Sunday 16 December 2018

व्यंग्य - टार्गेट नब्बे परसेंट !



व्यंग्य
                    टार्गेट – नब्बे परसेंट!
                                                                                           ओम वर्मा
रीक्षा में एक महत्वाकांक्षी विद्यार्थी का और चुनाव में एक दल विशेष का एक समुदाय विशेष के मतदान को लेकर एक ही टार्गेट रहता है- नब्बे परसेंट!

ऐसे विद्यार्थी घर घर बिखरे पड़े हैं। वह आपका सोनू, मोनू या पिंकी, रिंकी कोई भी हो सकता है। वह नब्बे परसेंट लाना चाहता है। उसे इस बार नब्बे परसेंट लाना ही है। इसके लिए जी तोड़ मेहनत तो कर रहा है गाहे-बगाहे मंदिरो-दरगाहों के चक्कर भी लगा लेता है। हायर सेकेंडरी फ़ेल बाप की इज्जत का सवाल जो है। हालाँकि अगर वह नब्बे परसेंट ले भी आया तो भी आश्वस्त नहीं है कि उसे आगे किसी बड़ी जगह प्रवेश मिल ही जाएगा। वह जिस रेस में शामिल है वहाँ कुछ ऐसे खिलाड़ी भी होते हैं जो कुछ क़ानूनी बैसाखियों के सहारे वहाँ पहले ही पहुँच सकते हैं जहाँ नब्बे वाला आसानी से पहुँच ही नहीं पा रहा है।

यह दूसरा नब्बे परसेंट का मामला थोड़ा भिन्न है। यह चल तो पिछले सत्तर सालों से रहा है मगर अब थोड़ा खुलकर सामने आ गया है। यहाँ सरदार को अपने कबीले का अस्तित्व बचाए रखने के लिए नब्बे परसेंट की दरकार है। न पिछत्तीस न नवासी! पूरे नब्बे। किसी विद्यार्थी को सभी विषयों में अच्छा करने पर ही नब्बे का जादुई आँकड़ा प्राप्त हो सकता है। जबकि इन्हें तो सिर्फ़ एक विषय में ही नब्बे परसेंट चाहिए। बाकी सारे विषय गए तेल लेने! पहले वाले प्रकरण में दुर्भाग्य से कुछ प्रत्याशी नब्बे परसेंट न लाने को ही जीवन की सबसे बड़ी हार मान लेते हैं और हताशा में मैदाने-जंग से पलायन ही कर जाते हैं। मगर दूसरे प्रकरण में नब्बे परसेंट प्राप्तांक यानी उनके लिए एक समुदाय विशेष के प्राप्तांक भर हैं, इससे ज़्यादा कुछ नहीं। उन्हें विश्वास है कि इस समुदाय विशेष के नब्बे परसेंट लोगों ने यदि वोटिंग कर दिया तो वह उनके ही पक्ष में होगा। यानी अगले पाँच साल उन्हें काम करना है या आराम, यह अब एक समुदाय विशेष की कृपा पर ही निर्भर होगा। अन्य समुदाय वाले इसका जो भी मतलब निकालना चाहें, निकालें। इधर मतदान में उनका वांछित नब्बे यदि नहीं प्राप्त हुआ तो अगले दस साल परीक्षा में न बैठने जैसी घोषणाएँ भी की जा सकती हैं। लेकिन जैसे वाहनों के रजिस्ट्रेशन में होता है कि दस साल के टैक्स को पंद्रह सालों तक के लिए वैध मान लिया जाता है, वैसे ही जनता भी दस साल दूर रहने की घोषणा करने वाले के महान त्याग को देखते हुए उसे पाँच साल का ग्रेस पीरियड देकर पूरे पंद्रह साल के लिए आराम भी दे सकती है।

मेरी  चिंता यह है कि अगर वे जीत गए तो नब्बे फीसदी में मुझे गिनेंगे या नहीं?
                                                             ***

