Monday 29 June 2015

व्यंग्य - 'कुत्तों' का कृतज्ञता ज्ञापन



            कुत्तों का कृतज्ञता ज्ञापन!



                                                       -ओम वर्मा
सारे देशी से लेकर विदेशी नस्ल वाले, हल्कू के खलिहान में पूस की रात में ठिठुरते जबरा से लेकर जेठ की दुपहरी में एसी कार के गद्दों पर बैठकर घूमने वाले, लतियाए जाने पर गलियों में दुम दबाकर टियाँऊ टियाँऊ करते रह जाने वालों से लेकर बड़े बड़े बंगलों में नवागत का खटका होते ही शेरों की तरह दहाड़ लगाने वाले तमाम हाई प्रोफाइल कुत्ते’...मेरा मतलब श्वान बिरादरी के तमाम सदस्य राजनीति में हमारा  गौरवपूर्ण तरीके से उल्लेख कर सम्मानजनक स्थान दिलाने के लिए माननीय सीताराम येचूरी जी का पूँछ हिला हिलाकर हार्दिक अभिनंदन करते हैं!
    इस सम्मान से पूरी श्वान जाति स्वयं को गौराववान्वित महसूस कर रही है। वर्ना आज तक हमें ताने-उलाहनों के सिवा मिला ही क्या है? द्वापर युग में जब हमारे एक भटके हुए बच्चे ने भौंक कर हमारा ध्यान आकर्षित करना चाहा था तो एकलव्य नामक तीरंदाज ने अपनी निशानेबाजी के जौहर दिखाने के लिए उसका मुँह ही बाणों से भर दिया था। इधर धर्मेंद्र पाजी सालों से हमारा खून पीने की धौंस देते आ रहे हैं। और तो और एक बार बसंती हमें नाच दिखाने वाली थी तो उसे भी हमारे आगे नाचने से रोक दिया था। हमने तो आज तक हमारे पामेरियन भाई – बहनों से यह नहीं कहा कि “स्टूफ़ी इन इन्सानों के आगे मत नाचना या भौंकना!” हमारे कई वो गुण जिन पर हमारे अवतरण काल से आज तक हमारा ही कॉपीराइट रहता आया है, धीरे धीरे आप लोगों ने चुरा लिए मगर हम उफ् तक न कर सके। आज लोकतंत्र के पवित्र मंदिरों से लेकर टीवी चैनलों पर चर्चाकारों ने हमारी शैली अपना ली है मगर हम चुप हैं। हमारी दुम हिलाने की कला आप लोगों ने बिना दुम के ही सीख ली और कृतज्ञता भी ज्ञापित नहीं की। कोई शख्स जब अपनी बात से पलट जाए, जैसा कि आजकल अक्सर होता है तो उसकी तुलना भी हमारी जिंदगी के उन निजी पलों से की जाने लगी जो हमारे लिए सिर्फ संतानोत्पत्ति के फर्ज़ निर्वाह की एक अवस्था भर हैं। हमारा मालिक चाहे अलगू चौधरी हो या जुम्मन शेख, हममें न तो काले गोरे का कोई भेद है और न ही किसी तरह की कोई राजनीतिक प्रतिबद्धता,! आज जबकि शेरों ने शेर होना छोड़ दिया है, अपनी गली में शेर हो जाने का माद्दा तो हममें आज भी है।
    जहाँ तक योग की मुद्राओं का सवाल है, अगर ईश्वर ने हमें व अन्य प्राणियों को अगर वाणी दी होती तो अंतरराष्ट्रीय योग दिवस भी हमारे योगदान के उल्लेख के बिना मनाया नहीं जा सकता था। माना कि हम कुत्ते हैं, पर कुत्तई से कोसों दूर! वहीं आप लोगों की कोई भी बहस या लड़ाई हमारे नाम लिए बिना पूरी नहीं होती। वफादारी का सबक हमने सिखाया और पहरेदारों को नींद हमने दी, कुछ लोगों ने तलुए चाटना हमसे सीखा। मगर साल का  एक दिन भी श्वान दिवस नहीं घोषित हुआ। आज हमारा पूरा श्वान समुदाय येचुरी जी का आभार व्यक्त करता है कि उन्होंने योगासनों की तुलना हमारे हाव-भावों से कर हमें यह एहसास करवाया कि मानव सभ्यता के विकास और योग के अंतरराष्ट्रीय मंच पर प्रतिष्ठापन में हमारा भी कुछ योगदान है।
    श्वान समुदाय एक बार फिर येचुरी जी का आभार व्यक्त करता है!     ***
                               
