व्यंग्य/ नईदुनिया, 20.02.13
प्याज उवाच ओम वर्मा
प्याज नाम है मेरा...!
प्यार से लोग मुझे कांदा भी कहते हैं। आज तक
मैंने आपसे कभी ‘सीधी बात’ तो नहीं की पर
करना चाहता हूँ। वैसे भी अनसंग मेलोडिज़ आर स्वीटर … यानी बिन गाए गीत
और भी मधुर होते हैं...वैसे ही मेरी अनकही और अनसुनी कहानी भी शायद कुछ ऐसी ही
खट्टी मीठी लगे।
कश्मीर - भारत की तरह मैं भी आपके भोजन का अविभाज्य अंग हूँ। जिस तरह
कश्मीर को भारत से अलग करने की साजिशें आज़ादी के बाद से आज तक जारी हैं, उसी तरह मुझे भी
नंदा, भेरा और होरी
लंग्गड़ों की थालियों से छीनने की या श्रेष्ठिजनों की भाषा में कहूँ तो मेनू से अलग
करने के ‘सुप्रयास’ पिछले कुछ वर्षों
से लगातार जारी हैं। कश्मीर के मामले में कई निर्दोष व अमनपसंद लोग हलाक़ जरूर हुए
मगर उसे भारत से जुदा नहीं कर पाए … ठीक उसी तरह जमाखोर, कालाबाज़ारिए एवं अपने मात्र एक बयान से मेरा भाव आसमान पर पहुँचा देने
का दम रखने वाले बयानवीर मुझे मुद्दा बनाकर सरकारें बदलने में भले ही कामयाब हो
जाएँ, मगर आपकी थाली से
मेरा स्थान अंगद के पैर की तरह न कोई हिला पाया है न ही कोई हिला ही पाएगा ! हाँ, मैं आज गरीबों व मध्यमवर्गीय
लोगों की थाली से पूर्ण सूर्यग्रहण के समय लुप्त हुए प्रकाश कि तरह दूर जरूर हुआ हूँ, मगर
मोक्ष होते ही जैसे सूर्य फिर वैसे ही उसी तेज के साथ दमकना शुरू कर देता है, मैं भी कुछ उसी आन बान और शान से वापस लौटूँगा।
भगवान श्रीराम जब भार्या एवं अनुज के साथ
वनवास गए थे तब कंद मूल खाकर भी दिन बिताए थे। मैं भी कंद ही हूँ। मैं लोक जीवन
में भी व्याप्त हूँ। लोकोक्तियाँ और मुहावरे मुझसे भरे पड़े हैं। जैसे जब कोई
व्यक्ति किसी बात की जरूरत से ज्यादा छिछालेदर या अन्वेषण करे तब कहा जाता है कि, “ज्यादा प्याज़ के मत उतारो”। पहले मालवा अंचल में जब शाम को बच्चे
पकड़ापाटी या छुपाछंई खेलते थे और खेल खत्म
होने के बाद जब विसर्जन का समय आता था तब समूह का बड़ा बच्चा मुनादी करने के अंदाज़
में ऐलान करता था –
अपना अपना घरे जाव
कांदा रोटी खाव
नी मिले तो ऊँदरा की पूँछ
काटी काटी ने खाव !
यानी सब बच्चे अब अपने घर जाएँ और प्याज़ रोटी
वाला सर्वसुलभ भोजन करें। और वह भी उपलब्ध न हो तो चूहे की पूँछ काट काट कर खाएँ।
भाषाशास्त्रियों का कहना है कि कहावतें, मुहावरे या लोकोक्तियाँ जीवनानुभव
से ही बने हैं। जाहिर है कि देश में या गावों में कितनी ही गरीबी हो, दो चीजें हर घर में पाई जाती थीं – एक तो प्याज़ और दूसरे चूहे ! हर
व्यक्ति प्याज़ रोटी खाकर सुख चैन की ज़िंदगी बसर कर सकता था
याद करें भारतीय ग्रामीण जीवन और गरीब किसान
की दशा का चित्रण करने वाली मेहबूब खान की कालजयी फिल्म ‘मदर इंडिया’...। खेत पर काम कर रहे राजकुमार
को नर्गिस द्वारा भोजन दिए जाने का सीन। खाने का मीनु क्या है ? प्याज़ और
रोटी...! मेहबूब खान जैसे प्रतिष्ठित फिल्मकार ने मुझे फिल्म में स्थान देकर
गौरवान्वित किया है। गर्मियों में दीन दुखियों की लू उतारने का काम तो मैं सदियों
से करता आया हूँ। कभी कभार कुछ विशिष्ट व्यक्तियों की मेहरबानी ऐसी होती है कि मैं
सरकारों व बड़ों बड़ों की लू उतार दिया करता हूँ। मेरा काम सिर्फ आपकी क्षुधा को
शांत करना और आपके खाने की लज्जत को बढ़ाना है, मगर न जाने
क्यों लोग मुझे मुन्नी की तरह बदनाम करने पर तुले रहते हैं। जब आप मुझे काटने जैसा
हिंसक कार्य करेंगे तो आपको रोना तो पड़ेगा ही। हे मेरे माधो,
घीसू और होरियों ! जिस तरह भगवान राम भी आखिर वनवास खत्म होते ही अयोध्या लौट आए
थे, उसी तरह बाज़ार का यह छद्म युद्ध खत्म होते ही मैं भी
तुम्हारी थाली में लौट आउँगा। आखिर उम्मीद पर ही तो दुनिया टिकी हुई है।
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अनूठी पोस्ट ..
ReplyDeletePS: पता है पोस्ट पर कमेन्ट कम क्यूँ आते हैं...
please remove word verification immediately ..