Monday 28 November 2016

दैनिक ट्रिब्यून, 29.11.16 में


सुबह सवेरे, 29.11.16 में - हम नहीं, अब वे हमारी नकल करते हैं!



व्यंग्य
                 अब वे हमारी नकल करते हैं!
                                                                                     ओम वर्मा
म पश्चिमी देशों की नकल करते हैं यह जुमला पंद्रह लाख रु. हमारे बैंक खातों में जमा करवाने वाले जुमले की तरह अब अप्रासांगिक हो गया है। जिस तरह यह राशि जमा करवाने का  दावा करने वालों ने स्वयं को वचनमुक्त घोषित कर दिया है वैसे ही मेरे देशवासियों को अब स्वयं को पश्चिमी देश, विशेषकर अमेरिका की नकल करने के आरोप से भी स्वयं को मुक्त समझ लेना चाहिए। बल्कि अब हम यह बात छाती ठोककर कह सकते हैं कि अमेरिका वाले हमारी नकल कर रहे हैं।
     सबसे पहली नकल तब हुई जब पिछली सदी के सातवें दशक में हिप्पीवाद ने वहाँ अपनी जड़ें जमाई थीं। हमारे ऋषि-मुनियों की तरह वहाँ के युवा वर्ग ने लंबे बाल रखने व साधुओं की तरह चिलम- गाँजे के सेवन से लेकर हरे रामा-हरे कृष्णा के उद्घोष तक की नकल शुरू कर दी थी। इन दिनों वहाँ के युवा हमारे गुरुकुल के शिष्यों की तरह गंजे सिर रहना पसंद करते हैं। कल से वे हमारे सड़क पर थूकने व किसी भी खाली प्लॉट या कोने में लघुशंका करने के कर्म की भी नकल करने लग जाएँ तो आश्चर्य न करें।  
     अब वहाँ हाल ही में संपन्न हुए राष्ट्रपति चुनाव को ही लें। हमारे यहाँ पिछले लोकसभा चुनाव में अबकी बार-फलां की सरकार का नारा चलते देख स्वयं वहाँ के एक उम्मीदवार ने बिना कोई रॉयल्टी दिए हमारे सर के चुनाव अभियान की नकल करते हुए अबकी बार- ट्रंप सरकार का नारा दिया और मैदान मार लिया। जब वहाँ के उम्मीदवार ने भारतीय उम्मीदवार की नकल की तो वहाँ की जनता भी भला क्यों पीछे रहती? महाजनो येन गतः स पंथालिहाजा जिस तरह हमारे यहाँ अबकी बार.... का नारा देने वाले की उम्मीदवारी पर कुछ लोगों द्वारा संवैधानिक अधिकारों, कर्तव्यों व लोकतांत्रिक मूल्यों को ताक में रखकर उनके विजयी हो जाने पर देश छोड़ देने की धमकियाँ दी जा रही थीं, तत्कालीन पीएम द्वारा अहमदाबाद की गलियों में दंगे होने और एक पार्टी उपाध्यक्ष द्वारा बाईस हजार लोगों की हत्या हो जाने की आशंका व्यक्त की जा रही थी, वही हाल अमेरिका का है। वहाँ विजयी उम्मीदवार की उम्मीदवारी के समय देश की अर्थव्यवस्था चौपट होने, मुस्लिम राष्ट्रों से संबंध खराब होने व आर्थिक असमानता बढ़ने की आशंकाएँ तो व्यक्त की ही गईं, बल्कि प्रजातांत्रिक तरीके से विजयी हो जाने के बाद भी उनका विरोध, बल्कि हिंसात्मक विरोध अभी तक जारी है।  
     विरोध प्रदर्शन के लिए पुतले जलाना हमारी सदियों पुरानी परंपरा है। देवी सीता के हरण के लिए हमने महाप्रतापी राजा रावण को आज तक माफ नहीं किया है व हम उनके साथ उनके भ्राता कुंभकरण व पुत्र मेघनाथ के पुतले हर साल दशहरे पर समारोहपूर्वक जलाते आ रहे हैं। राजनीतिक पार्टियाँ तो सत्तापक्ष वालों के पुतले आए दिन जलाने की घोषणा करती रहती हैं। पुतला दहन करके विरोध प्रकट करने के हमारे इस प्रजातांत्रिक तरीके की भी नकल करना अब उन्होंने शुरू कर दी है। लोकतांत्रिक पद्धति से चुने गए उम्मीदवार का जैसा यहाँ विरोध, वैसा ही वहाँ विरोध! संविधान यहाँ भी आहत हुआ हुआ था और वहाँ भी आहत हो रहा है।
     अब बात ओपिनियन पोल की। जिस तरह मतदाता के मन की बात को हमारे ओपिनियन पोल वाले कभी भी सही सही नहीं पकड़ पाते हैं वैसे ही अपने मन की बात किसी को नहीं बताने की कला अमेरिकी भी हमसे सीख गए हैं। हर ओपिनियन पोल में बताया गधे वाले को आगे, मगर तिलक लगाया हाथी के भाल पर!
     सुना है कि वहाँ नए सैम अंकल जिनकी पार्टी का चुनाव चिह्न हाथी है,  काम संभालते ही सबसे पहले  हाथियों की मूर्तियाँ खरीदने के लिए भारत का दौरा करने वाले हैं। उन्हें मेरी सलाह है कि भारत में यूपी में शीघ्र होने जा रहे विधानसभा चुनाव तक उन्हें रुक जाना चाहिए। यहाँ बहिन जी अगर जीत गईं तो वे स्वयं पूरे अमेरिका को हाथी की मूर्तियों से भर देंगी और न जीत पाईं तो जीतने वाला बहिन जी द्वारा पहले स्थापित की गईं तमाम मूर्तियाँ उन्हें मुफ्त उखाड़कर ले जाने की अनुमति दे देगा।       
     सुत्रों के हवाले से ज्ञात हुआ है कि व्हाइट हाउस में नए किराएदार के आते ही हमारे पीएम सर अपने अगले अमेरिकी दौरे पर अपने चुनावी नारे के इस्तेमाल के एवज में नए निवेश के लिए दबाव बना सकते हैं।                                    
                                                           ***