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व्यंग्य कल्पतरु एक्सप्रेस, 30.06.15 में



स्वतंत्र वार्ता हैदराबाद, 29.06.15 में






Saturday 27 June 2015

इमरजेंसी के फायदे

                                                                                      
इमरजेंसी के फायदे 
                                                                                                                         -ओम वर्मा 


 
न् 81 में आई ऋषिकेष मुखर्जी की फिल्म नरम गरम। उत्पल दत्त ज्योतिषी ओमप्रकाश से बात करते करते अचानक बीच में ही यह कहते हुए चले जाते हैं कि “एक इमरजेंसी आ गई है। इस पर लोगों को मूर्ख बनाने वाले ज्योतिषी ओमप्रकाश घबरा जाते हैं। इमरजेंसी! क्या यह फिर आ गई कहते हुए वे यकायक माला जपने लगते हैं।
    इमरजेंसी हटने के चार साल बाद यह एक चतुर फ़िल्मकार का तीखा व्यंग्य था। लेकिन आज के दौर में यदि इमरजेंसी की घोषणा हो जाए तो इससे  आज तो लाभ ही लाभ नजर आते हैं। यहाँ इससे हो सकने वाले लाभों का लेखा जोखा प्रस्तुत है। सबसे पहले सारी रेलगाड़ियाँ समय पर चलने लगेंगी। यानी रेलमंत्री बिना योग करे भी चैन की नींद ले सकते हैं। टीवी चैनलों पर किसी तरह का कोई बहस मुबाहिसा यानी काँव काँव सुनने को नहीं मिलेगी क्योंकि सारे बयानवीर कृष्ण मंदिरों की शोभा बढ़ा रहे होंगे। न तो कोई किसी के हाथ काटने की धौंस दे सकेगा और न ही आँखें निकालने की। यानी कुल मिलाकर शांति ही शांति...! झुग्गी झोंपड़ियों से एक दिन में मुक्ति पाई जा सकेगी। यानी शहरों में जो साफ सफाई सेलिब्रिटीज़ के झाड़ू पकड़कर फोटो खिंचवाने या स्वच्छ भारत अभियान चलाने से भी नहीं हो पाई वह इमरजेंसी लगाते ही एक दिन में हो जाएगी। लोग खुशी खुशी करवाएँ या जबरिया, इतनी नसबंदियाँ की जा सकेंगी कि जनसंख्या वृद्धि पर भी अंकुश लग जाएगा। सबसे ज्यादा इन दिनों परेशानी है पुतलों की। किसी को कोई बात जरा खटकी नहीं कि दो चार क्रांतिकारियों से तेवर दिखाने वाले आंदोलनकारी इकट्ठे होकर बेजान पुतलों में आग लगाने लग जाते हैं। पुतले में आग लगी नहीं कि पुलिस तैयार। सारे पुतलों की त्रासदी यह है कि वे न तो पूरी तरह अक्षुण्ण रह कर अगले विरोध प्रदर्शन के काम के रहते हैं और न ही पूरी तरह भस्म होकर सुपुर्दे-ख़ाक हो पाते हैं। कहीं कहीं ये क्रांतिवीर अधजले पुतलों की ऐसी पिटाई करने लगते हैं कि सामने अंग्रेजी हुकूमत में पुलिस द्वारा क्रांतिकारियों को पीटने जैसा दृश्य उपस्थित हो जाता है। निश्चित ही इमरजेंसी में बेजान पुतलों के भी दिन फिर जाएंगे क्योंकि वे चीन में वीआईपी स्पर्श सुख पाने के बाद दूसरी बार स्वयं को सम्मानित महसूस करेंगे।
    दिल्ली की जंग समाप्त होगी क्योंकि सारे लड़ाकू तो अंदर होंगे।  हड़ताल का तो कोई गलती से भी नाम नहीं लेगा। जुलूस-सभाओं पर प्रतिबंध लगेगा तो ध्वनि प्रदूषण भी कम होगा। आज कांग्रेस सहित सारे विपक्षी दल छिन्न भिन्न और मुद्दे विहीन हैं। इमरजेंसी के हटते ही अगर अन्ना हज़ारे, अविन्द केजरीवाल, राहुल गांधी या लालू एकजुट होकर जेपी की भूमिका में आ जाएँ तो जनता दल की तरह खिचड़ी दल नाम से किसी नए दल का उदय हो सकेगा। हालांकि हमारे नेताओं को खिचड़ी जरा कम ही भाती है या कुछ ज्यादा ही जल्दी हजम हो जाती है इसलिए साल दो साल बाद इसके टुकड़े होने पर इनके नाम खिचड़ी दल(RG)’, खिचड़ी दल(AK)’, खिचड़ी दल(L)’, खिचड़ी दल(M), खिचड़ी दल(N)’ या खिचड़ी दल(MB)’ जैसे नाम रखे जा सकते हैं। नीरज जी से क्षमायाचना कर कहना चाहूँगा कि “मिलते हैं दल यहाँ, मिल के बिखरने को...!”
    यकीनन इमरजेंसी लाग्ने के फायदे ही फायदे हैं!
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Sunday 14 June 2015

