Saturday 13 December 2014
Friday 12 December 2014
व्यंग्य- बाबागिरी का प्रताप (नईदुनिया, 12.12.2014)
व्यंग्य (नईदुनिया,12.12.14)
बाबागिरी का प्रताप
ओम वर्मा
बाबा शब्द हमारे जीवन में दो बार प्रवेश करता है - बाल्यकाल में व बाल्यकाल के बाद। हमारे बालमन में बाबा के नाम पर अक्सर ऐसे गूढ़ व्यक्तित्व की छवि स्थापित हो चुकी होती है जो न सिर्फ कुछ अलौकिक शक्तियों का स्वामी होता है बल्कि माता-पिता के सामने‘अनावश्यक’ जिद करने वालों को ‘पकड़कर’ भी ले जा सकता है। मेरे जैसे कई तत्कालीन बच्चे बाहर ‘बाबाओं’ को देखकर घर में छुप जाया करते थे। हालांकि बाबाओं को लेकर तब डर जरूर बना हुआ था लेकिन हमारे संज्ञान में तब भी यह कभी नहीं आया था कि वे किसी भव्य महलनुमा आश्रम में रहते होंगे, उनके लिए मरने मारने वालों की पूरी की पूरी फौज तैयार रहती होगी, वे अन्य कोई ‘खास’ यानी ऐसा काम भी करते हैं जिसकी वजह से उन्हें जेल जाकर जमानत के लिए भी तरसना पड़ जाए, या स्वयं न्यायपालिका को उनके लिए पीले चावल भिजवाना पड़ें। अब मुझे जाकर समझ में आया कि बड़े होने पर ही क्यों हमारे मुँह से यह निकलने लगता है कि “बार बार आती है मुझको, मधुर याद बचपन तेरी...।”शायद उसका एक कारण हमारे बालमन में बसा बाबाओं का वह रहस्यलोक भी हो! क्योंकि जीवन की रामायण में बालकाण्ड के बाद के अध्यायों में बाबाओं की जो छवि बनती है वह सर्वथा भिन्न है। वह एक ऐसी अवस्था होती है जब हम सीख समझकर चीजों व विचारों को ग्रहण कर रहे होते हैं। तब हमारे लिए ‘बाबा’ नामक जातिवाचक संज्ञा के ध्वनित होते ही हमारे सामने एक ऐसे दिव्य व्यक्तित्व का अक्स उभरने लगता है जिसकी विशाल जटाएँ,लंबी दाड़ी, कपाल पर लंबा चौड़ा तिलक और बड़े बड़े सम्मोहक या आग्नेय नेत्र हों, वह सत्य की खोज में निकला हुआ परिव्राजक या योगी होता है न कि असत्य या मिथ्या जगत के मायाजाल में उलझा हुआ कोई भोगी।
लेकिन जीवन के लंकाकाण्ड में हम देखते हैं कि हम जिसकी कृपा पाने के लिए शीश कटवाना भी मामूली कीमत समझते थे, उसने हमारी मासूम बच्चियों की अस्मत का शीश पहले ही काट लिया है। जो हमें सिर्फ ईश्वर की शरण में जाने का उपदेश देता रहता था वह स्वयं बाउंसरों व कई कमांडों की शरण में ही विचरण करता है। जो हमें ज्ञान बाँटता था कि हम हर पल ईश्वर की निगाह में हैं वह हर पल हम पर गुप्त कैमरों से निगाह रखता रहा है। वह हमें माया-मोह के बंधनों से मुक्त करवाते करवाते खुद की माया का भंडार भरने लगता है और मारीच से बड़ा मायावी बनकर सामने आता है।
