Wednesday 29 January 2014


व्यंग्य (नईदुनिया, 29.01.14.)
     दो टूक और निशाना साधना
                                                         ओम वर्मा
                                      om.varma17@gmail.com
हामात्य ने उन्हें एक बार फिर दो टूक जवाब दे दिया है और इधर इन्होंने उन पर और उन्होंने इन पर आज फिर निशाना साध लिया है।
     दरअसल वे जबसे राजनीति में आए हैं, सिर्फ दो टूक बात ही करते आए हैं। उनका सारा स्टाफ और सारे टीवी चैनल इस बात के साक्षी हैं कि उनके ये टूक कभी दो से तीन या दो से एक नहीं हुए। वे या तो कभी बोले नहीं या जब भी बोले हैं तो दो टूक ही बोले हैं। अखबारों के मुखपृष्ठ, संपादकीय पृष्ठ या फिर टीवी के टाक शो हों, हर कहीं दो टूक बात कहने का आह्वान, चुनौती या कहने के बाद शाबाशी से भरे पड़े हैं। उनकी इस बार बार दोहराई जा रही इबारत पर उनके समर्थक कुछ इस अंदाज़ मेँ चर्चा व वाहवाही करने लगते हैं मानों परशुरामजी द्वारा चलाए गए क्षत्रिय हटाओ अभियान की तरह वे भी भारत भूमि को इक्कीस बार आतंकवादी व घुसपैठिए विहीन कर डालेंगे। अब तो पड़ोसी भी  उनकी इस दो टूक वाली शैली के क़ायल हो गए हैं। एक पड़ोसी जब चाहे सैनिकों के सिर काट ले जाता है और दूसरा जब चाहे, सीमा पर तंबू गाढ़ लेता है। तब वे कुछ इस तरह दो टूक बात करते हैं कि पड़ोसी मुल्क के हुक्मरानों व घुसपैठियों के मुख से बरबस निकल पड़ता है कि, इस सादगी पे कौन न मर जाए ए ख़ुदा, लड़ते भी हैं और हाथ मेँ तलवार भी नहीं !बच्चों बच्चों की जुबान पर यह मुहावरा कुछ ऐसा चढ़ गया है कि वे आपस मेँ तो ठीक, माँ-बाप से भी अब दो टूक बात करने लग गए हैं। कल ही बेटे ने महँगाई को देखते हुए जेबखर्च बढ़ाने के लिए व काम वाली बाई ने पैसे बढ़ाने के लिए दो टूक बात की।
     सियासतदान लाख ऊलजलूल बातें करें मगर मतदाता पाँच साल मेँ एक बार ही दो टूक बात कर पाता है। ईवीएम मेँ नोटा प्रावधान दरअसल मतदाता के हाथ मेँ दिया गया एक दो टूक बटन ही तो है। 
     इधर एक दूसरा मुहावरा जो टीवी दर्शक व अखबार के पाठकों के भाषा ज्ञान से लेकर जुबान तक का फ़ालूदा करने पर तुला है वह है निशाना साधना। आजकल तो भाई लोग जिसके समर्थन से सरकार बना लेते हैं, उस पर निशाना साधने में भी नहीं चूकते। बदले में भले ही उन्हें दो टूक लहज़े में येड़ा घोषित कर दिया जाए वे इसे अलंकरण की तरह स्वीकार कर फूले नहीं समा रहे हैं। देश में हुए दो ऐतिहासिक दंगों को लेकर इन दिनों जबर्दस्त निशानेबाज़ी चल रही है। मगर यह भी सब जानते हैं कि अंतरराष्ट्रीय खेल स्पर्धाओं की तरह इस निशानेबाजी के मंथन से भी कभी कोई मेडल रूपी अमृत नहीं निकलने वाला। अगर कुछ निकलेगा तो बस अविश्वास व नफ़रत रूपी विष...!
    हमने बचपन से पढ़ा-सुना है कि अर्जुन ने पक्षी की आँख पर निशाना साधा था और गुरु द्रोण से शाबाशी पाई थी। द्वापर में ही गुरु की मूर्ति के सामने एकलव्य ने निशाना साधना सीखकर ओलिम्पिक (अगर हुए होते तो) का गोल्ड मेडल पक्का कर लिया था। हालांकि यह सीखना उसे बहुत भारी पड़ा था और इसकी कीमत उस निर्धन दलित को अंगूठे की बलि देकर चुकाना पड़ी थी।
     इधर त्रेतायुग मेँ समुद्र ने तीन दिन तक जब मार्ग नहीं दिया तो प्रभु ने सबक सिखाने के लिए निशाना साधा और साधते ही जलधि जड़ ने सारी अकड़ पिटे अध्यादेश की तरह वापस ले ली। उधर युद्ध मेँ यही प्रभु लंकेश पर निशाने पर निशाना तो साधते रहे मगर लक्ष्यभेद तभी कर सके जब विभीषण के सुझाने पर नाभिकुण्ड पर निशाना साधा गया। निशाने तो अभी चार राज्यों के चुनावों में भी बहुत साधे गए थे। गुजराती तीरंदाज़ ने शायद लक्ष्य की सही पहचान कर ली थी इसलिए तीर कम भटके वहीं दिल्ली वाले का भटका तीर दीवार पर जहाँ भी निशान बना देता, दरबारी लोग तुरंत उसके आसपास गोला बना कर निशाने की सफलता पर तालियाँ पीटने लगते थे। आज न तो निशाना साधने वाले राम हैं और न ही उनकी हेल्प के लिए कहीं विभीषण है। जाहिर है कि अधिकांश निशाने हवा मेँ साधे जा रहे हैं।                                               ***