Friday 7 December 2018

व्यंग्य - एक चुनाव कथा


                                    एक चुनाव कथा!
                                                                                                                    ओम वर्मा 
तदान के अगले दिन।  
विवाह योग्य लड़का परिवार के साथ कन्या दर्शन टूर पर पहुँचा। लड़का भी सुंदर, लड़की भी सुंदर। दोनों एमबीए और दोनों की बड़ी बड़ी कंपनियों में पोस्टिंग। हालाँकि दोनों ज्योतिष और कुंडली मिलान में कोई विश्वास नहीं रखते थे फिर भी दोनों के माँ-बाप ने  अपने अपने ज्योतिषियों से कुंडलियों के मेल करवाकर अपनी लघु से लेकर और दीर्घ’, सभी तरह की शंकाओं का समाधान भी करवा लिया था। दोनों परिवार तो खुश थे ही, देखने वालों का भी इस जुमले में विश्वास पुख्ता होने लगा था कि जोड़ियाँ तो स्वर्ग में ही बनती हैं। पूरे सौहार्दपूर्ण वातावरण में प्रीतिभोज और औपचारिक विचार-विमर्श संपन्न होता है। इसके बाद, जैसा कि आजकल रिवाज है, लड़का लड़की दोनों को एकांत में छत पर वन-टु-वन विचार विमर्श यानी वास्तविक स्वयंवर के लिए भेज दिया जाता है। कुछ परंपरागत सवाल-जवाब के बाद लड़के की नज़र लड़की के बाएँ हाथ की तर्जनी पर पड़ती है तो पूछता है -
     “ये उँगली पर ऊपर काला काला क्या है? क्या कोई चोट लगी है?”
     “ये अमिट स्याही का निशान है। कल मतदान किया था ना!” लड़की ने गर्व से अपनी उँगली दिखाई। लगे हाथ प्रतिप्रश्न कर डाला, “कल तो आपके यहाँ भी मतदान था, आपकी उँगली भी तो रँगी होगी? “
     “हाँ, हमारे शहर में भी कल ही वोटिंग थी। मगर मैं तो नहीं गया। इन-फ़ेक्ट हमारे यहाँ से तो कल कोई भी नहीं गया। सभी की छुट्टी थी इसलिए नेटफ़्लिक्स से दो फ़िल्में देख डालीं। वी हेड अ लॉट ऑव(of) फ़न यू नो! हमने तो पिछले इलेक्शन में भी वोट नहीं डाला था। न तो मुझे लाइन में खड़े होना पसंद है और न ही ये नेता। सब साले #@&% हैं!” लड़का भी उँगली उठाकर दिखाता है, बेदाग उँगली!
     लड़की यकायक शोले की वाचाल बसंती से कोशिश की मूक नायिका आरती में बदल जाती है। नायक-नायिका की यह एकल वार्ता आगरा में विफल हुई अटल-मुशर्रफ़ की एकल वार्ता की तरह फेल हो जाती है। लड़का हॉल में और लड़की सीधे अपने कमरे में चली जाती है।    
     लड़की के माता पिता रोकने की रस्म करना चाहते हैं। बेटी की सहमति लेने उसके कमरे में जाते हैं।
     “सॉरी पापा! मैं यह रिश्ता नहीं कर सकती!”
     “क्या कह रही हो बेटी? लड़के में ऐसी क्या कमी है?” माँ तो भौंचक रह जाती है, पिता धैर्यपूर्वक आगे पूछते हैं, “लड़का सुंदर है, तुम्हारे बराबर पढ़ा-लिखा है...”
     “नहीं पापा”, बिटिया ने पूरा प्रसंग समझाते हुए कहती है, “जिन्हें अपने मत का मूल्य नहीं मालूम, और जो मतदान से ज़्यादा मनोरंजन ज़रूरी समझते हों, मैं उन्हें जिम्मेदार नागरिक नहीं मान सकती। और जो देश के प्रति ज़िम्मेदारी नहीं समझता, उसे मैं अपना जीवनसाथी कैसे बना सकती हूँ?”
     और पापा इनकार करने के लिए शब्दों का मेल बैठाने लगे!
                                         *** 

Thursday 1 November 2018

व्यंग्य - जिधर भरा हो नेग का प्याला, लाइफ़ वहीं होगी झिंगालाला ! (नईदुनिया, 31.10.18)

   
               
        जिधर भरा हो नेग  का प्याला, लाइफ़ वहीं होगी झिंगालाला!   

                                                                                                       ओम वर्मा
जा बेटा तेल ले के आ तो!  
     