100, Ramanagar Extension, Dewas, 455001, MP

Tuesday 22 November 2016

दैनिक ट्रिब्यून, 23.11.16


व्यंग्यकथा - 'इश्क़ -ऑनलाइन से 'इन'-लाइन तक


व्यंग्यकथा

                     इश्क़ – ऑनलाइन से इन – लाइन तक
                                                       ओम वर्मा  
जैसे ही उसकी नजर उस पर पड़ी, उसे लगा कि उसे कुछ कुछ होने लगा है।
     सुबह सात बजे वह घर से नाश्ते व पानी की बॉटल लेकर यहाँ पहुँच गया था। कल जब वह आया था तो उसके आने से पहले ही लाइन इतनी लंबी हो गई थी कि उसका कोई ओर छोर ही नजर नहीं आ रहा था। लिहाजा अगले दिन वह थोड़ा जल्दी आया। मगर आज भी लोग सुबह पाँच बजे से लाइन में लग चुके थे। लेकिन वह भी आज घर से कफ़न बाँधकर ही निकला था!
     उसकी लाइन के समानांतर ही महिलाओं की लाइन भी लगी थी। अपनी आदत के अनुसार उस लाइन पर वह बार बार अपनी दूरबीनी नजरें दौड़ाने लगा। किसी किसी स्थान पर आँखें रुक जातीं और दूरबीनी आँखें एक्स-रे मशीन में बदलकर लक्ष्य का स्केनिंग शुरू कर देतीं। ऐसे समय उसका दिमाग  किसी खानदानी दर्जी की तरह एक नजर में ही सही सही मेजरमेंट कर लिया करता था। मगर उस पर नजर पड़ते ही उसके दिमाग का कंप्यूटर भी जैसे हैंग हो गया था। उसे लगा कि दुनिया में लाख उलझनें हों, मगर अभी इतना निराश होने या हमेशा झुँझलाते रहने की जरूरत नहीं है। जीवन जीने के लिए अभी कई और वजहें भी हैं।  
     उसकी नजरें जहां जाकर ठहर गई थीं, अमूमन अधिकांश लोगों की नजरें भी वहीं जाकर ठहर रही थीं। उसने दिमाग पर थोड़ा जोर डाला तो याद आया कि अभी कुछ महीनों पहले ऐसी ही एक लाइन कई दिनों तक लगी थी जिसमें ऐसे ही एक दिन वह कई घंटे मुफ्त की सिम लेने के लिए खड़ा रहा था। सिम तो उसे नहीं मिल सकी थी मगर उसने जब इस सुंदरी को देखा और उसकी आँखों में रांग नंबर के बजाय आपकी कॉल प्रतीक्षा में है वाला भाव नजर आया तो लगा कि सिम भले ही न मिली हो मगर   किस्मत खुल जा सिम सिम कहे बिना खुल गई है। मगर तभी कुछ बाहुबली टाइप के लोग उससे आगे घुस गए थे और उधर महिलाओं की लाइन आगे बढ़ गई थी और उसे हरितभूमि यकायक बंजर होती दिखाई देने लगी थी। 
     अपने पास रखे कुछ बड़े नोट बदलवाने के लिए एक दिन पहले असफल होने पर आज जब वह  दूसरी बार लाइन में लगा तो उसे मुरझाए ठूँठ में कोपलें फूटती नजर आईं। लाइन में लगे लोग सरकार के इस कदम पर अपनी अपनी विशेषज्ञ टिप्पणियाँ कर रहे थे मगर उसका पूरा ध्यान उस मृगनयनी की तरफ था जिसकी आँखों के सम्मोहन से वह स्वयं चाहकर भी मुक्त नहीं हो पा रहा था। जितनी बार वह उसे देखता उतनी बार उन आँखों में उसे समकालीन कविताओं की तरह नए नए अर्थ व किसी बड़े कलाकार की किसी बड़ी अमूर्त पेंटिग के समान नए नए भाव नजर आ रहे थे। धीरे धीरे उसे अपने आगोश में ले रहा कामदेव अब उससे दूर जाने लगा था। सुंदरी की मोनालिसा सी मिलियन डॉलर मुस्कराहट उसे संदेश देती प्रतीत हुई। माँ व बापू अक्सर बताया करते हैं कि उनकी पहली मुलाक़ात भी ऐसे ही केरोसिन खरीदने के लिए लगने वाली लाइनों में ही हुई थी। उसे विश्वास था कि आज वह इस परंपरा को दोहराकर ही रहेगा।
     अभी जब तक दोनों की लाइनें समानांतर चल रही हैं, उसकी उम्मीदों का चिराग प्रज्ज्वलित है।
                                                                 ***
    
    



