागियों के चुनाव लड़ने की पात्रता देने वाले अपनी ही पार्टी के अध्यादेश पर कागज फाड़ू क्रांति से यूपीए -3 का ख्वाब देख रहे राहुल गांधी के प्रलाप को देखकर सारे दागियों को लगा था।
     यही स्थिति एक बार तब भी बनी जब गूगल सर्च में सबको पीछे छोड़ने वाले व चुनावों से पहले ही दक्षिण के साहित्यकार अनंतमूर्ति का ब्लड प्रेशर बढ़ाने  वाले आज के चर्चित राजनीतिज्ञ या सियासी महानायक ने पीएम की उम्मीदवारी की घोषणा के बाद रेवाड़ी में पूर्व सैनिकों के बीच उनके भारी मात्रा में उपस्थित होने का जिक्र किया। दोनों प्रकरणों ने मेरे दिमाग में भारी तादाद में खलबली मचा दी। मेरे ख्याल में अमिताभ सर ने भारी मात्रा में फिल्में की हैं। फिल्मों से उन्होंने भारी तादाद में धन कमाया है और देश में उनके प्रशंसक भी भारी मात्रा में हैं। मैं उनसे ज्यादा उनके पिताश्री का प्रशंसक हूँ जिन्होंने भारी मात्रा में उत्कृष्ट साहित्य रचा है और जिन्हें सुनने के लिए भारी मात्रा में श्रोता एकत्र हुआ करते थे। उनके कार्यक्रम केबीसी के तो क्या कहने ! बहुत कम मात्रा में कुछ (मात्र 15) आसान सवालों के जवाब देकर हम सात करोड़ रु॰ की भारी तादादवाली धनराशि जीत सकते हैं। इस देश में नौजवान मतदाताओं की मात्रा बहुत ज्यादा है। इनमें टेलेंट भी बहुत ज्यादा तादाद में है। जैसे जैसे देश में गरीब लोगों की मात्राबढ़ती जा रही है, वैसे वैसे सरकार की चिंता की तादादभी बढ़ती जा रही है।
     बड़ी ही गड्डमड्ड स्थिति है। दोनों महानायक तादादको मात्रासे कुछ इस अंदाज़ में प्रतिस्थापित कर रहे हैं मानों भारत निर्माण की तर्ज़ पर हो रहा भाषा निर्माण उनका नारा हो। दरअसल मात्रा और तादाद की गड्डमड्ड का यह घालमेल इस समय पूरे देश में जारी है क्योंकि कई क्षेत्रों में मात्रा व तादाद एक दूसरे के समानुपाती साबित हो रहे हैं। जैसे देश में कोयले की मात्रा बढ़ी तो लुटेरों की तादाद भी बढ़ी। इसी तरह ज्यों ज्यों सियासी महानायक को आदमखोर और फेंकू जैसी उपाधियाँ दी गईं त्यों त्यों उनकी लोकप्रियता की मात्रा और और उसी अनुपात में प्रशंसकों की तादाद भी बढ़ती गई। इधर ज्यों ज्यों  फिल्मी महानायक की फिल्मों और प्रशंसकों की तादाद बढ़ी, त्यों त्यों केबीसी में उनकी माँग और लोकप्रियता की मात्रा भी बढ़ी। सभी जगह मात्रा और तादाद भक्त और भगवान की तरह कुछ यूं एकाकार हो गए हैं कि दोनों महानायकों के मुख से भी तादाद की जगह बार बार अब मात्रा मात्रा ..... निकल जाता है।
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व्यंग्य, 