सूरज की दादागिरी से कीटों की हाराकिरी तक

ललित निबंध
  सूरज की दादागिरी से कीटों की हाराकिरी तक 

                                                                                                                                  –ओम वर्मा

मौ
सम का मिजाज बेवफा प्रेमिका व चतुर राजनीतिज्ञों की प्रतिबद्धता की तरह अचानक बदल गया है। सूरज कल तक गली के गुंडे की तरह अपनी प्रचंडता का रौब गाँठता हुआ मानो घर घर चौथ वसूल रहा था। शायद यही देख प्रकृति के चितेरे स्व. रामविलास शर्मा ने कहा था-
                                                                                                                                                                                                                                                                                      सूरज यों निकला पहाड़ से
 
                                      गुंडा ज्यों छूटा तिहाड़ से... 
    किंतु अब वही सूरज आसमानी संसद में बादल पार्टी के आगे विश्वास का मत प्राप्त करने में असफल होकर भीगी बिल्ली-सा दुम दबाए बैठा है। गरम दल का पतन हो गया है और नरम दल ने सरकार बना ली है। यदि दिल्ली जैसी कोई अनहोनी न हुई तो यह सरकार आठ-नौ माह तो चलेगी ही।
          आप चाहे उसे देवता मानें या न माने पर यह तो मानना ही पड़ेगा कि सूरज  नाम है अनुशासन का। हर बात में सख्ती, हर कहीं कानून-कायदा। यही अनुशासन ग्रीष्म के दो महीनों में साधारण अनुशासन न रहकर सन् ’75 की इमरजेंसी के डंडे वाले अनुशासन में बदल जाता है। आप चाहे उन्हें नमस्कार करें या न करें पर किसकी मजाल जो उनके निजाम में नंगे सिर प्रवेश कर सके। किसकी मजाल जो उस महाप्रतापी से आँख भी मिला सके। अभी मई माह में एक सामाजिक दायित्व के निर्वाहवश सारा दिन धूप में घूमता रहा। हर पल यही कामना करता रहा कि काश, कुछ पल के लिए पवनपुत्र हनुमान इस आर्यावर्त पर उतर आएँ और एक बार फिर चंद पल के लिए ही सही, रवि का भक्षण कर लें...। बहरहाल नंगे सिर घूमकर सूर्यदेव के राज का जो अनुशासन मैंने तोड़ा, मुझे उसकी जबर्दस्त सजा मिली। तीन दिन अस्पताल में बंद रहना पड़ा, खाकी वर्दी की बजाय सफ़ेद वर्दी वालों के बीच। खाकी वर्दी वाले शायद डंडे से मेरी लू उतारते, यहाँ मेरी लू के लिए मोटी मोटी सुइयाँ थीं। वहाँ शायद कलाई पर लौह कंगन पहनाए जाते, यहाँ ग्लूकोज-सेलाइन के नाजुक बंधन थे। वहाँ बंधन में बाँधने वाले मेरी वंशावली का मनचाहा बखान करते, यहाँ बंधन बाँधनेवालों (और वालियों) ने मुझसे सिर्फ यह पूछकर कि क्या खाया था, क्या पिया था और छूटते वक्त क्या खाना-पीना है बोलकर ही संतोष कर लिया था। फ्लोरेंस नाइटिंगेल की शिष्याओं ने इतनी बार मेरा चर्म-भेदन कर डाला कि उसकी मीठी चुभन अभी भी बाकी है। नर्सिंग-होम का व दवाइयों का हर वक्त भुगतान करते यूँ लगा मानो सूर्यदेव के एकसूत्री लू लगाओ कार्यक्रम के समर्थन में हस्ताक्षर करके मीसा के तहत छूटकर आ रहा हूँ। परीक्षा में कम नंबर लाने वाले बच्चे को बार बार ताने मारने वाले बाप सा जुल्म ढा रहा था सूरज। लिहाजा जिस तरह बाप के तानों से तंग आकर कुछ बच्चे घर छोड़कर भाग जाते हैं और कुछेक दुनिया छोड़ देने की नादानी कर बैठते हैं, उसी तरह कुछ नवधनाड्य सूरज के गरम मिजाज से तंग आकर हिल स्टेशनों की ओर पलायन कर गए थे और यूपी, आंध्र और तेलंगाना में कुछ लोग परलोक गमन कर गए थे।  धरती माँ को अपने लालों पर अंततः दया आना ही थी, सो बादलों की गड़गड़ाहट के माध्यम से उसने मुनादी करवा ही दी...”मेरे जिगर के टुकड़ों...मेरे लालों... तुम्हारे पिता का क्रोध शांत हो गया है। तुम जहाँ भी हो चले आओ...कोई तुम्हें कुछ नहीं कहेगा। रो-रोकर मेरी हालत खराब हो गई है...तुम्हें सताने वाली दुष्ट बहिन रोहिणी अपने ससुराल चली गई है... तुम्हारे छोटे मामा आषाढ़, बड़े मामा सावन व नानाजी भादौ तुम्हारे स्वागत के लिए तैयार खड़े हैं...।”
                                     