सुबह सवेरे, 22.11.16


Wednesday 2 November 2016

पुस्तक समीक्षा - बारामासी

                                
              व्यंग्यकार ज्ञान चतुर्वेदी-बारामासी प्रसंग
                                                                                                         ओम वर्मा
व्यंग्य को पूर्ण विधा माना जाए या नहीं, यह भले ही बहस-मुबाहिसे का विषय हो पर यह निर्विवाद है कि आज ज्ञान चतुर्वेदी जी जहाँ खड़े हो जाते हैं, हिंदी में  व्यंग्य वहीं से शुरू होता है। आज हिंदी साहित्य में व्यंग्य को यदि सम्मानजनक स्थान पर प्रतिष्ठित करने का श्रेय हरिशंकर परसाई, शरद जोशी और श्रीलाल शुक्ल के बाद किसी को जाता है तो वह वन एंड ओनली डॉ. ज्ञान चतुर्वेदी हैं। वे अपने कृतित्व व व्यक्तित्व से आज सभी व्यंग्यकारों के आदर्श व प्रेरणास्रोत बने हुए हैं।
     बारमासी उनका नरक यात्रा के बाद दूसरा उपन्यास है जो 1999 में प्रकाशित हुआ था। अपने प्रकाशन वर्ष से लेकर आज तक यह निरंतर लोकप्रियता की सीढ़ियाँ चढ़ता जा रहा है और जैसा कि श्री श्रीकांत आप्टे जी ने बताया है कि अब तक इसके दस संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। संपूर्ण उपन्यास में अंत तक व्यंग्य का निर्वाह करना बहुत श्रमसाध्य और कौशल का कार्य है जिसमें ज्ञान पूर्ण सफल रहे हैं।
     अपने पिछले उपन्यास नरक –यात्रा में उन्होंने चिकित्सा जगत में व्याप्त भ्रष्टाचार और लूटमार को जिस अधिकार के साथ उद्घाटित किया था उससे व अन्य फुटकर व्यंग्य रचनाओं से उनकी सशक्त व्यंग्यदृष्टि सामने आती है। उस उपन्यास में कुछ प्रसंग जैसे ऑपरेशन के समय डॉक्टर का अखबार पढ़ना या वार्ड में भोजन की ट्रॉली लाने का वर्णन अतिरंजित होते हुए भी लेखक की पकड़ से बाहर होते प्रतीत नहीं होते। दरअसल फेंटेसी की तरह बुने गए दोनों प्रसंगों में लेखक की शैलीगत विशेषता के कारण अंततः पाठक उसके मर्म तक पहुँच ही जाता है। व्यंग्यकार की सफलता भी यही है कि नरक यात्रा जैसे व्यंग्य उपन्यास की सफलता के बाद उन्होंने फिर बारामासी जैसी एक लाजवाब कृति दी है। यह सोचने की बात है कि श्रीलाल शुक्ल राग दरबारी के बाद छुटपुट व्यंग्यों पर ही लौट आए थे और उनके अगले उपन्यास बिश्रामपुर का संत में व्यंग्य कहीं नहीं था। बारामासी व्यंग्य उपन्यास भले ही हो पर यह यथार्थ के धरातल पर भी वह बुंदेलखंड के मध्यमवर्गीय जीवन का एक संपूर्ण दस्तावेज़ है। बुंदेलखंड के कुछ गाँव/ कस्बे जैसे गुलाबगंज, विदिशा, बीना, राहतगढ़ और सागर से मेरा मेरा बहुत नजदीक का संबंध रहा है और ज्ञान जी के शब्दों में “मैं भी वहाँ का भुक्तभोगी हूँ।“(दूरभाष चर्चा) इन जगहों की स्थिति भी कमोबेश उपन्यास के कथास्थल से बहुत भिन्न नहीं है।