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Tuesday 28 January 2014

ठंड के दोहे, नईदुनिया (16.01.2011)




व्यंग्य
                 मौसम का बिगड़ा मिजाज़
                                                   
                      ओम वर्मा    
थाशिल्पी प्रेमचंद की कहानी पूस की रात…!
ठण्ड से ठिठुरता हलकू और मुन्नी...! मुन्नी हलकू को बार बार कोसती रहती है कि वह इफ़रात  में खर्च न करे ताकि कुछ बचत हो सके और कम्मल (कंबल) खरीदा जा सके जिससे पोस-माघ ढंग से कट सकें!
     आज भले ही हलकू हलकप्रसाद और मुन्नी मुन्नी मैडम में बदल गई हो मगर कुछ नहीं बदला तो वह है माघ पूस की रातें। कंबल हर घर में है मगर फिर भी सर्दियाँ हैं कि जान लेवा साबित हो रही हैं। आज मुन्नियाँ हलकुओं को कोस रही हैं- “इस मुई ठण्ड का क्या करूँ...कहा था कि रजाई  भारी बनवाना... बनवा लाए चादरे जैसी...! रूम हीटर ही ले आते तो कमरा ही थोड़ा गर्म हो जाता...! अब इन मुन्नियों को कौन समझाए कि यदि रूम हीटर चलाए गए तो बाद में बिजली का बिल देख कर दिमाग पर जो गर्मी चढ़ेगी उसे उतारने के लिए या तो केजरीवाल को धरने पर या संजय निरूपम को भूख हड़ताल पर बैठाना पड़ेगा।
    मौसम विज्ञानी दाड़ी बढ़ाकर अंधत्व निवारण शिविर से ऑपरेशन करवा कर लौटे रोगी या दक्षिण के अभिनेता से नेता बने राजनेता की तरह काला चश्मा लगा कर सूट टाई पर भी शॉल लपेटे छिपते फिर रहे हैं। एक श्रीमान अलाव तापते गरम हाथों, यानी रँगे हाथों पकड़ा ही गए। कल तक जो ग्लोबल वार्मिंग के नाम से डरा डरा कर मुंबई जैसे तटवर्ती शहरों के डूब जाने का खतरा बता रहे थे वे आज ग्लोबल कूलिंग की बात करते फिर रहे हैं।
     अपने राम को न तो वैज्ञानिकों की बात समझ में आती है और न ही ज्योतिषियों की। ज्वलंत विषयों पर दोनों वर्गों के लोग जो भविष्यवाणी करते हैं,वह प्रायः फेल हो जाती है। बाद में ये अपनी गणनाओं की त्रुटि का कारण बताने लगते हैं या फिर “हमारा मतलब यह नहीं था...” जैसी बेमतलब की लीपापोती करने लग जाते है।
     लाख टके की बात यह है कि आखिर इस जमा देने वाले जाड़े से निज़ात मिले तो कैसे? कुछ फायर ब्राण्ड बयानवीर अपने बयानों से सियासी आग भले ही लगा दें, मगर भौतिक रूप से गर्मी उत्पन्न नहीं कर सकते! इसी तरह कल तक जो मुझे राह रोक रोक कर पूछा करते थे कि अगले चुनाव में ऊँट किस करवट बैठेगा, वे आज पूछते हैं कि नए टोपे बाज़ार में आए या नहीं, या ये स्वेटर कहाँ से लिया, या यह कि आखिर ये ठण्ड कब खत्म होगी यार...! हिन्दी की प्रसिद्ध कहानी उसने कहा था का वह दृश्य रह रह कर कौंध जाता है जिसमें लहनासिंह के साथी ठण्ड से परेशान हैं और चाहते हैं कि जंग हो ताकि कुछ गर्मी आए।