वक्त की जरूरत है कि इस बदनाम ‘बाबागिरी’ को अब हीरोपंती में बदला जाए। क्यों न 'शोले’ के ठाकुर की तरह हम भी इन जय और वीरुओं यानी आज के बाबाओं की मदद लेकर व्यवस्था के गब्बरों का वध करें। इनकी सारी संपत्ति दिल्ली जैसे छोटे राज्य का बजट बना सकती है। और तो और जिंदा बाबा करोड़ का तो मरा भी सवा करोड़ से कम का नहीं होता तभी तो भक्तगण उसकी ‘मिट्टी’ को बाबा के ‘समाधिस्थ’ होने के भ्रम में मिट्टी में विलीन नहीं होने देते हैं। तो क्यों न ऐसे बाबाओं के आश्रम को गुप्त विद्याओं की अध्ययनपीठ यानी ‘चेयर’ घोषित कर दिया जाए। जो अनुयायी बाबा के लिए तीन दिन तक पुलिस से लोहा ले सकते हैं क्या वे अपने बाबा के आह्वान पर सीमापार से प्रवेश कर रहे घुसपैठियों से टक्कर नहीं ले सकते? जो बाबा दुग्ध स्नान कर अपनी धोवन को प्रसाद रूपी खीर में बदल सकते हैं उनकी 'प्रतिभा' का उपयोग यदि हम सारे 'वेस्ट' पदार्थों की रिसायकलिंग में करें तो पर्यावरण संरक्षण की दिशा में उन्हें नोबेल पुरस्कार भी मिल जाए और देश का नाम रोशन हो जो अलग! बाबाओं के आश्रम को नेस्त-नाबूद करने के बजाय पर्यटन विभाग को देकर या होटल में बदलकर तो देखिए, माया का ढेर लग जाएगा। बाबा के आदेश पर ये अनुयायी अगर अपने इन्हीं शस्त्रों के साथ नक्सलियों से जा भिड़ें तो नक्सलवाद का नामोनिशान मिट सकता है। लोहे को आखिर सिर्फ लोहा ही तो काट सकता है।
100, रामनगर एक्सटेंशन, देवास 455001(म.प्र. )
Saturday 6 December 2014
व्यंग्य जनसत्ता (30.11.14.)
उफ् ! यह हाय टेक सफाई
ओम वर्मा om.varma17@gmail.com
इधर दिल्ली
में मोदी सर ने अपने कर-कमलों में झाड़ू थामकर अमृत छकाकर नौ बंदे तैयार क्या करे कि
गंदगी के ढेर पर सोया देश यकायक जाग उठा! जो टीवी पत्रकार ‘सबसे पहले हमने दिखाया’ की होड़ के चलते शूकरों तक से
यह ‘बाइट’ लेने को विवश थे कि गंदगी के
इस ढेर में अपनी विशाल फेमिली के बीच ‘कोड़ा जमालशाही’ खेलते हुए वे कैसा महसूस कर रहे हैं, वे अब राष्ट्रवादी
कांग्रेस की बीजेपी के लिए यकाकक बदल गई
राय की तरह यही प्रश्न इन नवरत्नों से पूछते फिर रहे हैं। हर शहर में अधिकारियों, छुटभैयों, नेत्रियों,
अभिनेत्रियों, खिलाड़ियों और महानायकों से लेकर भारतरत्नों तक
में झाड़ू थामने की होड़ सी लग गई है।
मगर ग्राहक और मौत का जैसे कोई
भरोसा नहीं किया जा सकता, उसी तरह प्रजातंत्र में
कर्मचारियों और उनके लीडरों का भी कोई भरोसा नहीं कि वे कब हड़ताल पर चले जाएँ! फिर
वैसे भी अनागत को कौन टाल सकता है। लिहाजा मेरे शहर में सफाईकर्मी अकस्मात हड़ताल
पर चले गए हैं।
पहले तो लगा कि
शायद कचरा जान-बूझकर छोड़ा गया है ताकि अन्य बचे वीआयपियों के ‘कर-कमलों’ से हाय-टेक सफाई कार्य संपन्न करवाया
जा सके। उधर वीडियो चैनल वालों को यह शिकायत थी कि सारे वीआयपी लोगों ने अपनी ‘कर्मभूमि’ उसी स्थल को क्यों बनाया जहाँ यथासमय या
तो सफाई होती रहती थी या जहाँ कचरा न के बराबर फेंका जाता था। इस कारण टीवी फुटेज
में कचरे से ज्यादा झाड़ू और झाड़ुओं से अधिक झाड़ुओं पर एहसान करने वाले नजर आ रहे
थे। ऐसी क्लिपों से चैनलों व अंततः सारे सफाई अभियान की विश्वसनीयता ही खतरे में न
पड़ जाए शायद यह सोचकर कचरा जमा होने दिया जा रहा होगा!