     नरक यात्रा और बारामासी दोनों ही उपन्यासों में कुछ जगह पर कुछ असंसदीय शब्द भी आए हैं लेकिन ये कहीं भी सायास डाले गए नहीं लगते, किसी तरह की उत्तेजना नहीं फैलाते और न ही इनसे व्यंग्यकार का कोई जुगुप्सु रूप सामने आता है। दरअसल कुछ गालियाँ बुंदेलखंडी लोकजीवन का हिस्सा हैं और विवाह जैसे मांगलिक अवसर पर अतिथियों का नाम ले-लेकर गारियाँ गाई जाती हैं। सच तो यह है कि अमिधा, लक्षणा और व्यंजना इन तीनों शब्द शक्तियों के उपयोग का इससे बेहतर उदाहरण नहीं मिलता। बारामासी में बुंदेलखंड के लोकजीवन व मध्यमवर्ग के द्वंद्व को वैसा ही उकेरा गया है जैसा रेणु के पन्नों पर बिहार और प्रभु जोशी के पन्नों पर मालवा मिलता है। कथा धर्मेंद्र के जमाने से शुरू होकर अमिताभ बच्चन के जमाने पर आकार खत्म होती है। कई उपन्यास व कहानियों में लेखक जब अंत करते हैं तो ऐसा लगता है मानो वे किसी हड़बड़ाहट में हैं और बड़ा आधा अधूरा सा या विसंगतिपूर्ण अंत कर देते हैं जिससे पाठक की सहमति नहीं बन पाती। किन्तु बारामासी के अंत में जिज्जी का पोता घर से धर्मेंद्र का पोस्टर उतारकर अमिताभ बच्चन का पोस्टर लगाकर मानो एक युग का पटाक्षेप कर दूसरे युग की शुरुआत कर रहा होता है। इतना क्लासिक समापन सिर्फ फिल्म प्रहार में ही देखा था जिसमें अंत में कुछ अनावृत बच्चों को दौड़ते हुए दिखाया गया था।
     उपन्यास के कथानक में रेल्वे स्टेशन पर सवारियों की घबराहट, बरात में बिन्नू के भाई का बार बार कट्टे पर हाथ जाना, रिक्शावाले से बहस का किस्सा या अच्छा गाँजा न मिलने पर साधू का बुरी तरह से नाराज होना आदि व और भी कई प्रसंग पाठक को बुंदेलखंडी पात्रों के अक्खड़पन, भोलेपन व देहातीपन से अवगत करवाते हैं। सभी प्रसंगों में लेखक का किस्सागोई का ऐसा स्वरूप सामने आता है कि व्यंग्य की स्याही में डूबे होने की बावजूद भी उसे सारे पात्र अपने आसपास के ही लगने लगते हैं। अलीपुरा की गर्मियों का वर्णन जो कई बार आया है, लेखक की व्यंग्य पर पकड़ का सबसे सशक्त उदाहरण है। पूरी शैली पिक्चरस्क है और हर घटना पाठक को अपने सामने घटित होती दिखाई देती है। उपाख्यानों की तरह कुछ किस्से जैसे रेवन ककवारे की कुतिया की कहानी, हनुमान टोरिया वाले बाबा द्वारा अपने सामने शीतलाप्रसाद के गाँजे की तारीफ कर देने पर छुट्टन की कोड़े से पिटाई, देसी कट्टे की डील, छुट्टन और छदामी का रेल के टीसी पर हावी होना, विवाह में टीके की रकम को लेकर विवाद, बरातियों की सुरक्षा के लिए लठैतों की मांग को लेकर मामाजी और गंगेलेजी में विवाद, मानपत्र में रसाल का रमाल हो जाने के बहाने कवि व कविकर्म की वर्तमान स्थिति पर तीक्ष्ण कटाक्ष, जिसे पीते ही दिमाग में झन्नाटी आ जाए ऐसे रायते में और मिर्ची डलवाना आदि कई ऐसे प्रसंग हैं जिनमें व्यंग्य का पंच तो है ही, परिस्थितिजन्य हास्य भी एक सहउत्पाद के रूप में सामने आ जाता है और बुंदेलखंड के कस्बों का चरित्र उजागर होता है।
     बारामासी पढ़कर पाठक ज्ञान जी की किस्सागोई का मुरीद बनकर रह जाता है। पात्रों के संवादों की ध्वनियाँ निरंतर उसके कानों में गूँजती रहती हैं। निश्चित ही साहित्य में राग दरबारी के बाद यह दूसरा मील का पत्थर साबित होगा।
     लेखक की जीवनसंगिनी को यदि ऐसे में यह विश्वास है कि उन्हें कभी न कभी ज्ञानपीठ अवश्य मिलेगा तो भला क्या गलत है? उनके इस विश्वास में हम सब शामिल हैं।
                                                         ***