    हाँ तो अब जबकि पहली फुहारें गिर चुकी हैं और गर्मी की त्राहि-त्राहि से राहत मिल चुकी है तो ऐसा लग रहा है जैसे समस्त आतंकवादियों ने एकतरफा संघर्ष विराम लागू कर दिया हो। अँगरेजी साहित्य के रोमांटिक युग के प्रसिद्ध कवि जॉन कीट्स को एक अँधेरी रात में बुलबुल की तान सुनकर इतनी अलौकिक खुशी हुई थी कि उन्हें लगने लगा था कि मृत्यु के लिए इससे अच्छा समय और नहीं हो सकता। कुछ ऐसी ही खुशी वर्षा के आगमन पर इन कीट पतंगों को हो रही है। वे खुश, खुश और इतने खुश हैं कि हाराकिरी करने पर तुले हुए हैं। आकाश अक्सर स्याह बादलों से भर उठता है। कभी किसी श्वेत-श्याम फिल्म सा दृश्य उपस्थित हो जाता है, तो कभी रुई के ढेर से इधर से उधर खानाबदोशों की तरह ठौर-ठिकाना बदलते नजर आते हैं। कभी स्याह रंग बढ़ जाता है और नागिनों की तरह बिजलियाँ चमकने लगती हैं, तो लगता है मानो शूर्पणखा, रामानुज लक्ष्मण द्वारा नाक काट लिए जाने पर क्रोधित हो विलाप कर रही हो। कभी लगता है कि यह धरा स्वयं माता यशोदा है और बादल उनके पुत्र नंदकिशोर हैं जिन्हें वे पवन का झूला झुला रही हैं। अब जबकि चिट्ठी-पत्रियाँ बीते युग की बात हो गई हैं, मोबाइल में कभी नेटवर्क तो कभी लो बैटरी का खतरा हो, इंटरनेट में हैकिंग का खतरा हो तो ऐसे में क्यों न हम उन तक अपना संदेश भेजने के लिए विरही यक्ष की तरह इन आवारा बादलों को ही काम पर लगाएँ। लेकिन ई-मेल और इंटरनेट चैटिंग के युग में आजकल के प्रेमियों में इतना धैर्य कहाँ कि वे बादल को यक्ष की तरह अपनी व्यथा समझाते फिरें। फिर भी मेरा विश्वास है कि, समय, काल और देह की सीमा से परे शाश्वत प्रेम करने वाला कोई प्रेमी अपने अलौकिक प्रेम के इज़हार के लिए एक बार फिर मेघों को अपना दूत बना सकता है।
    कई पेड़-पौधे वर्षा ऋतु में अपने वसन मिनी से मिडी और मैक्सी में परिवर्तित कर देते हैं। मगर मुझे सबसे अधिक सुहाता है कदंब। कृष्ण की लीलाओ से जुडा होने के कारण ब्रज में कदम्ब के पेड़ की बहुत महिमा है।  ब्रजभाषा के अनेक कवियों ने इसका उल्लेख किया है। इसका इत्र भी बनता है जो बरसात के मौसम मैं अधिक उपयोग में आता है। हालाँकि मथुरा में अब यह वृक्ष बहुत ही कम पाया जाता है।  