Wednesday 26 February 2014


             अंगुलिमाल, वाल्मीकि और
              गुण्डा विरोधी अभियान !
                                    ओम वर्मा
                                                      om.varma17@gmail.com
चुनाव सर पर हैं। ऊपर से आदेश हैं कि गुण्डों के खिलाफ़ सख़्त से सख़्त कार्रवाई की जाए। लिहाज़ा हर कहीं गुण्डा विरोधी अभियान की धूम मची हुई है। गुण्डा चाहे छोटा हो या बड़ा, चाहे इस पार्टी का खास हो या उस पार्टी का, चाहे कल का गुमनाम, परसों का बदनाम या आज का नाम वाला ही क्यों न हो ... गर्ज़ यह कि हर कोई खौफजदा है। पुलिस कब किसको पकड़कर उसकी टंटफोर कर दे या कब किसका जुलूस निकालकर नागरिक अभिनंदन करवा दे, खुद नहीं जानती!
     हाँ तो ऐसे ही एक सद्भावना मिशन के तहत एक हाय वोल्टेज अभियान विशेष दर्जा दिए जाने की राजनीति कर रहे उस राज्य में जहाँ के मुख्यमंत्री अब बाक़ायदा सेकुलर घोषित कर दिए गए हैं और जहाँ कट्टे खिलौनों की जगह ले चुके हैं, में भी जारी था। यहाँ पुलिस जिस गुण्डे को पकड़ कर पूजा करती हुई ले जा रही थी वह बार बार स्वयं को बुद्धं शरणं गच्छामि हो जाने की दुहाई दे रहा था। मगर पुलिस रेकॉर्ड में वह अंगुलिमाल नाम का ऐसा डाकू था जो अपने शिकार को न सिर्फ लूटता है बल्कि बाद में हत्या करके उनकी ऊँगलियों की माला बनाकर पहन लेता है। उनके लिए उसका बौद्ध भिक्षु बन जाना बिल्लियों के मूषक भक्षण की सेंचुरी के बाद की जा रही हज़ यात्रा या किसी समुदाय के निर्दोषों के सामूहिक नरसंहार के कई वर्षों बाद मनाए जा रहे क्षमापर्व में कोई फ़र्क़ नहीं था।
     ऐसे ही एक अभियान में एक अन्य राज्य का पुलिस दल अपने पूरे लाव लश्कर के साथ मैदान में था। मुखबिर से खबर मिली थी कि रत्नाकर नाम का एक बदमाश घर में छिपा बैठा है।
    “अबे ओ रत्नाकर... बाहर निकल !” उन्होंने रत्नाकर निवास नामक पर्ण कुटीर के दरवाजे पर प्रहार करते हुए दहाड़ लगाई।
     “आया हुज़ूर...!” राम नाम की माला जपता हुआ शुभ्र केशराशि एवं भगवा वस्त्रधारी अधेड़ प्रकट हुआ।
     “अबे ढोंगी चल अंदर ! शहर में गुण्डा विरोधी अभियान चल रहा है। हम तुझे अंदर करने आए हैं।“ दरोगा जी ने भद्रजनों के बीच इन दिनों प्रयुक्त किए जा रहे कुछ और भी असंसदीय शब्दों का प्रयोग करते हुए कहा।
     “पर राम के बंदों, मैं रत्नाकर हूँ जरूर पर मैंने अब मैंने सारे काले धंधे बंद कर दिए हैं। मैं प्रभु श्रीराम की शरण में चला गया हूँ और उनका चरित्र लिखने में लगा हूँ। मेरा नाम भी रत्नाकर से बदल कर वाल्मीकि हो गया है।“ कल का दस पाँच सांसदों के दम पर सरकार गिराने का दम रखने वाले जैसा कठोर रत्नाकर इस समय सीबीआई के भूत से खौफ खाए मुलायम वाल्मीकि में बदल चुका था।
     “तुझे रामजी की शरण में नहीं, कृष्ण मंदिर में जगह मिलेगी बेट्टा..!” दरोगा जी के एक गणवेशधारी सहयोगी वाल्मीकि...आय मीन रत्नाकर को उचित तरीके से अपने साथ ले जाते हुए बोला। रास्ते भर वाल्मीकि जंजीर फिल्म के शेर खान द्वारा इंस्पेक्टर विजय को सारे काले धंधे बंद कर खुद के रूपांतरण व कायांतरण किए जाने जैसी दुहाई देता रहा...अपने द्वारा संस्कृत में प्रभु श्रीराम पर रचे जा रहे ग्रंथ का हवाला देता रहा। मगर वाल्मीकि की एक न चली। प्रशासन की नज़र में वह रत्नाकर ही था। इधर संकल्प का धनी वाल्मीकि था कि रत्नाकर वाली पर आना नहीं चाहता था।
     लगता है हमें पाप से चाहे घृणा हो न हो पापियों से जरूर है। क्या आज हम किसी रत्नाकर में वाल्मीकि बनने की और किसी अंगुलीमाल में भिक्षुक बनने की लेषमात्र संभावना भी नहीं रख छोड़ना चाहेंगे ?