पुस्तक समीक्षा - ढाक के तीन पात

       
ढाक के तीन पात
                                                      लेखक- मलय जैन
                                                 
*व्यंग्य* वह वैचारिक निबंध है जिसमें लेखक विसंगतियों, विद्रूपताओं, कुत्सित मानसिकता और समाज व राजनीति में व्याप्त भ्रष्टाचार का पोस्टमार्टम करता है। आज जबकि मूल्यों का निरंतर ह्रास हो रहा है, ऐसे में व्यंग्य की भूमिका और भी महत्वपूर्ण और सार्थक हो जाती है। जब भी बात भ्रष्टाचार की हो रही हो तो सियासतदानों के नित उजागर होते बड़े बड़े घोटाले याद आने लगते हैं और रिश्वत का नाम लेते ही हमारे सामने खाकी वर्दी घूम जाती है। ऐसे में ढाक के तीन पात’ जैसी कृति सामने आती है और जब यह मालूम पड़ता है कि इस कृति का सर्जक एक पुलिस अधिकारी है तो आप चौंके बिना नहीं रहते। पुलिस की नौकरी में कितनी भागदौड़, कितना दबाव और कितना तनाव रहता है यह किसी से छिपा नहीं है। मलय जी ने पुलिस विभाग के अपने सेवाकाल में निश्चित ही इन सभी चीजों को देखा, सुना या हो सकता है कि भुगता भी हो। ऐसे में एक ऐसे उपन्यास की रचना करना जो ऊपर से लेकर नीचे तक की सारी भंग व्यवस्थाओं की स्केनिंग करता हो, निश्चित ही एक श्रमसाध्य व चुनौतीपूर्ण काम रहा होगा। उपन्यास पढ़कर यह तथ्य निर्विवाद रूप से सामने आता है कि मलय इस चुनौती का सामना करने में पूरी तरह से समर्थ रहे हैं।

