Sunday 12 June 2016

व्यंग्य - 'पानी पर पानीपत', नईदुनिया, 13.06.16 में

  व्यंग्य 
                             पानी पर पानीपत
                                                                          ओम वर्मा
पानी आग बुझाता है यह तो सबको पता है पर पानी में ही अगर आग लगी हो या आग पानी के कारण ही लगी हो तो उसे कैसे बुझाया जाए?
     अन्य आगों से शायद जनहानि या सिर्फ धनहानि ही होती हो पर पानी की आग से मानहानि भी हो सकती है और मतहानि भी! कभी कभी पारा खुद नहीं समझ पाता कि उसने जो छलांग लगाई है उसका कारण पानी की आग है या बड़ों बड़ों के बीच आए दिन होने वाली जुबानी जंग है।
     घर आए मेहमान को बिना पूछे पानी पेश करना हमारे प्रोटोकॉल का अनिवार्य अंग है। कुछ लोग अपने किसी दिवंगत परिजन की स्मृति में तो कुछ जनकल्याण की भावना के तहत प्याऊ भी खुलवाते आए हैं। आजकल ऐसा भी होता है कि चाहे वहाँ मटके दो ही रखे हों पर मुहल्ले के चार पाँच भियाजी टाइप उदीयमान रहनुमाओं के मटकों के आकार से बड़े बड़े फोटो और बैनर कुछ इस अंदाज़ से लगाए जाने लगे हैं कि प्यासे को पानी के हर घूँट के साथ उन्हें दुआ देने के लिए विवश होना पड़े। लोगों के नाम बड़ा, प्यासों की प्यास छोटी!
     लातूर में रेल से पानी भेजा गया। पानी अभी प्यासों के हलक के नीचे से उतरा भी नहीं था कि उधर दिल्लीवाल ने घोषणा कर कि हमारे पास बहुत पानी है अगर सरकार रेल की व्यवस्था कर दे तो वे मुफ्त देने को तैयार हैं’, बहती गंगा में अपने हाथ भी धो डाले। ऐसा लगा जैसे फ़क़ीरों की बस्ती में लंगर खुला है जहाँ कोई भी मुफ्त पेट भर जलेबी खा सकता है। न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी। इधर साइकिल पर पानी लाने वालों को भला रेल का पानी कैसे रास आता। लखनऊ वालों को रेल की छुक छुक  की पूरे देश को जोड़ने वाली व सभी को बचपन की याद दिलाने वाली आवाज में मोदी मोदी  की अनुगूँज सुनाई देने लगी। लिहाजा घर आई गंगा को वापस शिव की जटा में समा जाने के लिए कह दिया। यह पानी था कोई बाँस नहीं कि उन्हें उल्टे बरेली भेजने का सोचते। यह पानी था तो वे भीपानीदार थे। बरेली भेजने का मतलब तो आखिर यूपी की सीमा में रखना ही होता जो उन्हें कतई गवारा न था। लिहाजा पानी वापस बादलों के पास पहुँचा दिया गया। उधर बादलों ने भी पानी वापस लेने से इनकार कर दिया है। उनके भी कुछ उसूल हैं। वे पानी लेते तो हैं मगर थ्रू प्रॉपर चैनल। यानी पानी आपको वापस नदी में डालना पड़ेगा,नदी किसी बड़ी नदी में मिलेगी और बड़ी नदी जितने दिन और जितनी दूर चाहेगी, इठलाती फिरेगी और जब उसकी इच्छा होगी तभी जाकर समुद्र में समर्पण करेगी। इतनी दूरी और इतने समय के बाद आपके द्वारा डाला गया सौ लीटर पानी समुद्र तक पहुँचते पहुँचते पैसे की तरह मात्र पंद्रह लीटर रह सकता है। नदी के उद्गम से लेकर समर्पण बिंदु के बीच कई खाईवाल नाल काटने के लिए तैयार जो बैठे हैं।
     पानी अब सिर्फ पानी नहीं रहा, धीरे धीरे पानीपत होता जा रहा है। कुछ लोग पानी पर लकीरें खींचने पर उतारू हैं और कुछ पानी के इस विनम्र गुण कि जिसमें मिला दो उस जैसा के कारण उसे अपने रंग में रँग कर सप्लाई करना चाहते हैं। पानी देने वाले ताते नीचे नैन की सीख भूल कर देने का एहसास करवाने पर तुले हैं और लेने वाले हैं कि प्रकृति के वरदान या घर आई दौलत को ठोकर मार रहे हैं। उधर डाक वितरक मित्र खुश हैं कि अब हमारे द्वार तक गंगाजल पहुँचा कर उन्हें भगीरथ कहाने का सम्मान प्राप्त होगा।      
     यह न भूलें कि पानी अगर अपनी वाली पर आ गया तो पानी पिला पिला कर मारना भी जानता है।
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