     उक्त आदेश सुनते ही बड़ा बेटा होने के नाते डिब्बा और थैली लेकर पिछले दरवाजे से मुझे मुहल्ले की लाला की दुकान पर पाव भर तेल लेने के लिए निकल जाना होता था। होता यह था कि महीने के अंत में जब अकस्मात कोई अतिथि देवता होने का एहसास दिलाने आ जाते थे तो उनके लिए यह भागदौड़ करना पड़ जाती थी। उन दिनों शाकाहारी घरों में मेहमानों का स्वागत भजिए-पूरी के महाभोज से ही किए जाने की परंपरा थी। या फिर जब बड़ी देर तक बारिश थमने का नाम नहीं लेती और बूँदों की बदमाशी  बटक में कनवर्ट हो जाती थी, तब दादाजी की अकस्मात भजिए खाने की फ़र्माइश हो जाती थी। घर में तेल के स्टॉक की तो जैसे पहले ही दिन से कृष्णपक्ष के चंद्रमा से  होड़ शुरू हो जाती थी। तो क़िस्सा मुख़्तसर यह कि मुझे आने में देर तो हो ही जाती थी क्योंकि एक तो लाला की दुकान पर यह अघोषित परंपरा थी कि उधारियों की सुनवाई सबके बाद में ही होती थी। इसे यूँ भी कह सकते हैं कि मुहल्ले वालों के सामने खाते में लिखवाते समय मुझे एक अनजाना अपराध बोध, एक अनजानी हीन भावना कचोटने लगती थी। शायद यही वजह थी कि मेरा मुँह नगद वाले ग्राहकों के जाने के बाद ही खुल पाता था। पिछला चुकाने से पहले नया उधार लेने में संकोच का एक कारण यह भी था कि मेरी आत्मा का तब माल्याकरण या नीरव मोदीकरण नहीं हुआ था। वैसे लालाजी इस मामले में  पूरे गांधीवादी थे इस नाते कतार के अंतिम व्यक्ति का भी पूरा पूरा ध्यान रखते थे। लेकिन उधारी के अर्थशास्त्र और गांधीवाद का यह सम्मिलित फलसफा भी अतिथि के सामने मेरे अधिक समय तक नदारद रहने की वज़ह से उठने वाली आशंकाओं का निवारण नहीं कर पाता था।   उन्हें अकस्मात मिसिंग पर्सन का ध्यान आ जाता तो वे पूछ ही बैठते कि आपका बड़ा बेटा नहीं दिखाई दे रहा? और तब पिताजी चाहकर भी नहीं बता पाते थे कि वो तो गया तेल लेने, आप तो हमसे बात करो जी!
     
     लेकिन मेरा तब वह तेल लेने जाना न तो कोई पलायन था, न ही कोई निष्कासन। वह था महज़ घर की लज्जा का निवारण। मेहमान पिताजी के हावभाव देखकर समझ तो जाते थे कि घर का बड़ा बेटा किसी गुप्त मिशन पर भेजा गया है और ज़ाहिर है कि थाली परोसे जाने पर मिशन का उद्देश्य डिकोड भी कर लेते थे। मगर उन दिनों मेहमानों में इतनी तहज़ीब भी थी कि मेरे तेल लेने जाने के प्रकरण  को कभी अन्य रिश्तेदारों में वायरल नहीं किया।
     
     तेल लेने जाने का पारिवारिक प्रसंग राजनीति में अब बहुप्रचलित जुमला बन चुका है। यहाँ कौन कब किसको तेल लेने भेज दे या कब किसको तेल लेने जाना पड़ जाए, कोई नहीं जानता। आचार संहिता के चलते तेल का आवश्यक क़ोटा पूरा नहीं हो पाने की वजह से राधाओं के डांस आयटम मंचित नहीं हो पा रहे हैं क्योंकि नौ मन तेल लेने जिसे भी भेजा जाता है उसे अन्य दल की राधाएँ कम तेल पर नाचने की घोषणा करके अपनी तरफ कर लेती हैं।  विवाह में वर-वधू को तेल लगाना एक रस्म ज़रूर है मगर आज जबकि प्रतिबद्धता कपड़ों की तरह बदली जाने लगी हो, ऐसे चतुर सुजान भी सामने आ गए हैं जो तेल के साथ साथ तेल की धार भी देखते हैं और हवा के रुख़ को पहचानकर लाड़े को तेल लगाते लगाते बीच में दौड़कर लाड़ी को भी लगा आते हैं। वे अब यह नहीं देखते कि लाड़े की तरफ से हैं या लाड़ी की तरफ से, अब तो सिर्फ यह देखा जाता हैं कि नेग किधर से ज़्यादा मिलेगा। जिधर भरा हो नेग  का प्याला, लाइफ़ वहीं होगी झिंगालाला!    
                                                       ***