रूबिएसी कुल के इस वृक्ष में वर्षा ऋतु में चक्राकार पीले गुच्छे के रूप में बहुत छोटे  सुगंधमय फूल लगते हैं।  यह भी कहा जाता है कि बादलों की गर्जना से इसके फूल अचानक खिल उठते हैं। सावन-भादौ में कदंब के पेड़ पर लगे छोटे-छोटे मोतीचूर के लड्डू जैसे हल्के पीत-श्वेत वर्ण के फूल, उनकी निर्मल सी खुशबू और फूलों का पीला पराग झरने के बाद, पकने पर लाल हो जाना...! इसे 'हरिद्र' और 'नीप' भी कहा जाता था। फूलों से इत्र तैयार करने का उल्लेख भी मिलता है। साहित्य में नायिकाओं द्वारा श्रृंगार में इसका उल्लेख भी मिलता है। कीचड़ और फिसलन भरी जमीन इसके प्रिय हेबिटेट (वास स्थान) हैं। इसे कृत्रिम उद्यानों में नहीं पनपाया जा सकता। निश्चित ही कदंब प्रकृति के अधिक निकट है और शायद इसी कारण इसके दो पर्याय हरिप्रिय (कृष्ण को प्रिय) और हलिप्रिय (बलदाऊ को प्रिय) भी पड़ गए हैं। किंतु दुर्भाग्य से लालची मनुष्य जो कि नीड (Need) की सीमा पाए कर ग्रीड (लालच) तक पहुँच चुका है, की नजर इस पर भी पड़ गई है। दरअसल इसे सुखाकर इसका केमिकल ट्रीटमेंट कर लिया जाता है, जिससे यह बिल्कुल चंदन का आभास देता
है।  फिर इसकी मूर्तियाँ बनाकर सैकड़ों गुना महँगेदाम पर चंदन के नाम से बेची जाती हैं। इस कारण दुनिया से चरित्रवान लोगों की तरह इसकी संख्या भी घटती जा रही है।
      हरीतिमा तो खैर वर्षा की पहचान है ही, कीचड़ और मेंढक भी मानो इन्हीं दिनों के लिए बने हैं। सारे मेंढक मानो गर्मी के ताप से झुलस गए थे और इंतजार ही कर रहे थे कि कब पहली फुहार गिरे और कब वे अपनी अगन मिटाएँ। गड्ढों से बाहर आकर मेंढक यूँ टर्राने लगते हैं मानो खोया बछड़ा मिल जाने पर गाय रँभाने लगती है। वर्षाजल से आल्हादित हो मेंढक एक दूजे पर यूँ लंबी लंबी छलांगे भरकर उछलने लगते हैं जैसे पिता के काम से लौटने पर नन्हा बालक उनकी ओर भागता है। कभी ग्रीष्म निद्रा तो कभी शीत निद्रा के नाम पर साल भर से सोए पड़े मेंढक वातावरण को लोकसभा के शून्यकाल सा बनाने पर तुले हुए हैं। जब से जीवविज्ञान की प्रयोगशालाओं में इनके कटने पर पाबंदी लग गई है तब से इनका टर्राना जरा कुछ ज्यादा ही बढ़ गया है। उछल कर सुविधाजनक स्थान पर बैठने की इनकी विशिष्टता को जब से राजधानी वालों ने अपना लिया है तब से बेचारे थोड़े परेशान जरूर रहने लगे हैं।
