Friday 20 July 2018

सुबह सवेरे व दैनिक ट्रिब्यून 20.07.18 में प्रकाशित व्यंग्य

व्यंग्य


          हर किसी में नहीं होता सिर में गंगा समा लेने का हुनर 


                                                                                                          ओम वर्मा

कोई माने या न माने, इसे जाहिर होने दे या न होने दे, मगर मुझे पक्का यकीन है कि यहाँ हर शख्स का जीवन में विष से कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में वास्ता अवश्य पड़ता है। आज अधिकांश लोग प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जहर पीने के लिए मजबूर हैं क्योंकि कुछ लोग उसे उगलने का कोई अवसर हाथ से नहीं जाने देते!
    
     सैकड़ों, हज़ारों या शायद लाखों वर्ष पूर्व जब समुद्र मंथन से विष उपजा था तो उस समय के प्रशासकों या प्रबंधकों के सामने भी उसके निपटान को लेकर वही चिंता या समस्या रही होगी जो वर्तमान दिल्ली सरकार के सामने कूड़े के ढेर को लेकर है या कभी भोपाल गैस त्रासदी के बाद यूनियन कार्बाइड के परिसर में वर्षों तक पड़े रहे रेडियोधर्मी कूड़े के कारण मध्यप्रदेश सरकार को रही थी। मगर न तो तब ‘एलजी-सीएम विवाद’ जैसा कोई लोचा था और न ही उक्त घातक पदार्थ के लिए जिम्मेदार किसी एंडरसन के भाग जाने या भगा दिए जाने जैसे और 'बोफ़ोर्स’ (Bofors) काण्ड की तरह सत्ता की चूलें हिला देने वाले किसी महाघोटाले के घटित होने की संभावना थी। लिहाजा विष के निपटान का प्रकरण देवों के देव महादेव ने बिना हील - हुज्जत या बिना किसी प्रतिदान की अपेक्षा के उसे स्वयं अपने कण्ठ में धारण कर हमेशा हमेशा के लिए शांत कर दिया था। 'यह विष हमारे समय का नहीं है, पिछली सरकार के समय का या पिछले युग का है’ या 'समुद्र मंथन से उपजे अमृत पर पहला हक़ किसी समुदाय विशेष का है’ या राहु और केतु द्वारा छलपूर्ण तरीके से अमृतपान कर लिए जाने पर 'बच्चों से ग़लतियाँ हो जाती हैं’ टाइप की बात कहने का तब चलन शुरू नहीं हुआ था इसलिए मामला कुछ टीवी चैनलों पर कई कई साल तक खींचें जाने वाले धारावाहिकों की तरह लंबा नहीं खिंचा और मंथन के सभी अमूल्य उत्पाद सभी सुपात्रों को डिलीवर हो गए। रहा सवाल विष का तो उसे धारण कर महादेव आज भी कैलाश पर्वत पर विराजमान हैं। विष आज भी अपने सनातन स्वरूप में यानी 'एज़ इट इज़’ वाली स्थिति में है। इस   क्रांँतिकारी घटना को जिन्होंने सही परिप्रेक्ष्य में  समझा वे दीन-दुनिया की बुराइयों के गरल को पीकर बाहर न निकालने की कला खुद तो सीखे ही और औरों को भी सिखाने में लगे हैं। आज भले ही इनकी संख्या कम है, कल बढ़ना भी तय है!

     बहरहाल घोर कलियुग में जनता जो कि सर्वोपरि होती है, द्वारा पूरी तरह नकार दिए जाने के बावजूद भी कोई व्यक्ति या दल स्वयं को  पराजित करने वाले दल के साथ सरकार बनाकर खुद को 'एक कण्ठ  विषपायी’ घोषित कर सिर में गंगा समा लेने का हुनर सीखने के बजाय आँखो से गंगा जमुना बहाने लगे तो वह गरलपान करने वाला शंकर नहीं बल्कि गरलपात्र में जा गिरा कंकर बनकर रह जाता है! सुपात्रों के लिए अमृत छोड़कर किसी और का अहित न हो इसलिए गरलपान करने और सत्ता के अमृत को स्वयं प्राप्त करने के लिए किए गए गरलपान में कुछ तो अंतर है साहेब! 

     काश् वे समझ सकते कि सत्ता के जामुन खाकर कण्ठ नीला कर लेने भर से कोई नीलकण्ठ या नीलकण्ठेश्वर नहीं बन जाता!

     
                                          ***
100, रामनगर एक्सटेंशन देवास 455001  

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