कूड़े करकट के ढेर जब टीवी चैनलों व अखबारों
की हेडलाइन्स चुराने लगे में तो संबंधित अधिकारियों ने कामगारों के प्रतिनिधियों
से चर्चा शुरू की। कामगारों के संयुक्त मोर्चे ने अपना माँग-पत्र प्रस्तुत किया जिसका
लुब्बे-लुबाब इस प्रकार है कि वे पीढ़ियों से सफाई का कार्य करते आ रहे हैं फिर भी उनके
काम पर आज तक कभी किसी पीएम, सीएम या पार्षद तक ने कभी कोई
अभिनंदन, बधाई या प्रशंसा पत्र नहीं दिया या ट्वीट भी नहीं
किया। जबकि जिन्होंने जिंदगी में पहली बार सिर्फ दस पंद्रह मिनट के लिए टीवी
कैमरों के आगे झाड़ूँ थामी, उन्हें पीएम सा. से तारीफों पे
तारीफें मिल रही हैं। उनकी यह भी माँग है कि उन्हें भी वीआयपी सफाईकर्ताओं की तरह
केप, हाथों के दस्ताने, पहनने को
डिजाइनर खादी के कपड़े, इंपोर्टेड गागल्ज़ व नाक के लिए मास्क व
सैनेटाइजर दिए जाएँ। उन्हें भी काम करते हुए दिखाकर लाइमलाइट में लाया जाए।
बहरहाल, ‘स्वच्छ
भारत अभियान’ की अखबारों में छपी तस्वीरें चीख चीखकर बयां कर
रही हैं कि मात्र दो-चार फावड़े भर कचरे को आठ-दस बड़े मियां हाथ में झाड़ू को पतवार
की तरह चलाकर बुहार रहे हैं, साथ में कुछ छोटे मियां बिना
झाड़ू के भी खड़े हैं। घर को स्वच्छ रखने वाली ‘बाई’ या ससुराल में पहले दिन से आज गठिया होने तक भी जो गृहलक्ष्मी रोजाना
झाड़ू लगाती चली आ रही है उसका आज तक एक फोटो नहीं खींचा और अपनी झाड़ू लगाती अखबारी
तस्वीर देखकर आत्ममुग्ध हुए जा रहे हैं। वीडियो क्लिप तो और भी मजेदार! पहले
वीआयपी ने जहाँ झाड़ू मारी उसी जगह दूसरे फिर तीसरे और फिर चौथे ने... ! कचरा नहीं
हुआ मानो हॉकी की गेंद हो गई जिसे झाड़ू की हॉकियों से सब जोरदार हिट लगाकर ‘गोल’ कर देना चाहते हैं। लगभग सौ वर्ग फीट के भूखंड
को साफ करने के लिए दस आदमी और आठ झाड़ू! अगर इसी तामझाम के साथ देश में सफाई
अभियान चलाया जाए तो जिस तरह गंगा की सफाई में लगने वाले समय को लेकर न्यायपालिका
को पूछताछ करनी पड़ी, कुछ वैसी ही शायद ‘स्वच्छ भारत अभियान’ को लेकर भी करना पड़े।
***
***
-----------------------------------------------------------------------------------------------
100, रामनगर एक्सटेंशन, देवास 455001
(म.प्र.)
व्यंग्य (नईदुनिया, 21.11.14)
आँसू और झाड़ू
ओम वर्मा
अजब है यह दुनिया और गजब यहाँ की रीत! यहाँ कुछ भी हो सकता है। फर्श
पर कल तक चाय बेचने वाले ‘छोटू’ या ‘बारीक’ को आज
जनता अर्श पर बिठा सकती है तो अदालत साढ़े दस हज़ार साड़ियों, ढाई हज़ार जोड़ी चरण-पादुकाओं व पच्चीस-तीस किलो सोने की मालकिन को एक झटके
में ‘जगत अम्मा’ से मात्र
कुछ क़ैदियों की ‘अम्मा’ में बदल
सकती है। उधर कुछ ‘भक्त’ अपनी
प्रिय नेत्री के जेल जाने पर इस तरह गंगा-जमुना बहा देते हैं मानो अम्मा आर्थिक
अपराध के कारण चार वर्ष के कारावास पर नहीं बल्कि चौदह वर्षों के वनवास पर गईं थीं
या ‘हिज़रत’ कर गईं थीं। फिर
उनकी शर्तबद्ध जमानत पर ऐसे खुशियाँ मनाने लगते हैं मानो देवी सीता अग्नि परीक्षा
देकर अपनी पाकीज़गी सिद्ध कर चुकी हैं। ऐसे ही किसी फाइव स्टार होटल जैसे ‘आश्रम’ में रहने वाले हाय प्रोफाइल संत को
हत्या जैसे जघन्य अपराध में अदालत के आदेश पर भारी लवाजमें के साथ सरकार को जाना
पड़े तो भक्तगणों के आँसू और उधर ताड़ियों के पीछे बाबा के आँसू!
