Friday 27 November 2015

व्यंग्य - चारा और भाईचारा



व्यंग्य
                          चारा और भाईचारा
                                                                                                         ओम वर्मा
“इंसान का इंसान से हो भाईचारा...!” आज इस अमर गीत को सुनते ही कवि प्रदीप का ध्यान बाद में आता है, दिल्ली वाले सर का पहले आता है। पैगाम फिल्म के गीत का यह मुखड़ा उनका पार्टी-कैचवर्ड या वाचवर्ड बन चुका है। यदि आज रेडियो व अमीन सायानी का प्रसिद्ध गीतमाला प्रोग्राम का युग होता तो यह गीत पहली पायदान पर बज रहा होता।
     बहरहाल उन्होंने इस गीत के संदेश को सही अर्थों में आत्मसात किया। पहले उन्होंने गांधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता से भाईचारा बढ़ाया मगर वहाँ जब वांछित चारा न मिला तो भाईचारा बीच में ही टूट गया। अपने इसी अभियान के तहत वे पटना पहुंचे। वहाँ चारा लेकर भाई उन्हें कलेजे से लगाने के लिए बेताब थे। उन्हें लगा कि मित्रता की मुरझाई बेल फिर हरी हो जाएगी। मगर यह भरत मिलाप लोगों को नहीं सुहाया। दूसर भाई लोगों ने उनकी वह वीडियो क्लिप लगाना शुरू कर दी जिसमें वे इन पटना वाले भाई को पानी पी पीकर कोसते हुए अपराधी बता रहे हैं। जाहिर है कि उनके भाईचारा बढ़ाओ अभियान की पोल उनके द्वारा कभी बच्चों की झूठी कसम खाए जाने जैसे इमोशनल हथकंडे की तरह खुल चुकी थी।
     यहाँ याद आता है आर.एल. स्टीवेंसन का  क्लासिक उपन्यास द स्ट्रेंज केस ऑफ डॉ. जेकिल एंड मिस्टर हाइड जिसमें एक भद्र पुरुष एक औषधि के प्रभाव से मिस्टर हाइड  बन मानव हत्या करने लगता है। उपन्यास में यह स्थापित करने का प्रयास किया गया है कि प्रत्येक मनुष्य में अच्छाई व बुराई दोनों प्रवृत्तियाँ होती हैं। बुराई दबी रहती है मगर किसी  बाहरी एजेंसी के प्रभाव  से जागृत भी हो सकती है।  डॉ. जेकिल और मिस्टर हाइड  के रूप में एक ही व्यक्ति दो खंडित व्यक्तित्व (स्पिलट पर्सलिटी) जीने का आदी या विवश हो जाता है। मुझे लगता है कि राजनीति में भी इस उपन्यास की कथा की तरह घटित हो रहा है। वे जब राजनीति में न आने या पद न लेने के लिए बच्चों की कसम खाते हैं या भ्रष्ट नेताओं को नाम ले लेकर कोस रहे होते हैं तब हमें उनमें डॉ. जेकिल की तरह एक बेहद ईमानदार भद्रपुरुष दिखाई देता है। मगर जैसे ही हमारा जेकिल सत्ता की औषधि ग्रहण करता हैं, उसका मिस्टर हाइड  में कायांतरण हो जाता है। कल जो अस्पर्श्य लग रहा था वह आज उन्हें राजधानी एक्सप्रेस में चढ़ाने वाला सखा नजर आने लगता है।
           वैसे चारे में गुण बहुत हैं। इसकी रोटियाँ खाकर कभी महाराणा प्रताप ने स्वाभिमान की रक्षा की थी। आज इसे गाय भैंस खाकर सिर्फ दूध दे सकती हैं पर उनके हिस्से में से आदमी खा जाए तो उसकी पीढ़ियाँ तर जाती हैं। चारा खाकर आदमी का दिमाग इतना तेज हो जाता है कि आखिर तक उसे कोसते रहने वाला भी गले लगाकर सार्वजनिक अभिनंदन करने को विवश हो जाता है। वह न खाने वालों को चारा काटते रहने पर मजबूर कर सकता है। चारा खाने वाले के बेटे इतने इतने तेजस्वी व प्रतापी होते हैं कि वे जान लेते हैं कि महज पोथियाँ पढ़ लेने से वे कोई पंडित नहीं हो जाएंगे। अगर खूब पढ़ भी लिए तो ज्यादा से ज्यादा डॉक्टर, इंजीनियर या आइएएस बन सकते हैं। नौवीं या बारहवीं फेल रहे तो मंत्री बन सकते हैं जिनके आगे उक्त सारे पढे लिखों को कम से कम पाँच साल तो सिर झुकाकर खड़े रहना ही है।
     पैगाम के इस गीत को मैंने अपने मोबाइल की कॉलर ट्यून बना रखा है। लेकिन अब जब भी कोई मुझे कॉल करता है तो न जाने क्यों मुझे “इंसान का बेईमान से हो भाईचारा....” सुनाई देने लगता है।
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संपर्क : 100, रामनगर एक्सटेंशन, देवास 455001  