     उपन्यास की शुरुआत ही इतनी खूबसूरत तरीके से होती है कि पाठक आश्वस्त हो जाता है कि आगे उसे ऐसी कई कलात्मक बुनावटें देखने को मिलने वाली हैं। ऑफिस की फाइलों का रखरखाव, अलमारियों का वर्णन, बाबुओं की कार्य शैली, दलाल, बांकेलाल के केंटीन और आरटीआई एक्टिविस्ट लपकासिंह का जो शब्दचित्र लेखक ने खींचा है उसे देखकर यह भ्रम होने लगता है कि लेखक के हाथ में कलम है, ब्रश है या कैमरा है? कमिश्नर साहिबा के पास के गाँव में अकस्मात दौरे की सूचना मिली है निर्देश दिए जा रहे हैं कि उनके वहाँ पहुँचने से पूर्व *जहाँ लीपा जा सकता है वहाँ लीप दो और जहाँ पोता जा सकता है, वहाँ पोत दो।‘*  यह एक वाक्य ही लेखक की कलम की ताकत, दौरों की हकीकत, ब्यूरोक्रेसी की हिपोक्रेसी व पूरे उपन्यास का मिजाज समझने के लिए पर्याप्त है।
     फिर आता है लाश को लेकर दो गाँवों के बीच होने वाले सीमा विवाद का प्रसंग। थानों के बीच घटनास्थल को लेकर विवाद तो शहर के थानों में भी होते रहते हैं पर लेखक ने देहात के थानों के प्रकरणों के बहाने गाँवों के सीमा विवाद का जो वर्णन किया है उसमें भी व्यंग्य के छोटे-मोटे कई पंच देखने को मिलते हैं। पटवारी की पटवारीगिरी व मृतक की आत्मा का स्वगत कथन फिर कथानक में व्यंग्य को नई ऊँचाई तक ले जाते हैं।
    उपन्यास में अधिकांश पात्रों के नाम कॉमिक चरित्रों की तरह जरूर हैं और कहीं कहीं थोड़ी फेंटेसी और थोड़ा एग्जाजिरेशन जरूर है मगर दोनों बातें संतुलित रूप से हैं और उतनी हैं जितनी व्यंग्य में अनुमत्य है। जैसे आरटीआई एक्टिविस्ट और पत्रकार लपकासिंह, कैंटीन मालिक बाँकेलाल, कथास्थल गाँव का नाम गूगल गाँव, पटवारी गोटीराम, दरोगा लोटनप्रसाद, डकैत चट्टानसिंह और शेरसिंह, फ्री लांस नेता अनोखीबाबू, वैद्य मटुकनाथ, पुरुष वासना की शिकार या पुरुषों को अपनी वासना का शिकार बनाने वाली गुलबियाबाई।  
     पूरे उपन्यास में ऐसे कई प्रसंग हैं जिन्हें ज्ञान चतुर्वेदी जी के बारामासीके प्रसंगों की तरह अपने आप में एक पूर्ण व्यंग्य या व्यंग्य कथा के रूप में पढ़ा जा सकता है या जिन पर विस्तृत चर्चा की जा सकती है। स्कूलों की दशा, बच्चों की शरारतें, युवा वर्ग का वैलेंटाइन दिवस को लेकर दीवानापन, मध्याह्न भोजन की विसंगतियाँ, हवेली राजा और उनकी खुजली, अफ़सरों का उनकी कार्यप्रणाली के