वैसे आँसू की हर बूँद का अपना महत्व
है। छायावाद के अग्रेसर कवि के हाथ लगा तो अमर कविता बन गया और कृष्ण के वियोग में
बहा तो राजघराने की बहू को जोगन बना गया। और यही आँसू यदि कोई टोपीधारी गिद्ध बहाए
तो लोगों को अच्छे खासे आदमी में घड़ियाल नजर आने लगता है। चुनावी टिकट मिले तो
आँसू, न मिले तो टिकिटार्थी की पत्नी की आँख में आँसू!
आँसू तो इंचियोन में भी बहे, मगर ये उस वीरांगना के थे
जो प्रतिद्वंद्वी पर मुक्कों के प्रहार करते या सहते समय तो अविचलित रही, मगर रैफरियों के फैसलों की वज़ह से देश का पदक रूपी सम्मान न बचा पाने के
कारण बिफर पड़ी थी।
वस्तु का अपना वज़ूद तो अपनी जगह है ही, पर उसकी आगे की कहानी में ट्विस्ट तब आता है जब वह किसी विशिष्ट व्यक्ति
के साथ जुड़कर उपमान बन जाती है। साँप घर में दिख जाए तो वध्य माना जाता है मगर
महादेव के गले में विराज जाए तो नाग बनकर पूजनीय हो जाता है। कुछ ऐसे ही अद्भुत
उतार चढ़ाव समय के इस प्रवाह में झाड़ू भी देख रही है। मेरे जैसे एक आम भारतीय ने
बचपन से झाड़ू या तो सफाईकर्मियों के हाथों में या घर की महिला के हाथों में देखी
है। महिला का ओहदा भले ही बदलता रहा हो पर झाड़ू से उसका साथ वैसा ही रहता आया है
जैसा शिव का त्रिशूल से, हनुमान का गदा से व कृष्ण का
बाँसुरी से। त्रुटिवश पैर लग जाने पर हम भले ही झाड़ू को स्पर्श कर माथे पर हाथ
लगाकर पाप के भागी होने के भय से तो बच सकते हैं पर झाड़ू थामने या कचरा बुहारने को
एक ‘निचले दर्ज़े’ का काम ही
मानते आए हैं जिसके लिए बाहर सिर्फ एक विशिष्ट समाज के ही लोग और घरों में सिर्फ
महिलाएँ ही बनी हैं। घर में झाड़ू यानी औरतें! झाड़ू लगाते लड़के को देख कर घर के लोग
भी उसके ‘हारमोनों’ के
संतुलन को लेकर चिंतित हो उठते हैं। अवकाश के दिन किसी शख्स से यदि ऑफिस जाने की
बात कह दें तो या तो वह तंज में कह उठेगा कि “क्या वहाँ
जाकर झाड़ू लगाउँगा?” या उस पर तंज कसा जाता है कि क्या
वह वहाँ झाड़ू लगाने जा रहा है?