'चारा और भाईचारा', स्वतंत्र वार्ता, हैदराबाद में




स्वतंत्र वार्ता, हैदराबाद , 28.11.15 में 
 

व्यंग्य-'चारा और भाईचारा' , नईदुनिया 27.11.15

व्यंग्य, नईदुनिया 27.11.15.



Monday 9 November 2015

व्यंग्य - सियासत और मुहावरे



व्यंग्य
                                सियासत और मुहावरे
                                                                         ओम वर्मा
न दिनों राजनीति में आरोप - प्रत्यारोप, निंदा – चाटुकारिता, तू तू – मैं मैं ने इतना अधिक  स्थान ले लिया है कि कभी कभी यह आशंका जन्म लेने लगती है कि राजनीति कहीं सेवा करने के बजाय सचमुच मेवा प्राप्ति का माध्यम तो नहीं है। सदनों में चलने वाले शब्दबाण देखकर भ्रम होने लगता  है कि ये हमारे प्रजातंत्र के मंदिर हैं या कुरुक्षेत्र की रणभूमि! लेकिन अशिष्ट भाषा के आदी हो चुके हमारे ये भाग्य विधाता कभी कभार इसी जुबानी जंग में ऐसे ऐसे दुर्लभ व उच्च कोटि के भाषाई मुहावरों का प्रयोग भी कर बैठते हैं कि राजनीतिक चर्चाओं से परहेज करने वालों को भी कभी कभी उसमें फिर से रुचि जागृत होने लगती है।
       बिहार में चुनाव परिणाम सामने हैं। इस चुनाव में मुद्दों से ज्यादा जुबानी जंग चर्चा में रही। लालूजी ने फरमाया था कि बिहार की जनता नरेंद्र मोदी को छठी का दूध याद दिला देगी। इतना प्यारा मुहावरा कई दिनों के बाद सुनने को मिला। देशज मुहावरे में बात करने वाले लालू जी जो अक्सर मी मिमिक्री कलाकारों व चुटकुलेबाजों के प्रिय पात्र रहे हैं, इस मुहावरे के बाद पहली बार कई हिंदी भाषा प्रेमियों के मन में अधिक सम्मान के अधिकारी बने। इस मुहावरे को सुनकर अँग्रेजी माध्यम की संस्कृति वाले बच्चों को हिंदी भाषा की समृद्धि और सामर्थ्य  का एहसास होने लगा। मेरे बच्चों ने यह मुहावरा पहली बार सुना था इसलिए मुझसे पूछ बैठे कि क्या इसका मतलब सिक्स्थ क्लास में पढ़ते समय पिए  गए दूध से है या कुछ और है?
      एक बार उनके पढ़ने में कहीं आया था थूक कर चाटना। मुझसे बार बार मतलब पूछें तो क्या जवाब देता? मैंने मतलब बात से पलटना बता तो दिया पर उन्हें तो उदाहरण चाहिए। मुझे नहीं सूझा। तभी टीवी न्यूज़ देखकर उन्हें खुद ज्ञान प्राप्त हो गया और मुझे समझाने लगे कि थूक कर चाटना इस मुहावरे का मतलब जैसे ट्वीट करके डिलीट करना या पहले बच्चों की कसम खाकर कहना कि मंत्री नहीं बनूँगा और बाद में बन जाना हो सकता है।  