दबंग दुनिया , 30/11/12
        

         मोर की दिखावटी पूँछ और मंत्रिमण्डल

                                     
                                                                ओम वर्मा
(om.varma17@gmail.com)
लिज़ाबेद काल के प्रसिद्ध अँगरेजी निबंधकार सर फ्राँसिस बेकन ने अपने एक निबंध ऑव फालोअर्स एण्ड फ्रेंड्स (Of followers and friends)  में लिखा है कि “शासक या बड़े व्यक्ति को अनुगामियों या मुसाहिबानों की अधिकता से हमेशा बचना चाहिए क्योंकि उनकी अधिकता उनके रखरखाव को बहुत खर्चीला बना देती है" अपने दरबारियों पर जरूरत से ज्यादा खर्च करने वाले शासक की तुलना मोर से करते हुए वे लिखते हैं- "मोर की पूँछ के दिखावटी पंख जितने ज्यादा बड़े होते
 हैं, उसकी उड़ान में वे उतने ही ज्यादा बाधक भी होते हैं। उनकी साज-सजावट पर 
उसे अतिरिक्त ध्यान देना पड़ता है सो अलग ।"
         बेकन के कथन से कम से कम यह तो जाहिर होता ही है कि मंत्रिमण्डल में ज्यादा मंत्री रखने यानी सफेद हाथी पालने की समस्या कल भी थी और आज भी है; पश्चिम में भी थी और पूर्व में भी  है।
       लेकिन बेकन ने जो कहा उसे हम भी मानें यह जरूरी तो नहीं! सूत्रात्मक (aphoristic)शैली में लिखे अपने निबंधों में बेकन ने ऐसी कई बातें कही हैं जिनका पालन खुद उन्होंने नहीं किया। बेकन एक अन्य विचारक एलेक्ज़ेंडर पोप के शब्दों में चतुरतम के साथ-साथ क्षुद्रतम(wisest and meanest of mankind) भी थे। उन्हें राज्य द्वारा दंडित भी किया गया था। तो फिर हम ही क्यों मानें उनकी बात? हम बात भले ही करें पूरे हिंदुस्तान की पर सुनते हैं सिर्फ आलाकमान की।
     अधिवेषणों में गांधी के नाम पर पहने जाने वाली खद्दर की टोपी को पहने गांधी जी का कोई चित्र मैंने तो आज तक कहीं नहीं देखा। तो फिर हमारे मनमोहन जी से ही क्यों अपेक्षा रखी जाए कि वे 79 मंत्रियों वाला जंबो मंत्रिमण्डल का बोझ देश की जनता पर न डालें। जो जनता टू जी से लेकर कोयला खदान के घोटाले तक और महँगे पेट्रोल से लेकर हिमालयीन जड़ी-बूटियों की तरह दुर्लभ होते जा रहे गैस सिलेंडरों की कीमतों के बोझ को सह कर भी जिंदा है वह क्या बाईस नए मंत्रियों का बोझ नहीं सहन कर सकती !
       मंत्रियों की तादाद और दर्ज़े का संबंध अब राज्य की आबादी से जुड़ा मुद्दा भी है। चाहें तो चीन का उदाहरण देख लें जहाँ हर सांसद उपमंत्री के दर्ज़े का होता है। मोरारजीभाई के प्रधानमंत्री काल में चरणसिंह उपप्रधानमंत्री थे। एक बार म.प्र. में दो उपमुख्यमंत्री थे। विद्रोहियों व असंतुष्टों का स्वागत करने की हमारी प्राचीन परंपरा रही है। विभीषण ने लंकेश से विद्रोह किया, पुरस्कार में पाया लंका का राज सिंहासन ! म.प्र. में अर्जुनसिंह के समय कुछ विधायक असंतुष्ट हुए और पाया निगमों व मण्डलों का अध्यक्ष पद ! अब राजनीति में आए हैं, लाखों रुपए खर्च कर चुनाव लड़ा है, तो क्या खाली-पीली सांसद या विधायक बने रहने के लिए ! फिर जिंदा क़ोमें तो वैसे भी पाँच साल इंतजार नहीं कर सकतीं !      
      मैं डॉ. मनमोहनसिंह के मनमोहक मंत्रिमण्डल के विराट स्वरूप के आगे नतमस्तक हूँ !                                            ***    

                               
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व्यंग्य (पत्रिका,07.10.13)
                   थूक कर चाटना
                                                       