Wednesday 5 September 2018

गमगीन होने से पहले गमगीन दिखना बड़ी कला है राजनीति में


  व्यंग्य
               शोकसभा  या शौकसभा
                                                                                                ओम वर्मा
किसी विशिष्टजन केअंतिम संस्कार में उपस्थित रहते समय या शोकसभा में श्रद्धांजलि देते समय क्या बोलना,चेहरे पर कैसे भाव रखना और दो मिनट के मौन पर कैसे संयमित रहना... कई बार ये बातें कुछ लोगों के लिए किसी किकी चैलेंज से भी बड़ी चुनौती साबित हो जाती हैं।
       मुझे याद है 11जनवरी1966 का दिन। तब मैं गाँव के स्कूल में 6 ठी कक्षा का विद्यार्थी था। उस सब दूर सुबह से एक ही चर्चा थी कि गत रात ताशकंद में प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री जी का निधन हो गया है। स्कूल में वन्देमातरम् और जनगणमन के तत्काल बाद श्रद्धांजलि स्वरूप दो मिनट मौन रखा गया। तब गाँवों के स्कूलों के बच्चे आज के बच्चों से औसत आयु में तीन-चार साल बड़े हुआ करते थे। हर क्लास में एक-दो ऐसे एबले बच्चे भी होते थे जो ऐसे मौकों पर कुछ न कुछ कुचमात कर देना अपना मौलिक अधिकार समझते थे। तो उस दिन हमें मौन खड़े हुए एक मिनट भी नहीं गुज़रा था कि मेरे पीछे खड़े अनोखीलाल ने जो ऐसे कामों का विशेषज्ञ था, बिल्ली की आवाज़ निकाल दी जिसे सुनकर मुझे हँसी आ गई। तब मेहता सर जो कि पहनावे में पूरे गांधीवादी थे और उनका उसूल था कि कि जब वे एक गाल पर तमाचा मारें तो लड़के को अपना दूसरा गाल भी आगे करना होगा अन्यथा दूसरे गाल पर तीन तमाचे लग सकते थे, ने इसे ‘असहयोग आंदोलन’ मानकर अनोखीलाल को सिर्फ़ एक व हँसने पर मुझे दो तमाचे लगाए थे। आज जब भी जय जवान, जय किसान का नारा कहीं सुनता हूँ तो मुझे शास्त्री जी से पहले मेहता सर याद आने लगते हैं। वो तो अच्छा हुआ कि चाचा नेहरू गर्मी की छुट्टियों में गुज़र गए थे वर्ना अनोखीलाल तब भी किसी न किसी का आराम हराम तो करवा कर ही छोड़ता। 
     फिर बड़े हुए तो लोगों की अंतिम यात्राओं में आना-जाना लगा रहा। हर बार लगा कि श्मशानघाट सिर्फ़ पंचतत्व का पंचमहाभूत में विलय केंद्र ही नहीं है बल्कि यह कई नई कथाओं व रोचक चरित्रों का उद्गम स्थल भी है। जैसे साथ आए लोगों में से अकस्मात एक लकड़ी जमाने का विशेषज्ञ सामने आता है जो दूसरों की जमावट को नए मुख्यमंत्री द्वारा गठित किए जाने वाले नए मंत्रिमंडल की तरह एक बार बदलवाता ज़रूर है। इस बीच फिर एक श्रद्धांजलि विशेषज्ञ प्रकट हो जाता है जो मृतक की इतनी सारी विशेषताएँ गिनाने लगता है कि सुनकर चित्रगुप्त भी सोचने लगते हैं कि काश ये सब दाह संस्कार से पहले पता चल जाता तो इसे वापस लौटा देते क्योंकि ऐसे महान व्यक्ति की अभी मृत्युलोक में ज़्यादा ज़रूरत है।
     मामला अगर किसी वीआईपी का हो और शोक संदेश लिखना पड़े तो जैसा भी याद आए लिख दें, मोबाइल से कॉपी हर्गिज न करें। ऐसी सभा में बोलते समय अपनी आवाज़ को थोड़ा भारी बनाकर श्रद्धांजलि में बहुत वज़न पैदा किया जा सकता है। मानाकि आपको रोना नहीं आया है मगर बोलते समय एक-दो बार रुमाल को आँखों से लगाते रहना चाहिए। जैसे मात्र नाम लिखना याद होने पर आपको साक्षर मान लिया जाता और ऐसे 80 प्रतिशत साक्षारों के कारण कोई जिला पूर्ण साक्षर घोषित कर दिया जाता है, वैसे ही अपनी आँखों से  आपके दो बार रुमाल छुआने भर से प्रेसनोट में आपके वक्तव्य के साथ बर्स्ट इन टु टीयर्स यानी रो पड़ेटाइप का मुहावरा जोड़ा जा सकता है। लेकिन गैर-वीआईपी लोगोंके मामले में बात अलग है। मेरे मुहल्ले में एक व्यक्ति का निधन हुआ। उनके यहाँ जब भी कोईबैठने आता तब बड़ा बेटा जिसने अपनी अलग गृहस्थी बसा ली थी, दहाड़ मारकर रोने लगता था और उन्हें अंतिम समय तक अपने पास रखने वाला सबसे छोटा बेटा चुपचाप बैठा रहता था। आने वाले भी समझ जाते थे कि वे मगरमच्छ के आँसू देखकर आ रहे हैं।
     लोगों की असली परीक्षा तो तब होती है जब किसी वीआईपी के निधन पर उन्हें कई घंटे  सतत बैठे रहना पड़ता है। यहाँ पूरे समय,खासकर कैमरे के सामने आपका मुँह जितना लटका दिखेगा, आपका राजनीति का ग्राफ़ उतना ही ऊपर जाने की संभावना बढ़ जाती है। दुर्भाग्य से कुछ लोगों को यहीं कुछ भूले-बिसरे चुटकुले याद आने लगते हैं। अगर चुनाव सन्निकट हों तो हँसी मतदान होने तक स्थगित रखें वर्ना सोशल मीडिया पर ट्रोल होने में देर नहीं लगेगी। राजनीति में ग़मगीन होने से ज़्यादा ग़मगीन दिखना बड़ी कला है।
                                                     ***
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Monday 27 August 2018

