Saturday, 4 June 2011

व्यंग्य ,पत्रिका (04 .06 .2011 )

मुंबई के मच्छर
बेहद परेशान हैं इन दिनों मुंबई के मच्छर !

           प्रेस व मीडिया को बार-बार सफाई देते फिर रहे हैं बेचारे | मुंबई  के  कुछ बड़े लोगों के अनुसार वहाँ मलेरिया बाहरी लोग, खासकर उत्तर- भारतीयों के कारण फेल  रहा है | यानी वहाँ के मच्छर 'काटने' में भेदभाव कर रहे हैं | जब उन्हें यकीन हो जाता है कि 'टार्गेट' मुंबईकर ही है तब ही वे उसे काटते हैं | परिणाम यह कि मलेरिया यदि होता है तो सिर्फ मुंबईकर को ही, बाहरी व्यक्ति को नहीं |
          ''मच्छर भाऊ! मैं तुमसे हिंदी में कुछ बात करूँ  तो तुम्हे कोई आपत्ति तो नहीं?'' गेटवे ऑफ़ इंडिया पर टहल रहे एक मच्छर से मैंने पूछा|
           ''भाषा तो आपने बनाई  है यजमान, हमने नहीं | आप जैसे चाहें बोलें | परजीवी कि क्या औकात जो अपनी भाषा होस्ट पर थोप  सके |''
          मच्छर परजीवी है व मनुष्य होस्ट | लिहाज़ा उसने मुझे यजमान कहकर  'होस्ट-पेरासाइट  रिलेशनशिप ' को गौरवान्वित किया और  भाषा का विकल्प अपने अन्नदाता पर छोड़ दिया|

          ''हाँ तो मैं जानना चाहता हूँ कि आपकी  वजह  से   सिर्फ मुंबई वालो को ही  मलेरिया क्यों होता है, या सिर्फ बाहरी लोगों द्वारा फैलाई जा रही गंदगी पर ही क्यों बसते-पलते हो ?''
          मच्छर भाई तिलमिला उठे |  "साहेब! जब से हम दुनिया में आए हैं तब से लेकर आज तक हम पर ऐसा घिनोना आरोप किसी ने नहीं लगाया कि हम भेदभाव करते हैं | चौबीस घंटो में हम आपसे एक-दो बूँद खून ही तो मांगते हैं | हमारा तो एक-सूत्री कार्यक्रम ही है 'तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें  मलेरिया दूंगा!" इतना कहकर वह कुछ पल रुका| फिर उड़ता हुआ एक भारतीय पर्यटक के पास गया, उसे काटा, लौटकर फिर मुझसे मुखातिब हुआ, "यह नारा हम हर नागरिक के आगे दोहराते हैं..., चाहे वह एनडीए का हो या यूपीए का, करूणानिधि का हो या जयललिता का, माओवादी हो या लोहियावादी, वाईब्रेंट गुजरात का हो या 'अविकसित'  बिहार का, धधकते कश्मीर का हो या शांत पड़े मध्यप्रदेश का !''
         मैं मच्छर की बुद्धिमत्ता पर चकित था| उसे प्रकृति ने जैसा बनाया वैसा ही आचरण कर रहा था | मच्छर चाहे महाराष्ट्र का हो या बिहार का, वह सिर्फ  'भिन...भिन...भिन' की ही भाषा जानता है | लिहाज़ा उसके इलाके में भाषाई विवाद का प्रश्न ही नहीं उत्पन्न होता | दो बूँद मानव रक्त यानी  उसके लिए 'दो बूँद ज़िन्दगी की'...! किसी मुग़ल सम्राट के बारे में मैंने पढ़ा था कि वह मलेरिया, यानी मच्छर की मेहरबानी से ही इस फ़ानी दुनिया से कूच कर गया था | सारे साक्ष्य यह चीख-चीखकर कह रहे थे कि उसका शिकार चाहे मराठी-मानुस हो या बिहारी-मिसिरवा, उसने सबको समभाव से देखा है| जो दंश का प्रतिरोध कर गया वह बच गया, जो नहीं कर पाया वह 'क्विट' कर
गया |
        मच्छर तो भैया कल भी थे, आज भी हैं...और कल भी रहेंगे | कोई भी गान्धर्व या किन्नर उनकी सत्ता को चुनौती नहीं दे पाया है | वे देशकाल की सीमा से परे हैं |