ओम वर्मा
“पापा, थूक कर चाटना क्या होता है ?” होम वर्क कर रहे बेटे ने एकाएक आराम की मुद्रा में बैठकर टीवी न्यूज़ देख रहे पिताश्री पर नेता प्रतिपक्ष की तरह सवाल दाग दिया।
     “चुपचाप पढ़ाई कर, ऊलजलूल सवाल मत कर।“ पिताश्री ने भी जवाबदेह मंत्री की तरह पल्ला झाड़ते हुए जवाब दिया।
      “पापा मैं होम वर्क ही कर रहा हूँ। हिंदी वाली मैडम ने कुछ मुहावरे दिए हैं जिनके वाक्यों में प्रयोग सहित अर्थ लिखकर ले जाना है।“ बेटे का जवाब सुनकर पिताश्री की हालत राहुल गांधी के बयान के बाद दागी सांसदों और विधायकों को बचाने वाले अध्यादेश की वापसी की पैरवी कर रहे मिलिंद देवड़ा और मीटिंग के बाद वापसी की सूचना दे रहे मनीष तिवारी जैसी हो गई।
     वे शहर की साहित्य समन्वय समिति के अध्यक्ष थे। समिति के सभी सदस्य वर्षों से न सिर्फ घर घर कवि गोष्ठियाँ आयोजित करते आए थे बल्कि सभी के घर शॉल और अभिनंदन पत्रों के ढेर भी लग चुके थे। इस नाते बेटे का हिंदी ज्ञान उनकी अस्मिता का प्रश्न बन चुका था। बेटे की काना मात्रा की गलतियों पर अक्सर उन्हें इसी कारण उलाहने भी सुनना पड़ते थे। आज फिर प्रश्न हिंदी विषय का था और कल सख्त मिजाज मैडम कहीं बेटे को फिर दंडित न कर दे या उनके नाम से फिर से उलाहना न दे दे यह सोचकर पापा ने हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रयाग का रामचन्द्र वर्मा द्वारा संपादित मानक हिंदी कोश निकाला। कोश में दिया अर्थ बेटे को लिखाया-
     थूक कर चाटना’, इस मुहावरे के तीन अर्थ हैं- (क) कोई वचन देकर मुकर जाना, (ब) किसी को कोई वस्तु देकर बाद में फिर ले लेना, और (स) फिर कभी वैसा घृणित काम न करने की प्रतिज्ञा करना।“
     “ठीक है पापा। अब वाक्यों में प्रयोग करके भी बता दो।“
     “अब इतना तो तू खुद भी कर सकता है। कब तक बाप की ऊंगली पकड़ कर चलता रहेगा?” उन्होंने बेटे को पप्पू बने रहने से रोकते हुए कहा और टीवी की गर्मागर्म खबरों में खो गए। बेटे का ध्यान भी टीवी स्क्रीन पर चल रही गर्मागर्म बहस पर चला गया। बीच बीच में समय निकालकर कब उसने अपना होमवर्क भी पूरा कर लिया, उन्हें पता ही न चला।
     बेटे की कॉपी का उन्होंने औचक निरीक्षण किया तो चौंक गए। बेटे ने अन्य मुहावरों के साथ थूक कर चाटने पर लिखा था कि जब सरकार कोई अध्यादेश लाए उस पर लंबी लंबी बहसें चलें और फिर उसे राष्ट्रपति के पास भेजा जाए और राष्ट्रपतिजी लौटाएँ उससे पूर्व ही उसे घर के ही बंदे द्वारा बकवास बताने पर वापस ले लिया जाए...इसे कहते हैं थूक कर चाटना...! उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि बेटे को शाबासी दें या हमेशा  की तरह इस बार भी प्रताड़ित करें!                                                        ***  