झाड़ू का प्रयोग
मर्दों या समर्थ लोगों के लिए हुआ भी तो बिलकुल भिन्न अर्थ में। जैसे देश या
प्रदेश में सत्ता बदलने पर अक्सर नई सरकार पिछली सरकार वालों पर यह आरोप लगाती है
कि वे ‘झाड़ू’ लगा गए हैं।
झाड़ू को ऑपरेट करना भी दरअसल एक कला है। जो इस कला के अमूर्त रूप तक नहीं पहुँच
पाए वह उसके पास उनचास दिन से अधिक नहीं टिकती। वहीं अगर कोई चतुर सुजान उसे सही
दिन व सही वक़्त पर थामे तो न सिर्फ पूरे देश को थामने पर विवश कर सकता है बल्कि
उसे जनांदोलन के एक उपकरण में भी बदल सकता है। उम्मीद करें कि झाड़ू थामकर देश की
सफाई करने का दावा कहीं आगे जाकर काले धन की वापसी सा टाँय टाँय फिस्स न हो जाए! ***
100, रामनगर
एक्सटेंशन, देवास 455001(म.प्र.) Blog- omvarmadewas.blogspot.in
Saturday 15 November 2014
ओपिनियन पोल यानी हँडिया का एक दाना
ओपिनियन पोल यानी हँडिया का एक दाना
ओम वर्मा
om.varma17@gmail.com
बिना स्वप्न आधारित या बिना पुरातत्वीय खुदाई के अपनी मातृभूमि को स्वर्णनगरी मेँ बदल देने वाले त्रिलोकपति लेकिन महाअहंकारी दशानन का वध तथा चौदह वर्ष का वनवास काट कर जब प्रभु श्रीराम अयोध्या लौटे तो इतिहास का पहला ओपिनियन पोल उनकी राह देख रहा था ।
बिना स्वप्न आधारित या बिना पुरातत्वीय खुदाई के अपनी मातृभूमि को स्वर्णनगरी मेँ बदल देने वाले त्रिलोकपति लेकिन महाअहंकारी दशानन का वध तथा चौदह वर्ष का वनवास काट कर जब प्रभु श्रीराम अयोध्या लौटे तो इतिहास का पहला ओपिनियन पोल उनकी राह देख रहा था ।
बाहरी व्यक्ति द्वारा
अपहृत पत्नी को वापस उचित स्थान दिए जाने का ‘अपराध’
करने पर हो रही लोकनिंदा व कानाफूसी से रामजी भी तंग आ गए थे! अब
चूँकि हर अयोध्यावासी से मिलना तो उनके लिए संभव नहीं था।लिहाजा उन्होंने स्वयं
छद्म भेष धारण कर ‘दलित के घर रात गुजारने’ वाली स्टाइल मेँ एक लॉन्ड्री वाले के यहाँ व कुछ अन्य अड्डों पर कुछ समय
व्यतीत कर केजरीवाल स्टाइल में आम नागरिकों की राजा के आचरण पर प्रतिक्रिया जानी।
जाहिर है कि त्रेता युग के इस महान शासक ने किसी संस्था से ‘फिक्स्ड सर्वे’ करवाने के बजाय स्वयं एक सेंपल
सर्वे कर पहले ओपिनियन पोल की विधिवत शुरुआत कर दी थी।
एक ओपिनियन पोल का उल्लेख
मुगलकालीन इतिहास मेँ भी मिलता है जो इससे थोड़ा भिन्न है। हुआ यूँ कि एक दिन
बादशाह अकबर भरमा बैंगन की शानदार सब्जी खाकर मस्त हो गए थे और उसका स्वाद मुँह
मेँ देर तक बना रहा। सभासदों के बीच मेँ उन्होंने सबसे पहले इसका जिक्र किया तो बीरबल
ने तुरंत राजनीति के ‘अनुशासित सिपाही’ की तरह बयान जारी किया, “हुज़ूर बैंगन तो
सब्जियों का राजा है। उसका रंग शानदार, सर पर बादशाहों
जैसा ताज! जहांपनाह का हुक्म हो तो बैंगन को राजकीय सब्जी घोषित कर दिया जाए!”
बैंगन को राजकीय सब्जी
घोषित करने की प्रक्रिया चल ही रही थी कि एक दिन बादशाह अकबर ने फिर वही मसालेदार
सब्जी और ज्यादा खा ली। उन दिनों वहाँ न तो कोई जयराम रमेश थे और न कोई विद्या
बालन, तब भी उन्हें शौचालय की महत्ता समझ मेँ आ गई।