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Sunday 23 February 2014


व्यंग्य (नईदुनिया, 24.02.14.में प्रकाशित व्यंग्य)
 ओपिनियन पोल यानी हँडिया का एक दाना
                                                  ओम वर्मा
                                                       om.varma17@gmail.com
बिना स्वप्न आधारित या बिना पुरातत्वीय खुदाई के अपनी मातृभूमि को स्वर्णनगरी मेँ बदल देने वाले त्रिलोकपति लेकिन महाअहंकारी दशानन का वध तथा चौदह वर्ष का वनवास काट कर जब प्रभु श्रीराम अयोध्या लौटे तो इतिहास का पहला ओपिनियन पोल उनकी राह देख रहा था ।
     बाहरी व्यक्ति द्वारा अपहृत पत्नी को वापस उचित स्थान दिए जाने का अपराध करने पर हो रही लोकनिंदा व कानाफूसी से रामजी भी तंग आ गए थे! अब चूँकि हर अयोध्यावासी से मिलना तो उनके लिए संभव नहीं था।लिहाजा उन्होंने स्वयं छद्म भेष धारण कर दलित के घर रात गुजारने वाली स्टाइल मेँ एक लॉन्ड्री वाले के यहाँ व कुछ अन्य अड्डों पर कुछ समय व्यतीत कर केजरीवाल स्टाइल में आम नागरिकों की राजा के आचरण पर प्रतिक्रिया जानी। जाहिर है कि त्रेता युग के इस महान  शासक ने किसी संस्था से फिक्स्ड सर्वे करवाने के बजाय स्वयं एक सेंपल सर्वे कर पहले ओपिनियन पोल की विधिवत शुरुआत कर दी थी।
     एक ओपिनियन पोल का उल्लेख मुगलकालीन इतिहास मेँ भी मिलता है जो इससे थोड़ा भिन्न है। हुआ यूँ कि एक दिन बादशाह अकबर भरवां बैंगन की शानदार सब्जी खाकर मस्त हो गए थे और उसका स्वाद मुँह मेँ देर तक बना रहा। सभासदों के बीच मेँ उन्होंने सबसे पहले इसका जिक्र किया तो बीरबल ने तुरंत राजनीति के अनुशासित सिपाही की तरह बयान जारी किया, “हुज़ूर बैंगन तो सब्जियों का राजा है। उसका रंग शानदार, सर पर बादशाहों जैसा ताज! जहांपनाह का हुक्म हो तो बैंगन को राजकीय सब्जी घोषित कर दिया जाए!”