     इन दिनों जिसे देखो वही कुछ ठिगना नज़र आ रहा है। क्या लोगों की औसत ऊँचाई एक दो इंच कम हो गई है। ध्यान से देखने पर समझ में आता है कि हर शख्स सिकुड़कर गुड़ी-मुड़ी होकर चल रहा है। मिलते ही तपाक से हाथ मिलाने वाला शख्स देखते ही मुँह फेर रहा है कि कहीं गलती से जेब की गर्मी छोडकर हाथ बाहर न निकालना पड़ जाएँ। गलती से अगर उन्हें हाथ मिलाना भी पड़े तो सामने वाले से एक बत्ती कनेक्शन वाले की तरह ज्यादा से ज्यादा एनर्जी खींचने की कोशिश करने लगते हैं। इधर चौराहे पर जो आग जल रही है वह कोई विरोध प्रदर्शन या पुतला दहन नहीं है। यह तो ठण्ड भगाने का इंतजाम है। जिन्हें मैं प्रदर्शनकारी समझ बैठा था वे और दो पुलिस के जवान अलाव ताप रहे हैं।
     मोदी के पक्ष में चाहे लहर हो या न हो, शीत के पक्ष में लहर है यह सभी एकमत से स्वीकार रहे हैं। भोपाल के यूनियन कार्बाइड में जैसे किसी की गलती से मिक गैस के टेंक का वॉल्व खुल गया था, वैसे ही शायद ऊपर वाले के दरबार में कोई मौसम का स्विच चेंजओवर करना भूलकर आराम से बीड़ी पीने चला गया है। नीचे वाले मरें तो मरें, उसकी बला से!
     सुबह हो गई है...दरवाजे पर पेपर फेंकने की आवाज आ चुकी है। कोई भी पेपर उठा कर लाने को तैयार नहीं है। रज़ाई कौन छोड़े! आज संडे है। किसकी हिम्मत जो मुझे जल्दी उठा सके। घर के अस्सी वर्षीय वरिष्ठ नागरिक अखबार के बिना छटपटाने लगते हैं, और शॉल, टोपे, मोजे के जिरहबख्तर में क़ैद होकर जाकर उठा लाते हैं। श्रीमतीजी कुढ़मुढ़ा रही हैं कि बाई आज भी आती दिखाई नहीं देती।
     सुबह सुबह स्कूलों में बच्चे मुँह से वाष्प छोडकर ध्रूमपान की नकल करने लगते हैं। क...क...किरण बोलने वाले इस शख्स को आप शाहरुख खान समझने की भूल न करें। दरअसल ठण्ड के मारे इसके दाँत किटकिटा रहे हैं। पारा जितना नीचे होने लगता है, भियाजी की लाल रंग की दवा का डोज़ भी उसी अनुपात में बढ़ जाता है। ठण्ड से अपने अपने ढंग से सबकी जंग जारी है।                ***
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