अगले दिन उन्होंने दरबार मेँ बैंगन की सब्जी को कोसते हुए जैसे ही अपनी हालत के
बारे मेँ बताया कि चतुर सुजान बीरबल ने तुरंत शरद पँवार द्वारा मुंबई में नरेंद्र
मोदी व बीजेपी के बारे मेँ बदली गई राय की तरह बैंगन के बारे मेँ अपनी राय बदली, ”जी आलमपनाह! बैंगन भी कोई सब्जी है...काला कलूटा ...सिर पर काँटों भरा
ताज...कोई गोल तो कोई लंबा...! मेरी मानें तो हुज़ूर इसकी खेती पर ही पाबंदी लगा
दें ताकि कल कोई इसमें नस्लीय बदलाव (जेनेटिक माडिफिकेशन) न कर सके।“
प्रभु श्रीराम चक्रवर्ती सम्राट व कानूनी तौर पर
एक राज्य के राजा थे। राजतंत्र मेँ भी उन्हें ओपिनियन पोल जैसी लोकतांत्रिक
व्यवस्था मेँ विश्वास था। मगर इधर लोकतंत्र मेँ वर्षों या दिनों (49 ही सही) सत्ता
सुख भोग चुके या सत्ता के इच्छुक मित्रों को वर्तमान ओपिनियन पोल फूटी आँख नहीं
सुहा रहे हैं। वे कभी ओपिनियन पोल को कूड़ेदान में फेंकने लायक बता देते हैं
तो कभी मात्र हजार - दो हजार लोगों की राय बताकर खारिज कर देते हैं। शायद वे
लोकतंत्र के चौथे स्तंभ द्वारा करवाए गए ओपिनियन पोल की जगह बीरबल द्वारा बादशाह
की स्तुति जैसा राजतंत्री ‘ओपिनियन पोल’ चाहते हैं। वे शायद यह भूल रहे हैं कि बैंगन प्रकरण मेँ अपनी
नीति परिवर्तन पर बीरबल ने बादशाह सलामत को डिप्लोमेटिक जवाब देते हुए यह भी तो
कहा था कि “हुज़ूर
गुलाम नमक आपका खाता है न कि बैंगन का!” आज के ‘बादशाहों’ को अब
कौन समझाए कि जनता तो अपनी ही गाढ़ी कमाई से खरीदा नमक खा रही है! क्या वे यह भूल
गए कि बचपन में जब घर में प्रेशर कुकर की सीटी नहीं बजती थी तब माँ चावल का सिर्फ
एक दाना देख कर मालूम कर लिया करती थी कि हँडिया के बाकी दानों का क्या मिजाज़ है।
***
100, रामनगर
एक्सटेंशन, देवास 455001 (म॰प्र॰)
Tuesday 11 November 2014
व्यंग्य - भैंस-यूपी में स्वागत तो गुजरात में बगावत!
व्यंग्य
भैंस-यूपी में स्वागत तो गुजरात में बगावत!
ओम वर्मा
पहले उनकी तुलना काले अक्षरों से की गई, फिर उन्हें हारमोन के
इंजेक्शन लगाकर दुहना शुरू कर उनके बछड़े का दूध भी छीन लिया गया, मगर वे खामोश रहीं। उधर लोग साँप जैसे बिना कान वाले जीव के आगे बीन बजा
बजा कर अपना उल्लू सीधा करते रहे और इन्हें अपने आगे बीन बजाए जाने का सिर्फ
सियासी आश्वासन ही मिलता रहा। और तो और कभी आज तक किसी ने दूध दुहते वक़्त भी इनके
आगे बीन बजाने की बात तो छोड़ो बीन का रेकोर्डेड म्यूज़िक तक नहीं सुनवाया। काले
अक्षर मसि- कागद से निकल कर कंप्यूटर के की-बोर्ड में और बीन की धुन सिंथेसाइजर
में समा गई। मगर भैंस के भैंसपने में आज तक कोई अंतर नहीं आया।
मगर इन्हीं काले अक्षरों को अपनी
कुछ ऊर्जा अब इन भैंसों पर भी खर्च करनी पड़ रही है। इनके माध्यम से भैंसें भी अब
सुर्खियाँ बटोर रही हैं। पहली बार तब जब यूपी के अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री मुहम्मद
आजम खां के वीआयपी आवास या वीआयपी तबेले से अपने चोरी हो जाने पर इन्होंने पुलिस
