Wednesday 28 June 2017

सुबह सवेरे में भारत-पाक क्रिकेट मुक़ाबले पर कुछ दोहे, 18.06.17


व्यंग्य - राजधानी में उपवास उर्फ 'दो बाँके' , 'सुबह सवेरे, 20.06.17 में '




व्यंग्य
         राजधानी में उपवास उर्फ दो बाँके 
                                                                                       ओम वर्मा
नका उपवास, उपवास नहीं नौटंकी है। उन्हें किसानों से कोई हमदर्दी नहीं है। यह सब ड्रामेबाज़ी है। हम जनता के बीच इस नौटंकी की पोल खोलेंगे, उनको उजागर करके रहेंगे।
     उनके इस सिंहनाद को सुनकर मुझे लगा कि प्रतिपक्ष अपना फ़र्ज़ निभाने के लिए जाग गया है जो लोकतंत्र की सेहत के लिए बहुत अच्छी बात है। अब और किसान आत्महत्या करना तो क्या, उसके बारे में सोचना भी भूल जाएँगे। उपवासकर्ता अपना उपवास छोड़कर सीधे इनकी शरण में आ जाएँगे और माफ़ी माँगने लगेंगे कि हुज़ूर ये क्या कर रहे हो, आपका और हमारा धंधा आख़िर है तो एक ही। हम एक दूसरे को उजागर करने लग जाएँगे तो कैसे काम चलेगा। एक घर तो आपको भी छोड़ना ही पड़ेगा। लेकिन मैं फिर चौंका जब उन्होंने घोषणा कर दी कि वे भी उपवास करेंगे। पहले वालों ने अट्ठाईस घंटे उपवास किया था, ये बहत्तर घंटे का सत्याग्रह करेंगे।
    मेरा भ्रम टूटा। अगर उनका उपवास नौटंकी था तो इनका क्या गरबा या माच है। क्या नौटंकी का जवाब नौटंकी ही हो सकता है? कुछ समय पहले देश में एक अजीब प्रतिस्पर्धा चली थी। एक बंदे ने चौबीस घंटे तक लगातार फ़िल्मी गाने गाए तो दूसरे ने छत्तीस घंटे तक गाकर रेकॉर्ड तोड़ा। एक लड़की ने सोलह घंटे लगातार नृत्य किया तो दूसरी ने चौबीस घंटे करके दिखा दिया। रेकॉर्ड तो बनाए ही तोड़ने के लिए जाते हैं। लिहाजा यहाँ अट्ठाईस घंटे की नौटंकी के जवाब में बहत्तर घंटे की महानौटंकी पेश कर दी गई। आप भले ही समझें कि उपवास व सत्याग्रह का महत्व तो गांधी बाबा के साथ ही खत्म हो चुका है और इसकी टीआरपी आज जनता में दिनोदिन घटती जा रही है। बहरहाल, दो उपवासकर्ताओं या सत्याग्रहियों के बीच जिस तरह की तकरार हुई उसमें मुझे भगतीचरण वर्मा की कहानी के दो बाँकों के बीच दिखाई गई टक्कर याद आ गई। यहाँ भी राजधानी के बड़े पुल पर दो महाबली आमने सामने अपने ढेर सारे पट्ठों को लेकर तमाम झंडे-डंडे, बैनर-वैनर, नारे-वारे और भाषण-वाशन के साथ जमा हो गए हैं। हर वक्त दोनों एक दूसरे को आज कयामत बरपा हो जाएगी’, बाईस हज़ार लोगों की हत्याएँ हो जाएँगी’, या अली’, जय सियाराम और अबकी बार, बाँके की हार टाइप के नारे लगा-लगाकर चुनौतियाँ देते रहे हैं। मगर हर बार दोनों बाँकों को न जाने क्या हो जाता था कि आमने सामने जब आते तो वाकई में इस अंदाज़ में आते थे कि लगता था कि इस बार तो कयामत आना तय है। मगर एन क्लाइमेक्स के समय जैसे ही दोनों एक दूसरे से पूछते कि उस्ताद झगड़ा आख़िर किस बात का है कि फिर मरघट सी शांति छा जाती थी। गट्ठर फिर तिनकों में बिखर जाता था।
     मगर इस बार बाँकों में पकड़ कुछ अलग तरह की हो गई थी। हुआ यूँ कि सूबे में कुछ किसानों ने शांति से आत्महत्या करने के बजाय उग्र तरीके से बंदूक की गोली खाकर मरने का रास्ता चुन लिया। लिहाजा बाँकों को अपना सारा बाँकपन और सारी बाँकेगिरी ख़तरे में नज़र आने लगी। बाँके में अगर बाँकपन ही न बचेगा तो फिर उसे बाँका ही कौन कहेगा? फिर क्या था। वे बाँकेगिरी छोडकर सीधे गांधीगिरी पर आ गए और अनशन कर बैठे जो पूरे अट्ठाईस घंटे चला। पुल पार के बाँकों में खलबली मचना स्वाभाविक था। अपनी ताकत बढ़ाने के लिए किसानों को अपने पक्ष में करना ज़रूरी था। अट्ठाईस घंटे का तोड़ बहत्तर घंटे के सत्याग्रह से निकाला गया।
    सियासती बाँकों की इस टक्कर में वास्तविक किसान सोच रहा है कि इनके चक्कर में उसका जो कीमती वक्त जाया हुआ है, काश उसे वापस लाने के लिए राइट टु रिकॉल टाइप की कोई व्यवस्था होती।
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