कंगारुओं के देश में- एक काव्यात्मक ट्रैवलॉग, सुबह सवेरे, 17.06.18


 पुस्तक समीक्षा
             कंगारुओं के देश में  - एक काव्यात्मक ट्रेवेलॉग
                                                                           - ओम वर्मा
रेखा राजवंशी का दिल्ली में बसा बसाया परिवार था। पति आलोक मर्चेंट नेवी में कैप्टन थे। नौकरी की वजह से आलोक छह माह प्रवास पर रहते थे और कई देश घूम चुके थे। इसी क्रम में सिडनी उन्हें कुछ ऐसा भाया कि अपनी अच्छी भली नौकरी छोडकर नए काम की तलाश में सिडनी आ बसे। सिडनी में काम तलाशा, नहीं मिला तो वापस दिल्ली आए, फिर सिडनी आए और ऐसे जमे कि स्थाई डेरा जमा लिया।
     इस पूरे विस्थापन, संघर्ष, और पुराने परिवेश से बिछोह के बाद नए परिवेश से सामंजस्य में अपनी नई पहचान बनाने की दास्तान वाला यह कविता संग्रह है कंगारुओं के देश में। कवयित्री के रूप में रेखा ने उसे कैसे देखा, संग्रह उसी का दस्तावेज़ है। घर से निकलने, हवाई यात्रा,ऑस्ट्रेलिया में बसने, वहाँ की प्राकृतिक सुंदरता, वहाँ के मूल निवासियों के जीवन का अध्ययन, वहाँ अपने बच्चों की पढ़ाई, वहाँ अपने लिए कोर्स कर शिक्षण कार्य की शुरुआत, साहित्यिक सृजन व पुस्तक प्रकाशन तक का पूरा संघर्ष व समर्पण का नाम है रेखा राजवंशी। कवयित्री का यह कथन स्वयं सारी बात कह देता है-“विदेश जाना इच्छा से हो या मजबूरी, परंतु मानवीय भावनाएँ हर जगह समान रहती हैं। चाहे काम के लिए भारत में भी एक शहर से दूसरे शहर जाना पड़े, तब भी हम अपने मित्रों, परिवार, गली, मोहल्ले, दुकान और मकान की यादें अपने मन की झोली में रखे रहते हैं। भारत में रहकर जब हम नॉस्टेल्जिक हो जाते हैं तो विदेश में रहकर ऐसा होना स्वाभाविक ही है।“
     अपने पहले के देश भारत को छोड़कर ऑस्ट्रेलिया जा बसना उन्हें कुछ वैसा ही झटका देता है जैसे किसी अन्तरिक्षयान को एक गृह की कक्षा से दूसरे गृह की कक्षा में प्रवेश करते समय लगता है। यान अन्तरिक्ष में तभी तक निश्चिंत रहता है जब तक की दूसरे गृह की चुंबकीय परिधि में नहीं आ जाता। यही हाल उन आप्रवासियों का होता है जो अपनी मातृभूमि छोड़कर कमाने के लिए दूसरे देश जा बसते हैं।  रेखा राजवंशी भारत में सरिता विहार, नई दिल्ली स्थित अपना घर छोड़कर कंगारुओं के देश में जा बसीं तो वे भला कक्षा विस्थापन के इस दर्द से अछूती कैसे रह सकती थीं। यही दर्द इन कविताओं में व्यक्त हुआ है। संकलन में अंत में दी गई बाद की कुछ ग़ज़लों के साथ मुक्तकों और गीतों को छोड़कर देखेँ तो साफ दिखाई देता है कि ये अलग-अलग कविताएँ नहीं हैं, बल्कि सबको एकसाथ जोड़कर एक लंबी कविता के रूप में भी पढ़ा/समझा जा सकता है।