     घर में नहीं दाने और अम्मा चली भुनाने जैसे मुहावरे का अर्थ और उदाहरण ढूंढ ढूंढ कर बच्चे परेशान थे। वहाँ जब बच्चों ने सूखे व फसलों की बरबादी से त्रस्त किसानों वाले राज्य में धर्म सम्मेलन पर लाखों रुपए खर्च होते देखे तो उनको उक्त कहावत का मतलब समझ में आया। इसी तरह एक अन्य मुहावरे का प्रकरण देखें।  दुश्मन का दुश्मन अपना दोस्त होता है वाले सिद्धांत से बना लालू – नीतीश का महागठबंधन। यहाँ लालू के दुश्मन नीतीश थे और नीतीश के दुश्मन मोदी और दोनों के कॉमन दुश्मन थे नरेंद्र मोदी ।  चुनाव परिणाम के बाद बच्चों की समझ में इसका मतलब और अच्छी तरह से आ गया। पहले  वे एक और मुहावरे ऐसे गायब होना जैसे गधे के सिर से सींग को लेकर परेशान रहे। तभी उनके सामने दिल्ली विधानसभा के चुनाव परिणाम आ गए जिसे देखकर बच्चे बोल उठे कि पापा दिल्ली विधानसभा से तो कांग्रेस ऐसे गायब हुई जैसे गधे के सिर से सींग! कुछ भाई लोग दो चार विधायकों के दम पर जब चाहें तब सरकार से समर्थन वापस लेने की धौंस देते रहते हैं। न तो उस राज्य की सरकार उनको छोड़ती है और न ही वे समर्थन वापस लेते हैं। थोथा चना बाजे घना’, अध जल गगरी छलकत जाए और गीदड़ भपकी शायद ऐसे ही लोगों के लिए गढ़ी गई हों। इधर मेरे मित्र चौबे जी बड़े परेशान हैं। उन्हें अपने चौबे होने से संतुष्टि नहीं थी लिहाजा छब्बे बनने चले गए। दुर्भाग्य से जब वे लौटे तो दुबे बनकर रह गए। अब किसी को उनकी शक्ल जीतनराम मांझी और किसी को रामविलास पासवान जैसी दिखाई देती है तो उसमें उनका क्या दोष!
     आज बच्चों को पागल हाथी घर की फौज़ मारे मुहावरे का अर्थ चाहिए। मैं उनसे पल्ला झाड़ते हुए बाहर घर बगीचे में घुस आई गाय को लट्ठ लेकर भगाने के लिए निकल पड़ता हूँ।                                                                  om.varma17@gmail.com
                                                     ***

100, रामनगर एक्सटेंशन, देवास 455001 (म.प्र.)

नईदुनिया, 10.11.15 में व्यंग्य -'सियासत और मुहावरे'