    मंत्री जी खुश हैं क्योंकि हेलिकॉप्टर से बाढ़ का नजारा देखने कहीं न कहीं तो जाना ही पड़ेगा। सोच रहे हैं कि इस बार किसी नई जगह बाढ़ आना चाहिए ताकि कुछ चेंज हो जाए। मुन्नू की अम्मा, मुन्नू और उसके पाँचों भाई-बहिन जिद कर रहे हैं कि इस बार हम भी चलेंगे हेलिकॉप्टर में घूमने। देखें, किसका नंबर लगता है। प्रतिपक्ष खुश है कि सरकार की टाँग खिंचाई का एक और मौका मिलेगा, फलां जगह बाढ़ आई, सरकार ने कुछ कदम नहीं उठाए...फलां जगह सूखा पड़ा, सरकार के कदम वहाँ भी (बक़ौल शरद जोशी) जरूरत से ज्यादा ठोस हो गए इसलिए नहीं उठ पाए...! सरकार से इस भारी असफलता को लेकर इस्तीफा माँगा जा सकता है और यह भी हो सकता है कि इस मुद्दे का लागत लाभ का गणित अनुकूल पा कोई जूझारू नेता धरना, प्रदर्शन या बाढ़ पीड़ित के घर एक रात गुजारने जैसा कोई क्रांतिकारी कदम उठा ले। और कुछ हो न हो वाक ऑउट से तो कोई नहीं रोक सकेगा।
    किसान खुश हैं। ईश्वर ने लगता है निदा फाजली की इन पंक्तियों पर दाद दे दी है- “गरज बरस प्यासी धरती को फिर पानी दे मौला/ चिड़ियों को दाना, बच्चों को गुड-धानी दे मौला।” मेरे घर के आसपास आषाढ़ और सावन के महीनों में  बिलकुल प्राकृतिक झील बन जाती है। हर वर्ष मेंढकों के टर्राने का शोर एक किस्म की मादकता भर देता है। कुछ मेंढक तो ऐसे टर्राने लगते हैं गोया उन्हें भी बिना बहुमत के सरकार बनाने का मौका मिल गया हो। पास के स्कूल के बच्चे घर को लौटते हुए मेरे घर के आसपास बनी झील में पत्थर फेंक रहे हैं और कॉपियों के पन्ने फाड़-फाड़कर नाव तैरा रहे हैं। नाव जब तक सूखी है, तैरती है, भीगते ही डूब जाती है और बिन कहे एक संदेश छोड़ जाती है कि जहाँ तक हो सके अन्तःकरण को कागज की नाव की तरह सूखा यानी शुद्ध रखें वर्ना पाप की आर्द्रता जहाँ लगी कि नाव का डूबना तय है।
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संपर्क : रामनगर एक्सटेंशन, देवास 455001 (म.प्र.)
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