     बैंगन को राजकीय सब्जी घोषित करने की प्रक्रिया चल ही रही थी कि एक दिन बादशाह अकबर ने फिर वही मसालेदार सब्जी और ज्यादा खा ली। उन दिनों वहाँ न तो कोई जयराम रमेश थे और न कोई नरेंद्र मोदी, तब भी उन्हें शौचालय की महत्ता समझ मेँ आ गई। अगले दिन उन्होंने दरबार मेँ बैंगन की सब्जी को कोसते हुए जैसे ही अपनी हालत के बारे मेँ बताया कि चतुर सुजान बीरबल ने तुरंत अमेरिका द्वारा नरेंद्र मोदी के बारे मेँ बदली गई राय की तरह बैंगन के बारे मेँ अपनी राय बदली, जी आलमपनाह! बैंगन भी कोई सब्जी है...काला कलूटा ...सिर पर काँटों भरा ताज...कोई गोल तो कोई लंबा...! मेरी मानें तो हुज़ूर इसकी खेती पर ही पाबंदी लगा दें ताकि कल कोई इसमें नस्लीय बदलाव (जेनेटिक माडिफिकेशन) न कर सके।“
      प्रभु श्रीराम चक्रवर्ती सम्राट व कानूनी तौर पर एक राज्य के राजा थे। राजतंत्र मेँ भी उन्हें ओपिनियन पोल जैसी लोकतांत्रिक व्यवस्था मेँ विश्वास था। मगर इधर लोकतंत्र मेँ दस वर्षों से सत्ता सुख भोग रहे मित्रों को वर्तमान ओपिनियन पोल फूटी आँख नहीं सुहा रहे हैं। वे कभी ओपिनियन पोल को  कूड़ेदान में फेंकने लायक बता देते हैं तो कभी मात्र हजार - दो हजार लोगों की राय बताकर खारिज कर देते हैं। शायद वे लोकतंत्र के चौथे स्तंभ द्वारा करवाए गए ओपिनियन पोल की जगह बीरबल द्वारा बादशाह की स्तुति जैसा राजतंत्री ओपिनियन पोल चाहते हैं। वे शायद यह भूल रहे हैं  कि बैंगन प्रकरण मेँ अपनी नीति परिवर्तन पर बीरबल ने बादशाह सलामत को डिप्लोमेटिक जवाब देते हुए यह भी तो कहा था कि हुज़ूर गुलाम नमक आपका खाता है न कि बैंगन का! आज के बादशाहों को अब कौन समझाए कि जनता तो अपनी ही गाढ़ी कमाई से खरीदा नमक खा रही है!
     क्या आज के हुक्मरान यह भूल गए कि बचपन में जब घर में प्रेशर कुकर की सीटी नहीं बजती थी तब मांएं चावल का सिर्फ एक दाना देख कर मालूम कर लिया करती थीं कि हँडिया के बाकी दानों का क्या मिजाज़ है।

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100, रामनगर एक्सटेंशन, देवास 455001 (म॰प्र॰)
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Thursday 20 February 2014



 व्यंग्य
         जरूरत है एक बज़टावतार की !
                                     ओम वर्मा            
                                        om.varma17@gmail.com
भारतीय अर्थ-व्यवस्था के फ़लक पर एक बिंदु है सरकारी बज़ट। दूसरा बिंदु है आम आदमी। और तीसरा लास्ट बट नॉट द लीस्ट तथा अति विशिष्ट बिंदु है – वित्त मंत्री। भारतीय अर्थ व्यवस्था के फ़लक पर इन तीन बिन्दुओं के मिलन से जो रचना बनती है और वह है- घाटे का त्रिकोण। और इनके आंतरिक कोणों का योग कभी भी लाभ और समृद्धि के दो समकोणों के योग की बराबरी नहीं कर पाया है।
     हाँ, यह बजट का सत्र यदि किसी के लिए खुशगवार साबित होता है तो वे हैं हमारे त्वरित टिप्पणी विशेषज्ञ, कार्टूनिस्ट, और टीवी चैनलों के सूत्रधार! और यदि कोई त्रिशंकु बन कर रह जाता है तो वह है हमारे प्रेमचंद का होरी और हमारे शिवपालगंज का शनीचर! हमारे यहाँ जन्में अर्थशास्त्री विदेशी छात्रों के लिए किताबें लिख सकते हैं, सालों तक रिज़र्व बैंक सम्हालने से लेकर लाल किले पर झण्डा फहराने का काम कर सकते हैं, तीस-बत्तीस रु. रोज में गरीबों को सुख से रहने का फरमान जारी कर सकते हैं, लेकिन बजट का घाटा कभी पूरा नहीं कर सके। होरी के सर पर कर्ज़ कल भी था तो आज भी है... लंगड़ फैसले की नकल के लिए कल भी अदालतों के चक्कर लगाता था और आज भी लगाता है। उधर शिवाजी पार्क में नानी पालखीवाला का बजट पर भाषण सुनने के लिए साल दर साल ज्यों ज्यों भीड़ बढ़ती गई थी  त्यों त्यों बजट का घाटा और अमीरी गरीबी का फासला बढ़ता गया था।  
     जिस प्रकार मंचीय चुटकुलेबाजी, तुकबंदी और ज़ुल्फों के पेचो-खम के वर्णन में उम्र गुजार देने वाले कवियों को समकालीन कविता और सिर्फ सुंदरियों के चित्र बनाने वाले को एक अमूर्त चित्र कभी समझ में नहीं आता, उसी प्रकार अपने राम को भी वित्तमंत्रियों का बजट भाषण आज तक कभी समझ में नहीं आया। मैंने एक त्वरित टिप्पणीकार अर्थशास्त्री से पूछा, “बजट आपकी राय में कैसा है?”
