Sunday 9 February 2014


व्यंग्य (जनसत्ता, 09.02.14)       
         ज़हर – तब और अब
                    ओम वर्मा
                      
om.varma17@gmail.com     
सृष्टि में अगर अंधेरा नहीं होता तो प्रकाश भी नहीं होता। दरअसल रोशनी को मान्यता मिली ही इसलिए है कि हमें पहले अंधियारे का बोध हो चुका है। और अंधियारे का खौफ़ या बदनामी होती ही इसलिए है कि हम प्रकाश का महत्व जानते हैं या रोशनी के दौर से गुजर चुके होते हैं। इसी तरह दुनिया में अगर ज़हर नहीं होता तो शायद अमृत भी नहीं होता। यानी ज़हर की पहचान अमृत के होने से और अमृत की सारी झाँकी, औकात या वीआयपीपना ज़हर के होने से ही है।
     सत्ता संघर्ष में यही पहचान और अस्तित्व का झंझट ज़हर को बार बार चर्चा के केंद्र में ले आता है। ज़हर का जिक्र हर सभा में इन दिनों इतना प्रासंगिक हो गया है कि ज़हर ज़हर न हुआ मानों अमृत हो गया हो। समुद्र मंथन से प्राप्त अमृत को चंद्रमा पर पहुँचाकर तब के एलीट वर्ग (श्रेष्ठजनों) ने उसे अप्राप्य भले ही बना दिया हो मगर हमारे चंद्र अभियान उसकी खोज में आज भी लगे हुए हैं। नील आर्मस्ट्रांग भी चंद्रमा से लौटे तो उनके हाथ में महज़ दो मुट्ठी भूरी भूरी खाक़ धूल ही थी, अमृत का घड़ा नहीं। वर्ना उन्हें क्या जल्दी या क्या जरूरत थी इस नश्वर संसार से कूच करने की! जाहिर है कि अमृत किसी यूटोपियाई समाज की वह वस्तु है जो आज तक अप्राप्य है। यह वह भाववाचक संज्ञा है जिस पर विमर्श करके उसे राजनीति के बाज़ार में ब्लू चिप शेअर की तरह भुनाया नहीं जा सकता।  
    मगर ज़हर की बात और है। जब यह देवों की संगत में आता है तो उन्हें भी महादेव बना देता है। किसी सुपात्र प्राणी के फन में जब यह स्थान ग्रहण करता है तो वह त्रिलोकपति का कंठहार बन जाता है। वास्तविक ज़हर किसमें और कहाँ होता है यह एक आम आदमी तो खैर बिलकुल नहीं समझता इसलिए उसे रस्सी भी दिख जाए तो वह या तो डर जाता है या किसी को उसकी सुपारी दे आता है। और आज यह समझना मुश्किल है कि इनके आरोपों में ज्यादा ज़हर है या उनके जवाबों में।     वैसे ज़हर हर युग में सत्ता संघर्ष का एक उपकरण और कभी कभी सियासी जंग का एक गुप्त हथियार भी रहा है। हर युग में उसकी अलग अलग भूमिका रही है। कभी किसी दार्शनिक को कट्टरपंथियों का विरोध करने के कारण इसे ग्रहण करना पड़ा तो कभी यह किसी जोगन को परम पद पाने का प्रसाद भी बना। जब सौ कौरव और एक शकुनि मामा, यानी पूरे एक सौ एक लोग मिलकर भीम के बल का मुक़ाबला नहीं कर सके तो उन्हें उसे मारने के लिए ज़हर का सहारा लेना पड़ा। मगर यही ज़हर इन दिनों इतना हैरान परेशान है कि अगर उसका बस चले तो स्वयं ज़हर खाकर मर जाए। अभी कुछ साल पहले तक जो माँ बच्चों को गब्बर के नाम से डराया करती थी, वह आज ज़हर के नाम से डराने लगी है। बेटा कुछ ऐसा डर रहा है कि उसे अब हर सवाल में ज़हर की गंध महसूस होने लगती है। शायद इसी वज़ह से किसी भी सवाल पर उसकी सुई एक ही जवाब पर अटकने लगती है। ज़हर की खेती की जा सकती है या नहीं या 84 में काटी गई फसल और 02 में काटी गई फसल में से किसका ज़हर अधिक घातक या अधिक लाभदायक था यह जनता तय करे इससे पूर्व ही एक पक्ष दूसरे पक्ष को ज़हर को एंटीवीनम (ant venom) में बदल कर भुनाने की सुविधा मुफ्त उपहार में तो दे ही रहा है। हर ज़हर की तासीर अलग अलग हुआ करती है जनाब! सुना है कि ज़हर ही ज़हर को मारता है। अब कौन सा ज़हर किसको काटता या मारता है और सत्ता का पूरी तरह से ज़हरीकरण होता है या ज़हर का सत्ताईकरण  ...   यही आने वाले चंद दिनों में देखेंगे हम लोग!        ***
100, रामनगर एक्सटेंशन, देवास 455001 (म.प्र.)

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