महकमे में नई ऊर्जा का संचार किया। पुलिस ने आनन फानन में इन्हें बरामद कर साबित
कर दिया कि दंगों व बलात्कारियों के ऊँचे उठते ग्राफ के बावजूद भी पुलिस ‘कहीं न कहीं अवश्य सक्रिय है! बल्कि ‘ऑपरेशन भैंस’ ने सिद्ध कर दिया कि असली पुलिस
वह है जो मूक प्राणियों तक का दर्द समझती है। यदि यह एक ही बार हुआ होता तो इसे
महज़ तुक्का या मंत्रीजी की जी-हुज़ूरी कहकर उड़ाया जा सकता था। मगर अहो भाग्य कि यूपी
पुलिस को ‘प्राणी मात्र’ का
रक्षक व चिंतक साबित करने का दूसरा अवसर भी मिल गया।
इस बार मौका दिया उन पाँच
भैंसों ने जो आजम खाँ साहब के लिए पंजाब से खरीदी गईं और हरियाणा के रास्ते यूपी
की बॉर्डर तक पहुँचीं। खड़े खड़े पहुँचीं इन पाँच सहेलियों की मूक फरियाद को सुना
आजम खाँ सा. के नज़दीकी और राज्य मंत्री का दर्ज़ा प्राप्त सपा नेता सरफराज खाँ ने।
उन्होंने इनके सहारनपुर पड़ाव पर देखभाल करने का वहाँ की पुलिस को कथित रूप से
फरमान जारी किया। बॉर्डर से ही यूपी पुलिस ने उस गाड़ी को सहारनपुर के रास्ते
रामपुर तक एस्कॉर्ट किया। सुना है कि कुछ अति उत्साही कार्यकर्ता डीजे साउण्ड पर “मेरी भैंस को डण्डा क्यों मारा...” बजवाकर
नाचते-गाते चलना चाहते थे, जिन्हें बड़ी मुश्किल से रोका
गया। सिर्फ हूटर बजाती पुलिस की गाड़ी भैंस के वाहन के आगे चल रही थी। सरफराज खां
सहारनपुर जिले के गगलहेरी थाना क्षेत्र के पशुगृह में भैंसों की देखभाल का जायजा
लेने स्वयं गए। पुलिसकर्मी कानून-व्यवस्था संबंधी अपनी ड्यूटी छोड़कर पंजाब से लाई
गई खां सा. की पाँच भैंसों की देखभाल में जुटे रहे। उन्होंने भैंसों के चारे-पानी
और सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम किए। उन्हें मच्छर न काटें और कीड़े-मकोड़े कोई नुकसान
न पहुँचा पाएँ, इसका भी खासा ख्याल रखा गया। एसएसपी
राजेश पाण्डेय ने तो मीडिया के सामने यह स्वीकार भी किया कि ये भैंसें खां सा.की
थीं और अगले दिन तड़के चार बजे उन्हें रामपुर रवाना किया गया।
हर अच्छे काम की शुरुआत घर से ही
होनी चाहिए। आज भैंसों की सुरक्षा की गई है तो कल आम आदमी की भी होगी। सूत्रों के हवाले से यह ज्ञात हुआ है कि यूपी सरकार ने जीव
दया आंदोलन वाले से पुलिस दल को सम्मानित करने की अनुशंसा की है।
यूपी में मिले वीआईपी
ट्रीटमेंट के बाद गुजरात की भैंसों के मन में भी अच्छे दिनों की आशा का संचार हो
गया है। सूरत एयर पोर्ट पर उनका प्रतिनिधि इसी उद्देश्य को लेकर विरोध प्रकट करने
हवाईजहाज के सामने फेंसीड्रेस वाले अंदाज में कुछ इस तरह दौड़ता हुआ आया कि अभी तक
उनके 'ही' या 'शी' होने का फैसला भी नहीं हो सका है। गुजरात में भैंसों ने बगावत शुरू कर दी
है। अन्य राज्यों की भैंस बहिनें सुन रही हैं न!
***
------------------------------------------------------------------------------------------------
100, रामनगर एक्सटेंशन, देवास (म.प्र.) 455001
Wednesday 5 November 2014
मानस के राजहंसों के नाम !
व्यंग्य (पत्रिका, 01.11.14.)
मानस के राजहंसों के नाम !