     कविताएँ सही देखा जाए तो दो देशों की संस्कृतियों का एक संवेदनशील कवयित्री के दृष्टिकोण से अध्ययन भी है। लगता है मानों दो देशों की संस्कृतियों के बीच कवयित्री अपना अस्तित्व तलाश रही है। कविताओं में बचपन से लेकर किशोरावस्था से होकर वृद्धावस्था तक के दृश्य सामने आते हैं। कवयित्री का विरही मन बार बार अपनी माँ, अपनी नानी को कुछ इस तरह याद करता है अगर उन स्मृतियों को वह एक तूलिका में बदल सके तो अपने वर्तमान ऑस्ट्रेलियाई केनवास पर अपनी भारतीय संस्कृति व स्मृतियों के वो सारे रंग भर दे जो उसे बार बार बेचैन करते रहे हैं। ऐसा लगता है मानों कविताओं में कवयित्री भारतीय जीवन को फिर से जी लेना चाहती है।
     आदिवासी समाज जैसे हमारे यहाँ अन्याय व शोषण का शिकार रहा है, वैसा ही ऑस्ट्रेलिया में भी हो चुका है। रेखा जी वहाँ के आदिवासी लोगों पर हुए अत्याचारों के अतीत को जानकर विचलित हो जाती हैं। डिजरीडू नामक लंबे ऑस्ट्रेलियाई लोकवाद्य जितनी लंबी पीड़ा उनको होने लगती है जो संकलन की चार कविताओं के माध्यम से व्यक्त होती हैं।  
     कविता में वहाँ के बस्कर के नाम से जाने जाने वाले लोक कलाकारों  का भी जिक्र है किसी भी सार्वजनिक स्थल पर गायन-वादन-नृत्य और तरह तरह के शारीरिक कौशल के कारनामे दिखाते हैं। लोग सिक्के डाल जाते हैं उनके आगे, जो ज़ाहिर है कि उनका मेहनताना है, भीख नहीं! पति के लंबी जहाज़ी यात्राओं  पर जाने के दौरान रेखा जी ने घर से बाहर निकल निकलकर ऑस्ट्रेलियाई जनजीवन के इन्हीं दृश्यों को स्मृतियों में क़ैद कर उन्हें कविता का विषय भी बनाया है।
     सिडनी के पेरामेटा उपनगर में एक मधुर लोकवाद्य बजाने वाला कलाकार जिसे वे अक्सर देखा करती थीं, अकस्मात गायब होकर उन्हें बेचैन कर जाता है। अर्से बाद उसे फिर बजाते देख उन्हें महसूस होता है मानो वहाँ का जनजीवन पुनः जीवित हो उठा है।
     डार्लिंग हार्बर सिडनी की पहचान है। इससे कवयित्री का जुड़ाव कैसे होता है, इस पर भी एक बढ़िया कविता है। सभी कविताओं में कवयित्री चंचल बालिका मिलेगी से लेकर एक विरहिणी नायिका, सभी रूपों में नज़र आती है।
     संकलन की पहली कविता दिल्ली का अपना निवास छोड़ने से आरंभ होती है और ऑस्ट्रेलिया में रच-बस जाने पर समाप्त होती है। इनमें यात्रा के दौरान व जहाज बदलने के अवसर पर लिखी कविताएँ भी हैं। अंत में कुछ गीत, ग़ज़लें व मुक्तक भी हैं जो कवयित्री की छंद की समझ को साबित करती हैं। कंगारुओं के देश में एक कविता संकलन ही नहीं, एक काव्यात्मक ट्रेवेलॉग भी है।
                                                          ***
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रेखा राजवंशी /अकेलापन