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Wednesday 2 October 2013

व्यंग्य (नईदुनिया, 26.09.13)
                   बापू की जेल यात्रा
                               ओम वर्मा
                                   om.varma17@gmail.com      
“बापू की जेल यात्रा पर निबंध लिखो।“ गुरुजी ने उधम मचाते बच्चों को कुछ काम देने के उदेश्य से ब्लैक बोर्ड पर लिखा। लिखकर कुर्सी पर बैठे ही थे कि सारे विद्यार्थी खट से लिखने बैठ गए। गुरुजी को अपने शिष्यों पर गर्व हो आया। वर्ना शिक्षक बनने के बाद से हर साल गुरुः ब्रम्हा, गुरुः विष्णु ...” सुनते सुनते उनके कान पकने लग गए थे और शाल श्रीफल से घररने लग गया था।
     मगर जैसे चुनाव के बाद कोई दल वाले प्रारंभिक रुझान में स्पष्ट बहुमत आता दिखने पर टीवी टाक शो में दहाड़ना शुरू कर देते हैं और रुझान पलटते ही उनकी सारी खुशी काफ़ूर हो जाती है कुछ वैसे ही इन मास्टरजी की क्षणिक खुशियों पर भी तुषारापात हो गया। हुआ यूँ कि सारे बच्चों ने निबंध में जो लिखा था उसका लुब्बो-लुबाब कुछ यूँ है कि “एक फलां फलां बापूजी पर एक नाबालिग कन्या ने दुराचार का आरोप लगाया है जिस कारण वे कानून की फलां फलां धारा के तहत और नए नए पोस्को कानून के पहले शिकार के रूप में जोधपुर के बैकुंठधाम...आय मीन जेल में बंद हैं।“ हालांकि भाषा सबकी अलग अलग थी मगर मजमून लगभग एक जैसा था...जैसे किसी ने लिखा कि वे जोधपुर में ध्यानमग्न हैं, किसी ने लिखा एकांतवास पर हैं और किसी ने लिखा कि जोधपुर जेल में सत्संग करने गए हैं। किसी ने लिखा नारी जगत का कल्याण करने गए हैं और किसी ने लिखा कि किसी कन्या की प्रेत-बाधा दूर करने गए हैं। 
     बहरहाल बच्चों के शब्द गुरुजी के सामने राजधानी एक्सप्रेस की तरह गुजरने लगे और वे किसी पुल की तरह थरथराते हुए मुख से कभी नारायण नारायण और कभी हरिओम हरिओम बड़बड़ाने लगे। पेट्रोल- डीजल की कीमतों का विरोध करने वाले प्रदर्शनकारियों और मोदी के नाम पर बार बार उखड़ते रहने वाले  पितृ पुरुष आडवाणी की तरह गुरुजी का क्रोध भी शीघ्र ही शांत हो गया। गायब फाइलों का ठिकाना समझाते महामात्य की तरह फिर वे बोले, “अरे बच्चों, ये तुमने क्या लिख डाला ? मैंने तुम्हें बापू की जेल यात्रा ...
     बापू जी की जेल यात्रा पर ही तो लिखा है गुरुजी।“ एक तिलकधारी विद्यार्थी ने बीच में ही गुरुजी की बात काटते हुए कहा। गुरुजी ने अपना माथा ठोकते हुए कहा, अरे मूर्खों! मैंने तुम्हें गुजरात वाले बापू की जेल यात्रा पर लिखने को कहा था।“
     “अरे गुरुजी अपुन बी तो गुजरात वाले पेईSSज़ लिखेला है।“ एक टपोरीनुमा विद्यार्थी की इस बात पर गुरुजी का भेजा सचमुच में आउट हो गया। “अरे नालायकों... मैं तो उस महापुरुष की बात कर रहा हूँ जो पुणे की यरवड़ा जेल...”
     “तो सीधे सीधे बोलो ना कि संजय दत्त पे लिखना था ...!” एक पहलवान टाइप बच्चे ने फिर बात काटी। अब तो गुरुजी के सब्र की गांधीगिरी भी सेंसेक्स  की तरह धड़ाम से नीचे आ गिरी थी। उन्हें खुद अपने पढ़ाए उस पाठ पर शक़ होने लगा कि कहीं उस दिन महात्मा गांधी की जीवनी पढ़ाने में उनसे एक बापू की स्टोरी में दूसरे बापू की स्टोरी मिक्स करने जैसी कोई चूक तो नहीं हो गई।
     शीघ्र ही गुरुजी की समझ में सारी बात आ गई। उनके जहन में उनके द्वारा सत्य के प्रयोग में पढ़े गए और फिल्म डिवीज़न की न्यूज़ रील में देखे गए बापू थे जबकि बच्चों के दिमाग में हाल ही में टीवी चैनलों के प्राइम टाइम पर छाए रहे बापू थे। उन बापू की लीला अंग्रेज़ नहीं समझ पाए थे और इनकी लीला इनके भक्तों को समझने में भी दस बारह साल लग गए। 
     जय रामजी की बोलना पड़ेगा ! 
                                                               ***
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