आधार पर श्रेणीवार वर्गीकरण, अफ़सरों के दौरे और उसमें अधीनस्थोंमें लगी चमचागीरी की होड़, मैडम के जेब से मोबाइल निकालने पर लोगों का खरगोश निकाले जाने जैसा कुतूहल, और नेटवर्क न मिलने पर उनके व अधीनस्थोंके बीच शरद जोशी के जीप पर सवार इल्लियाँ की याद दिलाते संवाद, गाँवों के एसपी यानी सरपंच पति, भूतनाथ के बहाने जीवित को मृत बताकर जमीन हड़पने वाले, दनादन बाबा की बाबागिरी, पति से उपेक्षित गुलबियाबाई और पत्नी पीड़ित वैद्य जी का प्रेम प्रसंग’, श्वान सभा की फेंटेसी, लपकासिंह के बहाने गाँवों में मोबाइल और शौचालयों की संख्यात्मक तुलना, कागजों पर खुदे हैंडपंप  कुओं के बहाने भ्रष्टाचार पर प्रहार, मीडिया के चरित्र पर चर्चा, पुलिसकर्मियों की पीड़ा, भोलाराम का गुलबियाबाई और वैद्य जी को रँगे हाथों पकड़े जाने और गुलबियाबाई का पाला बदल देने का दृश्य, फिर बलात्कार की रिपोर्ट लिखने का रोचक प्रसंग और कानून के छेद दिखाने की बात...आदि इतने रोचक, विचारोत्तेजक व व्यंग्य के तीखे पंच लिए हैं कि लेखक की कलम का लोहा मान लेते को विवश कर देते हैं। कई जगह ऐसा प्रतीत होता है जैसे वे ज्ञान चतुर्वेदी स्कूल के होनहार विद्यार्थी हैं। भोलाराम व गुलबियाबाई का बलात्कार की रिपोर्ट लिखवाने में हवलदार का रंग बदलना संवादों की भाषा तो पुलिस की कार्यप्रणाली का दस्तावेज़ भी है और व्यंग्य में हास्य के खूबसूरत व आनुपातिक मिश्रण का सशक्त उदाहरण है।
     उपन्यास का अंत भी बड़ा कलात्मक है। प्रिंसिपल सा. के इस सवाल में हर आम हिंदुस्तानी का सवाल छुपा है कि *“भारत के लोग...वी द ग्रेट पीपल ऑफ इंडिया... भारत को क्या बनाने की शपथ ली थी और क्या बना रहे हैं, कहाँ ले जाने का स्वप्न देखा था और कहाँ ले जा रहे हैं...कुछ भी करो, फिर भी ढाक के तीन पात!”*          
     उपन्यास की शैली अंत तक बाँधे रखने वाली है। कहीं किसी तरह का कोई झोल नहीं। अनेक दबावों को झेलने और कानून की बारीक डोरी पर चलने को मजबूर  विभाग में नौकरी करते हुए व्यंग्य के क्षेत्र में काम करना निश्चित ही एक चुनौतीपूर्ण कर्म है जिसमें मलय जैन पूरी तरह सफल रहे हैं। उपन्यास की स्मृति पाठक के मन में लंबे समय तक बनी रहेगी। 
    एक स्मरणीय कृति के लिए मलय को बधाई!    
                                                              ***