ओम वर्मा
om.varma17@gmail.com
om.varma17@gmail.com
“भेज रहे स्नेह निमंत्रण, प्रियवर
तुम्हे बुलाने को| ओ मानस के राजहंस, तुम भूल न जाना आने को ।” पता नहीं किस महाकवि
ने ये पंक्तियाँ लिखी थीं। मगर जिस तरह बैण्ड वालों के लिए “बहारों
फूल बरसाओ...” गाना देकर शंकर-जयकिशन अमर हो गए हैं उसी तरह
वैवाहिक पत्रिकाओं के लिए स्वागत की उक्त दो पंक्तियाँ लिखकर वह अनाम कवि भी युगों
युगों के लिए अमर हो गया है।
मगर पिछले कई वर्षों में मैं कई ऐसी शादियों का भी हिस्सा रहा हूँ
जिनमें हुई कुछ विशिष्ट घटनाओं के कारण मैं इन पंक्तियों में आंशिक सुधार किया
जाना आवश्यक समझता हूँ। बात शुरू करता हूँ राधेश्याम जी से। इनकी खासियत है कि
इनको निमंत्रण चाहे अकेले व्यक्ति का मिले, हमेशा छह लोगों
के भरे-पूरे परिवार के साथ ही जाते हैं। घर में अगर चार ऐसे मेहमान भी हों जिनका
विवाह वाले घर से दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं हो, उन्हें भी
साथ ले जाने में उन्हें कोई संकोच नहीं होता। कोई भी व्यक्ति इन राधेश्याम जी को
जो वैवाहिक पत्रिका दे उसमें इस मानस के राजहंस को निम्न पंक्तियों से निमंत्रण
दिया जाए- “भेज रहे स्नेह निमंत्रण, प्रियवर तुम्हे बुलाने को। घर
भर के मेहमानों को तुम साथ न लाना खाने को ॥”
इसी तरह एक हैं बत्तो बुआ। रिश्ता चाहे कितना ही लंबा हो, हर कार्यक्रम में चार दिन पहले से पूरे परिवार के साथ मौजूद। वे जहाँ
रुकें वहाँ तीसरे दिन लड़ाई न हो यह हो ही नहीं सकता। उनकी यह अमिट छाप नाते
रिश्तेदारों में दूर दूर तक बनी हुई है। बेहतर हो कि उनके माननीय राजहंस यानी जगत
फूफाजी को भेजी जाने वाली पत्रिका में दूसरी काव्य पंक्ति में निम्न परिवर्तन हो- “भेज रहे.....। साथ न लाना बत्तो भुआ
को घर भर से लड़वाने को ॥”
ऐसे ही बिहारीलाल जी का प्रबंधन भी समझना मुश्किल है। पिछले बीस
वर्षों में इनके यहाँ चार शादियाँ हो चुकी हैं। हर शादी में दो घण्टे में खाना
खत्म ! हर बार कम से कम सौ-डेढ़ सौ लोग बिना भोजन के वापस लौटे हैं। इन्हें अपनी
अगली वैवाहिक पत्रिका में काव्य पंक्तियों को निम्नानुसार रूपांतरित कर छपवाना
चाहिए- “भेज रहे...। थोड़ा सा खाना भी अपने साथ में लाना खाने को ॥”
और अब बात परमानंद काका सा. की। वे कला फिल्म के डायरेक्टर की तरह
शादियों में भी हमेशा ‘ऑफ बीट’ चलते
हुए गिरते पानी में दाल बाफले और ‘पूस की रात’ में हो रही दावत में आइसक्रीम या श्रीखण्ड की
माँग कर बैठते हैं। दूल्हे को किसी भी बात पर बिलावल भुट्टो द्वारा कश्मीर की एक
एक इंच जमीन की तरह अड़ जाने के लिए भड़काना उनका प्रिय शगल है। इनको दिए जाने वाले
निमंत्रण पत्र में निम्न पंक्तियाँ होनी चाहिए-“भेज रहे...। परमानंद जी आ
मत आना फिर माथे रँगवाने को ॥”
और अंत में बात ‘भियाजी’ की बात जिनके बिना
शहर का हर कार्यक्रम अधूरा है। ये राजनीति
के एक उभरते हुए सितारे हैं। पिछले बीस साल से उभर ही रहे हैं। उन्हें व उनके दाएं
बायों को यह अटूट विश्वास है कि वे एक दिन टिकट पाकर ही रहेंग़े। चमचों की एक पूरी की
पूरी फौज़ हमेशा उनके साथ रहती है। वैवाहिक कार्यक्रमों में भी वे पूरे लवाजमें के साथ
पहुँचते हैं। आधे चमचे पहले गला तर करके आते हैं। इनको दिए जाने वाले निमंत्रण
पत्र में निम्न पंक्तियाँ प्रस्तावित हैं- “भेज रहे...। चमचों की तुम फौज़ न लाना झूठी शान
दिखाने को॥”
वैवाहिक कार्यक्रमों की गरिमा बनाए रखने के
लिए निमंत्रण पत्रों में आवश्यकतानुसार ये सुधार निश्चित ही उपयोगी साबित होंगे।
--------------------------------------------------------------------------------------------
100, रामनगर एक्सटेंशन, देवास 455001
Subscribe to:
Posts (Atom)