Thursday 5 November 2015

व्यंग्य - उनका पद प्रहार , सुबह सवेरे , 04.11.15








व्यंग्य - उनका पाद प्रहार


 व्यंग्य                              
                उनका पाद प्रहार
                                                                           ओम वर्मा
भी कभी बच्चे भी यह क्यों  भूल जाते हैं कि वे हर हाल में बच्चे पहले हैं। नेता के स्वागत में सड़क पर वंदनवार की तरह सजना और खड़े रहना, हाथों में झंडियाँ लहराना, पंद्रह अगस्त, छब्बीस जनवरी या बाल दिवस के दिन एकाध बार उनकी गोद में फोटो खिंचवाना, छब्बीस जनवरी की परेड की झाँकी में ठिठुराती ठंड में ठंडे पानी से सलामी मंच के सामने नहाना, बोरिंग के खुले होल में यदा कदा टपक जाना...वे इसी के लिए बने हैं। इससे ज्यादा उन्हें और क्या चाहिए ?  नेता की राह का रो+ड़ा बनना उन्हें शोभा नहीं देता।
      अब मंत्री तो मंत्री ही होता हैं और उसके हाथों में पूरे प्रदेश की जंत्री होती है। उनके हाथ हाथ नहीं रहते बल्कि उनका कमलीकरण हो जाने से वे 'कर कमल' हो जाते हैं। वे जब स्वयं अपने कर कमलों से सफाई जैसा पवित्र कार्य संपन्न करके लौट रही थीं तो ऐसे में कोई मैला कुचेला बच्चा उनकी राह रोक ले तो क्या यह शान में गुस्ताखी नहीं होगी?  वैसे भी  सत्ता जिनकी ठोकर में होती है उनके लिए राह में बाधा बनता एक बच्चा रास्ते के पत्थर से क्या ज्यादा महत्व रखता है ?  बच्चा जिसके  मतदान केंद्र तक पहुँचने में अभी बहुत समय बाकी है।
    एक रुपया माँगे जाने पर वे कुछ इस तरह नाराज हुईं मानो उसने एक रुपया नहीं बल्कि अपने हिस्से के पूरे पंद्रह लाख रु माँग लिए हों! मात्र एक रुपए के लिए जिसने उनका लाखों का समय बरबाद कर दिया वो क्या उसे सिर पर बिठाएंगे! राजनीति में रिवाज है कि उजाले में सिर्फ घोषणाएँ की जाती हैं,  बिना खाते-बही का वितरण तो सिर्फ अँधेरे में ही संपन्न होता है। मान लो अगर वे उस समय बालक को वांछित धनराशि प्रदान कर देतीं तो बाद का परिदृश्य शायद कुछ यूँ होता कि उन पर पहले तो भिक्षावृत्ति को बढ़ावा देने का आरोप लगाया जाता। टीवी चैनलों पर परिचर्चा के नाम पर जो काँव काँव मच रही होती! उनके समर्थक तर्क देते कि मंत्री महोदया ने एक रुपया दान देकर विशाल हृदय का परिचय दिया है। प्रतिपक्ष वाले कहते कि यह एक रुपया कहाँ से आया है इसकी जाँच होनी चाहिए। आप वाले कहते कि बच्चा और मंत्री महोदया आपस में मिले हुए हैं। इधर राहुल जी बच्चे  के घर रात गुजारने की घोषणा हो जाती जिस कारण बच्चा एक बार फिर चर्चा का केंद्र बिन्दु बन जाता-!
      वैसे लात तो भृगु ने भी हरि को मारी थी मगर हरि ने कुपित होने के बजाय उलटा ऋषिवर से ही पूछ लिया था कि कहीं उन्हें चोट तो नहीं आई। काश इस बच्चे की आवाज भी वे सुन पातीं जो सुरक्षाकर्मियों के तुरंत एक्शन में आ जाने के कारण बैंड बाजे के शोर में दुल्हन की सिसकियों की तरह घुट कर रह गई थी। उसके विलाप का तो शायद यही तर्जुमा किया जा सकता है  कि “दीदी आपके पैरों में चोट तो नहीं आई...!”
       भृगु ऋषि की लात खाकर भी हरि ने उन्हें भले ही क्षमा कर दिया था मगर पीड़ित पक्ष की ओर से हरिप्रिया देवी लक्ष्मी भृगु पर कुपित हो गईं थी और शाप दे दिया था कि वे ब्राह्मणों के यहाँ कदम नहीं धरेंगी! यानी मुद्दई सुस्त और गवाह चुस्त!  इसी तरह बच्चा शायद भूल जाए क्योंकि सड़कों पर भीख मांगने वाले बच्चों को गालियाँ सुनने व लाते खाने की तो आदत सी होती है। मगर इस बार वीआईपी पाद प्रहार के कारण बात जाहिर है कि दूर तलक अवश्य जाएगी।  
                                                  ***

100, रामनगर एक्सटेंशन, देवास 455001 म.प्र.