पैराशूट जंपिंग का जमाना और अपने दल से उनका रिश्ता


 

व्यंग्य
                अपने दल से उनका रिश्ता
                                                                                                        ओम वर्मा
राजनीति में जब जब भी किसी विचार या आंदोलन का प्रादुर्भाव हुआतब तब किसी राजनीतिक दल ने  जन्म लिया। आंदोलन में जिन्होंने झंडे उठाएडंडे खाएगली गली पोस्टर चिपकाएगाँव गाँव दीवारों पर नारे लिखेसभाओं में जय-जयकार की, दरियाँ उठाईं, कइयों ने घरबार छोड़ातब जाकर ऐसे कई ‘अनुशासित सिपाहियों’ में से कोई एक उस दल या पार्टी का मुखिया बन पाता था। ऐसे मुखिया के लिए पार्टी उसकी दूसरी ‘माँ’ हुआ करती थी।
    
      फिर आया पैराशूट जंपिंग का जमाना। 
    
     लोग पैराशूट लेकर दौड़ पड़े उस शख्स की ओर जो जब बालक था तो कभी उसके मिट्टी में हाथ नहीं सने मगर चाटुकारों की फौज उसेज़मीन से जुड़ा’ साबित करने पर तुल गई। जब वह किशोरावस्था में पहुँचा तब उसने कभी अंटी नहीं खेली। अब वही सारे अनुयायी उसे ढेर सारी रंग-बिरंगी अंटियाँ ला-लाकर पकड़ाने लगे जिन्हें वह ‘नसीब’ फ़िल्म की जूली यानी रीना रॉय की तरह बार बार नीचे गिरा देता है जिसकी वजह से लोगों में गिरने-सँभलने की होड़ सी लग गई। जिसकी किशोरवस्था  बिना गिल्ली-डंडा छुए निकल गईउसे अब मँजे हुए खिलाड़ियों के बीच जबरन पकड़ कर खिलाया जा रहा है। इधर बेचारा खिलाड़ी असमंजस में है कि डंडे से गिल्ली को टोल मारे या गिल्ली से डंडे को! और जब वह युवा होकर ‘आग अंतर में लिए पागल जवानी’ को महसूस कर पाता या दोस्तों के साथ लेडी श्रीराम कॉलेज के चक्कर लगा पाता उससे पहले ही लोगों ने उसे ‘आलकी की पालकीजय कन्हैयालाल की’ करते हुए पैराशूट बाँधकर राजनीति की इमारत की उस मंज़िल पर लैंड करवा दिया जहाँ से नीचे जाने के लिए न तो सीढ़ियाँ है न ही लिफ़्टअगर है तो सिर्फ़ एक रपटा है जो सीधे इमारत के बाहर ही खुलता है। अब जबकि जवानी उसके हाथों से रेत की तरह फिसल गई हैउसे अधेड़ावस्था का स्वागत भी नहीं करने दिया जा रहा है। युवा बने रहने के इसी भ्रम में उसने पार्टी को अपनी पत्नी घोषित कर दिया है।
     जिस संस्थान को एक बार उनकी दादी की क्लोन घोषित कर दिया गया हो, जिसकी वजह से उनकी, उनके बाप-दादा की पहचान बनी हुई है, उसे लेकर उनकी यकायक यह घोषणा कि वे उससे विवाह कर चुके हैं’, मेरे मन में कई सवालों, कई आशंकाओं को जन्म दे रहा है। आमतौर पर ऐसी संस्थाओं को अँगरेजी में मदर ऑर्गनाइज़ेशन या हिंदी में मातृ संस्था कहने का रिवाज है क्योंकि माँ-बेटे का रिश्ता तो शाश्वत होता है और पति-पत्नी का रिश्ता विवाह विच्छेद की दशा में बदल भी सकता है। पति दूसरी पत्नी और पत्नी दूसरे पति का वरण भी कर सकती है। पार्टी को पत्नी मानने वाला पार्टी की सेवा शायद न भी करेमगर माँ मानने वाले के पास सेवा के अलावा कोई विकल्प ही नहीं है। बेटे के आज्ञाकारी होने की कई कथाएँ और कई उद्धरण मौजूद हैं। माँ की रक्षा के लिए बेटों की कुर्बानियों से भी इतिहास के पन्ने भरे पड़े हैं। पत्नी की रक्षा के लिए ख़ुद को कुर्बान कर देने वाले पतियों के बारे में मेरा स्मृति-कोश जरा रीता ही है। अलबत्ता यह सर्वविदित है कि पत्नी ने अपने पति की दीर्घायु की कामना के लिए कई कठोर तप-उपवास किए, उसकी जान की रक्षा के लिए अपने प्राणों की बाज़ी लगा दी है या यमराज से भिड़कर उससे वापस लाकर वहाँ से कोई लौटकर वापस नहीं आता वाली अवधारणा ही झुठला दिया है। अब देखने वाली बात यह है कि पार्टी का पति बनने वाला क्या अपनी इस  पत्नी को वह सम्मान या स्थान दिला सकेगा  कि वह फिर अगले सात जन्मों तक वैसा ही ‘पति’ चाहे! कहीं ऐसा तो नहीं कि उनके द्वारा घोषित यह पत्नी मन ही मन भारतमाता से यह प्रार्थना करने लग जाए कि यह उसका सातवाँ जन्म ही हो! यह भी हो सकता है कि अबकी बार यदि पत्नी को ये राजसिंहासन तक न पहुँचा सके तो वह पूरे पाँच साल तक कोप भवन में बैठी नज़र आए।   
                                                ***
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Sunday 5 August 2018

व्यंग्य - कथा एक सियासी ज्ञापन की ( सुबह सवेरे, 31.07.18 )