     प्रतिक्रिया उनके मुखारविंद से इस्तीफा देने को उद्यत केजरीवाल की तरह तैयार बैठी थी। वे बोले, “बजट में डेफ़िसिट इतने से इतने परसेंट हो गया है, इससे इतने परसेंट इंफ्लेशन होगा और विकास की दर इतनी हो जाएगी... सेंसेक्स इतना गिर जाएगा...एनआरआई अपना निवेश...”
     “शास्त्रीजी, आप सिर्फ यह बताइए कि इससे महँगाई और आम आदमी की जेब पर क्या फर्क पड़ेगा?” मैं अर्नब गोस्वामी का कांग्रेस उपाध्यक्ष से लिए गए अद्भुत इंटरव्यू की तरह सामने वाले की बालू में से तेल निकालने का प्रयास करने लगा।
     “यह बजट थोड़ा अच्छा है और थोड़ा खराब!” एक डिप्लोमेटिक जवाब प्राप्त हुआ।
     “एक बात कुछ बोलिए, अच्छा है या खराब?” मैंने चील के घोसले में माँस तलाशना चाहा।
     “यार हम इतने सालों से त्वरित टिप्पणी कर रहे हैं, पर हमारी खुद समझ में नहीं आया कि हम बजट की तारीफ कर रहे हैं या आलोचना…”, चश्मा चढ़ाते हुए वे बोले, “आज तुम्हें क्या समझाएँ? चलो हटो! मुझे बजट पर परिचर्चा में भाग लेने के लिए स्टुडियो जाना है।“
     तो आखिर बजट कैसा है? मैंने सड़क किनारे गड्ढा खोद रहे एक आदिवासी मजदूर से पूछा, “क्यों मामा, सरकार ने मोबाइल और शिक्षा ऋण के ब्याज पर छूट दी है बीड़ी सिगरेट पर टैक्स नहीं बढ़ाए हैं ...”
     “तमारी बात म्हारे कांई समझ में नी आवे, ठेकेदार से पूछी लो...” उसने आधी पीकर पहले बुझाई जा चुकी बीड़ी फिर से सुलगाई और अपने स्मार्ट फोन पर एफएम पर गाना सुनने लगा। मुझे बजट पर एक भी प्रतिक्रिया तीसरे मोर्चे की रीति - नीति से कोई कम उलझी हुई नहीं लगी।
     संकट हल नहीं हुआ तो मन बैरागी हो उठा और प्रभु स्मरण कर बैठा। हे दीनबंधु! हे दीनानाथ!! जैसे तुमने रावण को मारने के लिए अवतार लिया, जैसे कंस का सँहार किया, वैसे ही गरीब जनता के लिए एक बार वित्तमंत्री का बजटावतार ले लो प्रभु! अब गीता वाला वचन निभाने का समय आ ही गया समझो !
