Wednesday 30 April 2014

व्यंग्य       
              घोषणा पत्र की चोरी 
                                      ओम वर्मा
                              
ब सुबह से सिर्फ एक सामूहिक बलात्कार, दो छेड़खान,एक लड़की भगाने की व दो मामूली चोरियों की रपटें ही लिखवाने वाले आए तो हवलदार बलभद्रसिंह व इंस्पेक्टर सा. बुरी तरह से बोर हो गए। उन्हें लगा कि अब लोगों में उनकी  पुलिसगिरी कम और दूसरों की गांधीगिरी ज्यादा काम करने लगी है। दोनों यह सोच सोचकर हलाकान होने लगे कि क्या सचमुच में कहीं अच्छे दिन तो नहीं  आ गए हैं। मगर तभी धड़धड़ाते हुए कुछ लोगों ने झण्डों व पोस्टरों के साथ नारे लगाते हुए प्रवेश किया।
   “दारोगा जी चोरी हो गई हैरिपोर्ट लिखवाना है!”
   “क्या माल चोरी हुआ?” दारोगा जी ने खैनी की फंकी मारते हुए पूछा।
   “हमारा घोषणा पत्र चोरी हो गया है।“
   “कहाँ रखा था आपका घोषणा पत्र...हमारा मतलब है कि किस जगह से चोरी हुआ आपका वो...क्या बताया था...हाँ,घोषणा पत्र?”
   जी वो तो हमने सार्वजनिक रूप से घोषित कर रखा था, हमारा मतलब है छपवा कर पूरे देश की पब्लिक के सामने रखा था।“
   “तो फिर चोरी की रिपोर्ट लिखाने क्यों आए है? जब आप खुद ही कह रहे हैं कि आपका माल पब्लिक के लिए था, तो उसकी रक्षा भी आपको ही करनी चाहिए थी कि नहीं? फिर जब मामला पूरे देश का है तो क्या आपको यही थाना मिला था रपट लिखवाने के लिए?”
   “पर दारोगाजी हम सच कह रहे हैं कि उन लोगों ने इसे चुराया है!”
   “देखो यार एक तो चुनावों के चलते हमारा पहले ही भेजा फ्राई हो रहा है और ऊपर से आप लोग ये सड़ी सड़ी हगी-मूती बातें ले के आ जाते हो रपट लिखाने। एक तो तुमने तुम्हारा वो क्या नाम बताया था...पत्र वत्र, वो खुद तो सम्हाल कर रखा नहीं अब पुलिस उसमें क्या करे? फिर भी तुम नहीं मानते हो तो लिखाओ रपट ! हाँ तो बोलो कहाँ रखा था तुम्हारा घोषणा पत्र?”
   “नहीं दारोगाजी आप समझिए, वो रखने जैसी चीज नहीं है, वो तो कागज था...!”
   “अरे कागज भी था तो ये तो लिखना पड़ेगा कि कित्ता बड़ा था, किस रंग रूप का था, चोरी से पहले किसके पास था, तुमने उसे कहाँ से खरीदा था, उसकी कीमत क्या थी,उसका बिल विल है की नहीं ...?” दारोगाजी पुलिसगिरी दिखाने से खुद को बड़ी मुश्किल से रोक रहे थे।
   “उसकी कीमत आपको कैसे बताएँ वह तो हमारे लिए अमूल्य है, हमारा मतलब बहुत कीमती है।“
   “अगर बहुत कीमती है तो आपने उसे फिर बैंक लॉकर या पुलिस कस्टडी में क्यों नहीं रखा? खुद के गार्ड क्यों नहीं लगाए? फिर जिस चीज की तुम कीमत तक नहीं बता पा रहे हो उसकी चोरी जाने की रपट कैसे लिखूँगा और कौनसी धारा लगाऊँगा?”
    “अरे दारोगाजी हम आपसे पहले ही कह चुके हैं कि घोषणा पत्र सबके बीच पहुंचाने के लिए ही होता है, छिपाकर रखने के लिए नहीं।“
   “तो फिर कायकी रपट! तुम्हारा जो कागज दूसरों के लिए ही था और जिसे तुमने खुला रख छोड़ा था और जिसका कोई नकद मूल्य ही नहीं है, उसकी चोरी की रपट किस धारा में लिखूँ?”
   रपट लिखाने आए पार्टी के उत्साही व सीनियर लीडर्स दारोगाजी के आगे सिर पटक पटक कर रह गए मगर दारोगाजी की कानूनी परिभाषा में घोषणा पत्र की चोरीचोरी नहीं मानी जा सकती थी। इंस्पेक्टर के पास पहुँचे तो उन्होंने यह कहकर सबको झिड़क दिया कि चूँकि उन्होंने घोषणा पत्र पर सर्वाधिकार सुरक्षित होने या कॉपीराइट अपने पास होने की चेतावनी नहीं लिखी है लिहाजा चोरी का प्रकरण नहीं बन सकता !
    सुना है अब पार्टी चुनाव आयोग का दरवाजा खटखटाने जा रही है।      ***
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Monday 21 April 2014

     
        चुनावी कुण्डलियाँ
         एक
       टिकटों  को  लेकर  मची, कैसी  हाहाकार।
       कोई  जिद पर है अड़ा
, किया  कहीं इनकार॥
       किया कहीं  इंकार
,  आप  देने को आतुर।
       रहे 'कमल' को थाम
, कई अब हाथ बहादुर
       कहे
ओम कविराय, हकालों उन नकटों को।
       बेच रहे ईमान
,  देखकर  जो  टिकटों  को॥
                
                   दो
       बिल्ली मासी ठीक हो, या कोई तकलीफ।
       सुना तुम्हारे लाल को
, आई थी कल छींक॥
       आई थी  कल छींक
, रहे  ना छींका खाली।
       लगा पूछने  श्वान
, देखकर  बिल्ली काली॥
       कहे
ओम तज पाप, चलें जब सब जन काशी।
       आए  आम  चुनाव
,  समझना बिल्ली मासी॥
            
                  
                  तीन
       उनके वादे घोषणा, कपट तंत्र हैं मात्र।
       जैसे उनके हाथ में
, लगा है अक्षयपात्र॥
       लगा है अक्षयपात्र
, कहाँ से आए पैसा।
       बंदर अब मत नाच
, मदारी चाहे वैसा॥
       कहे
ओम कविराय,समझ लो उधर इरादे।
       हैं शिकार के जाल
, आज सब उनके वादे॥
                         
            
                  चार
       परसों  उसकी थी सपा’, कल पंजे का साथ।
       अब लगता है  भाजपा
, के  बिन हुआ अनाथ॥
       के बिन हुआ अनाथ
, वहाँ कल दम था घुटता
       आज लगे वो पाक़
, जहाँ सब  कल था लुटता
       कहे
ओम कविराय, लाभ बिन क्यों तुम तरसो।         
       थामेंगे  कल 
हाथ’,  देखना  फिर कल परसों॥ 
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