व्यंग्य
                           कथा एक सियासी ज्ञापन की  
                                                                                                         ओम वर्मा
प्रदेश की जनता के विवेक पर शायद उनका अब विश्वास नहीं रहा। वे यह भूल गए कि अपनी सरकार चुनना जनता का वह विशेषाधिकार है जिसमें हस्तक्षेप करने का अधिकार स्वयं ईश्वर ने भी अपने पास नहीं रखा है। लोकतंत्र में कोई तीन बार जीते या चार बार, खेल के नियम सबको पता हैं और खेल का जहाँ तक सवाल है,वह सभी के लिए खुला है।
     वह कोई देवालय हो या इबादतगाह, अपने अनुयायियों के लिए वहाँ की व्यवस्था के अनुसार ये सभी स्थान उपलब्ध हैं ही, मगर यह भी सच है कि भोले बाबा जो चाहे कहीं विश्वनाथ हों, कहीं सोमनाथ हों या फिर कहीं महाकाल हों, उनके पास अधिकतर याचनाएँ कुँवारी कन्याओं द्वारा योग्य वर के अलॉट किए जाने संबंधी ही होती हैं। फिर कुछ इक्का-दुक्का लोग ऐसे भी पाए जाते हैं जो “सर्वे भवन्तु सुखिनः ...” यानी दूसरों के कल्याण के लिए भी प्रार्थना कर लिया करते हैं। लेकिन आम-चुनाव की लोकतांत्रिक प्रक्रिया को प्रभावित करने के लिए किसी राज्य के मतदाता की मनःस्थिति बदले जाने की प्रार्थना उनके सामने पहली बार आई है। एकअजब संयोग यह भी है कि प्रार्थनापत्र जिस भक्त ने पेश किया है उसका नाम वही है जिसके नाम के चुनाव-चिह्न वाले दूसरे भक्त का पटिया वह उलाल देखना चाहता है। दूसरी विडंबना यह भी है कि याचक के आवेदन में लक्षित व्यक्ति के नाम और जिस प्रभु के दरबार में याचिका दाखिल की गई है, उनके नाम में भी समानता है। और फिर जिसके नाम में राज भी लगा हो तो उसके खिलाफ कैलाश पर्वत से कोई आदेश निकलवाना हो तो जरा कुछ सकारात्मक मैदानी कार्रवाई ही काम आ सकती है अन्यथा ज्ञापन में कही गई बात को शायद चुनावी पैंतरा ही मानकर खारिज कर दिया जाएगा।

     इस पूरी स्टोरी में एक पेंच यह भी है कि जिस दल के सिपहसालार ने महाकाल के दरबार में यह याचिका लगाई है उस दल ने कभी बाकायदा हलफनामा देकर प्रभु श्रीराम के अस्तित्व को ही नकार दिया था। इधर प्रभु श्रीराम और भगवान शंकर तो एक दूसरे के भक्त हैं। तो लाख टके का सवाल यह पैदा होता है कि एक भगवान के अस्तित्व को नकारने और दूसरे को  मतदाताओं का ब्रेनवाशिंग करने का ज्ञापन देने वाले इन भक्तों के पास क्या सत्ता के साध्य को प्राप्त करने के लिए कोई और साधन अब नहीं बचा? मंदिर में ज्ञापन देने को लेकर यदि किसी दूसरे समुदाय द्वारा आपत्ति उठाई जाए या उन पर एक समुदाय विशेष की पार्टी होने का आरोप लग जाए तो क्या उन्हें दूसरे समुदाय से माफी माँगना पड़ेगी? महाकाल के दरबार में ज्ञापन देकर शैव लोगों को तो खुश कर लिया, वैष्णव और शाक्त वालों के लिए क्या करोगे? और अगर ज्योतिर्लिंग ही जाना था तो एक पर ही क्यों गए, बाकी ग्यारह क्यों छोड़े? और क्या अन्य समुदायों के धार्मिक स्थलों पर भी उनकी इस तरह के ज्ञापन देने की कोई योजना है?

     सोचने वाली बात यह है कि बाबा महाकाल अगर ज्ञापन देने वाले भक्तों की प्रार्थना सुनेंगे तो उन्हें उनकी भी पुकार सुननी पड़ेगी जो तमाम सारे मंदिरों से आपसे पहले से जाते आए हैं। अब दोनों पक्षों की प्रार्थनाएँ अगर एकसाथ सुन लीं तो सारी माँगें आपस में इतनी विरोधाभासी हैं कि अगर प्रभु सबकी माँग पूरी करना चाहें तो उन्हें शायद तीसरा नेत्र भी खोलना पड़ सकता है। जो कल, आज और आने वाले कल की भी खबर रखते हैं उन्होंने अगर तीसरे नेत्र का उपयोग कर लिया तो सारी बंद फाइलें अपने आप खुलकर बोलने लगेंगी और सारे ठण्डे बस्ते गर्म होकर आग उगलने लगेंगे।

     हे कलयुगी भक्तों! सत्ता की लड़ाई मृत्युलोक में ही ठीक है, इसे परलोक तक न ही पहुँचाएँ तो अच्छा है।
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100, रामनगर एक्सटेंशन, देवास 455001