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100, रामनगर एक्सटेंशन, देवास 455001        

Sunday 9 February 2014


व्यंग्य (जनसत्ता, 09.02.14)       
         ज़हर – तब और अब
                    ओम वर्मा
                      
om.varma17@gmail.com     
सृष्टि में अगर अंधेरा नहीं होता तो प्रकाश भी नहीं होता। दरअसल रोशनी को मान्यता मिली ही इसलिए है कि हमें पहले अंधियारे का बोध हो चुका है। और अंधियारे का खौफ़ या बदनामी होती ही इसलिए है कि हम प्रकाश का महत्व जानते हैं या रोशनी के दौर से गुजर चुके होते हैं। इसी तरह दुनिया में अगर ज़हर नहीं होता तो शायद अमृत भी नहीं होता। यानी ज़हर की पहचान अमृत के होने से और अमृत की सारी झाँकी, औकात या वीआयपीपना ज़हर के होने से ही है।
     सत्ता संघर्ष में यही पहचान और अस्तित्व का झंझट ज़हर को बार बार चर्चा के केंद्र में ले आता है। ज़हर का जिक्र हर सभा में इन दिनों इतना प्रासंगिक हो गया है कि ज़हर ज़हर न हुआ मानों अमृत हो गया हो। समुद्र मंथन से प्राप्त अमृत को चंद्रमा पर पहुँचाकर तब के एलीट वर्ग (श्रेष्ठजनों) ने उसे अप्राप्य भले ही बना दिया हो मगर हमारे चंद्र अभियान उसकी खोज में आज भी लगे हुए हैं। नील आर्मस्ट्रांग भी चंद्रमा से लौटे तो उनके हाथ में महज़ दो मुट्ठी भूरी भूरी खाक़ धूल ही थी, अमृत का घड़ा नहीं। वर्ना उन्हें क्या जल्दी या क्या जरूरत थी इस नश्वर संसार से कूच करने की! जाहिर है कि अमृत किसी यूटोपियाई समाज की वह वस्तु है जो आज तक अप्राप्य है। यह वह भाववाचक संज्ञा है जिस पर विमर्श करके उसे राजनीति के बाज़ार में ब्लू चिप शेअर की तरह भुनाया नहीं जा सकता।  
    मगर ज़हर की बात और है। जब यह देवों की संगत में आता है तो उन्हें भी महादेव बना देता है। किसी सुपात्र प्राणी के फन में जब यह स्थान ग्रहण करता है तो वह त्रिलोकपति का कंठहार बन जाता है। वास्तविक ज़हर किसमें और कहाँ होता है यह एक आम आदमी तो खैर बिलकुल नहीं समझता इसलिए उसे रस्सी भी दिख जाए तो वह या तो डर जाता है या किसी को उसकी सुपारी दे आता है। और आज यह समझना मुश्किल है कि इनके आरोपों में ज्यादा ज़हर है या उनके जवाबों में।     वैसे ज़हर हर युग में सत्ता संघर्ष का एक उपकरण और कभी कभी सियासी जंग का एक गुप्त हथियार भी रहा है। हर युग में उसकी अलग अलग भूमिका रही है। कभी किसी दार्शनिक को कट्टरपंथियों का विरोध करने के कारण इसे ग्रहण करना पड़ा तो कभी यह किसी जोगन को परम पद पाने का प्रसाद भी बना। जब सौ कौरव और एक शकुनि मामा, यानी पूरे एक सौ एक लोग मिलकर भीम के बल का मुक़ाबला नहीं कर सके तो उन्हें उसे मारने के लिए ज़हर का सहारा लेना पड़ा। मगर यही ज़हर इन दिनों इतना हैरान परेशान है कि अगर उसका बस चले तो स्वयं ज़हर खाकर मर जाए। अभी कुछ साल पहले तक जो माँ बच्चों को गब्बर के नाम से डराया करती थी, वह आज ज़हर के नाम से डराने लगी है। बेटा कुछ ऐसा डर रहा है कि उसे अब हर सवाल में ज़हर की गंध महसूस होने लगती है। शायद इसी वज़ह से किसी भी सवाल पर उसकी सुई एक ही जवाब पर अटकने लगती है। ज़हर की खेती की जा सकती है या नहीं या 84 में काटी गई फसल और 02 में काटी गई फसल में से किसका ज़हर अधिक घातक या अधिक लाभदायक था यह जनता तय करे इससे पूर्व ही एक पक्ष दूसरे पक्ष को ज़हर को एंटीवीनम (ant venom) में बदल कर भुनाने की सुविधा मुफ्त उपहार में तो दे ही रहा है। हर ज़हर की तासीर अलग अलग हुआ करती है जनाब! सुना है कि ज़हर ही ज़हर को मारता है। अब कौन सा ज़हर किसको काटता या मारता है और सत्ता का पूरी तरह से ज़हरीकरण होता है या ज़हर का सत्ताईकरण  ...   यही आने वाले चंद दिनों में देखेंगे हम लोग!        ***
100, रामनगर एक्सटेंशन, देवास 455001 (म.प्र.)