Sunday 5 August 2018

व्यंग्य - कथा एक सियासी ज्ञापन की ( सुबह सवेरे, 31.07.18 )

व्यंग्य
                           कथा एक सियासी ज्ञापन की  
                                                                                                         ओम वर्मा
प्रदेश की जनता के विवेक पर शायद उनका अब विश्वास नहीं रहा। वे यह भूल गए कि अपनी सरकार चुनना जनता का वह विशेषाधिकार है जिसमें हस्तक्षेप करने का अधिकार स्वयं ईश्वर ने भी अपने पास नहीं रखा है। लोकतंत्र में कोई तीन बार जीते या चार बार, खेल के नियम सबको पता हैं और खेल का जहाँ तक सवाल है,वह सभी के लिए खुला है।
     वह कोई देवालय हो या इबादतगाह, अपने अनुयायियों के लिए वहाँ की व्यवस्था के अनुसार ये सभी स्थान उपलब्ध हैं ही, मगर यह भी सच है कि भोले बाबा जो चाहे कहीं विश्वनाथ हों, कहीं सोमनाथ हों या फिर कहीं महाकाल हों, उनके पास अधिकतर याचनाएँ कुँवारी कन्याओं द्वारा योग्य वर के अलॉट किए जाने संबंधी ही होती हैं। फिर कुछ इक्का-दुक्का लोग ऐसे भी पाए जाते हैं जो “सर्वे भवन्तु सुखिनः ...” यानी दूसरों के कल्याण के लिए भी प्रार्थना कर लिया करते हैं। लेकिन आम-चुनाव की लोकतांत्रिक प्रक्रिया को प्रभावित करने के लिए किसी राज्य के मतदाता की मनःस्थिति बदले जाने की प्रार्थना उनके सामने पहली बार आई है। एकअजब संयोग यह भी है कि प्रार्थनापत्र जिस भक्त ने पेश किया है उसका नाम वही है जिसके नाम के चुनाव-चिह्न वाले दूसरे भक्त का पटिया वह उलाल देखना चाहता है। दूसरी विडंबना यह भी है कि याचक के आवेदन में लक्षित व्यक्ति के नाम और जिस प्रभु के दरबार में याचिका दाखिल की गई है, उनके नाम में भी समानता है। और फिर जिसके नाम में राज भी लगा हो तो उसके खिलाफ कैलाश पर्वत से कोई आदेश निकलवाना हो तो जरा कुछ सकारात्मक मैदानी कार्रवाई ही काम आ सकती है अन्यथा ज्ञापन में कही गई बात को शायद चुनावी पैंतरा ही मानकर खारिज कर दिया जाएगा।

     इस पूरी स्टोरी में एक पेंच यह भी है कि जिस दल के सिपहसालार ने महाकाल के दरबार में यह याचिका लगाई है उस दल ने कभी बाकायदा हलफनामा देकर प्रभु श्रीराम के अस्तित्व को ही नकार दिया था। इधर प्रभु श्रीराम और भगवान शंकर तो एक दूसरे के भक्त हैं। तो लाख टके का सवाल यह पैदा होता है कि एक भगवान के अस्तित्व को नकारने और दूसरे को  मतदाताओं का ब्रेनवाशिंग करने का ज्ञापन देने वाले इन भक्तों के पास क्या सत्ता के साध्य को प्राप्त करने के लिए कोई और साधन अब नहीं बचा? मंदिर में ज्ञापन देने को लेकर यदि किसी दूसरे समुदाय द्वारा आपत्ति उठाई जाए या उन पर एक समुदाय विशेष की पार्टी होने का आरोप लग जाए तो क्या उन्हें दूसरे समुदाय से माफी माँगना पड़ेगी? महाकाल के दरबार में ज्ञापन देकर शैव लोगों को तो खुश कर लिया, वैष्णव और शाक्त वालों के लिए क्या करोगे? और अगर ज्योतिर्लिंग ही जाना था तो एक पर ही क्यों गए, बाकी ग्यारह क्यों छोड़े? और क्या अन्य समुदायों के धार्मिक स्थलों पर भी उनकी इस तरह के ज्ञापन देने की कोई योजना है?

     सोचने वाली बात यह है कि बाबा महाकाल अगर ज्ञापन देने वाले भक्तों की प्रार्थना सुनेंगे तो उन्हें उनकी भी पुकार सुननी पड़ेगी जो तमाम सारे मंदिरों से आपसे पहले से जाते आए हैं। अब दोनों पक्षों की प्रार्थनाएँ अगर एकसाथ सुन लीं तो सारी माँगें आपस में इतनी विरोधाभासी हैं कि अगर प्रभु सबकी माँग पूरी करना चाहें तो उन्हें शायद तीसरा नेत्र भी खोलना पड़ सकता है। जो कल, आज और आने वाले कल की भी खबर रखते हैं उन्होंने अगर तीसरे नेत्र का उपयोग कर लिया तो सारी बंद फाइलें अपने आप खुलकर बोलने लगेंगी और सारे ठण्डे बस्ते गर्म होकर आग उगलने लगेंगे।

     हे कलयुगी भक्तों! सत्ता की लड़ाई मृत्युलोक में ही ठीक है, इसे परलोक तक न ही पहुँचाएँ तो अच्छा है।
                                                  ***
100, रामनगर एक्सटेंशन, देवास 455001

No comments:

Post a Comment