Sunday 11 April 2021

व्यंग्य - हाथी चले बाजार...! (एक स्वर में श्वान!) अमर उजाला 11.04.2021

 


व्यंग्य

              हाथी चले बाज़ार…!

 

                                           ओम वर्मा

स दिन गजराज फिर घूमने निकले। चाल ऐसी कि अपनी मिसाल गजराज ख़ुद आप कहलाएँ। पूरी तरह से अनुशासित। और उनके अनुशासित रहने का एकमात्र कारण था ऊपर वाले का ‘अंकुश’ जो उन्हें सहर्ष स्वीकार भी था।

 

     उस दिन मैंने जब गजराज को जाते देखा तो पाया कि वे अकेले तो अपनी  मस्त चाल से चले जा रहे हैंमगर पीछे वो सब आवारा कुत्ते जो मुहल्ले में बढ़ती जा रही चोरियों के बावजूद भी अपने कर्तव्य का निर्वहन नहीं कर सके थेइस समय गजराज के पीछे-पीछे ‘बाआवाज़े-बुलंद’ अपना विरोध दर्ज़ करवा रहे थे। ज्यों ज्यों गजराज आगे बढ़ते जाते थेत्यों त्यों उनके ‘स्वागत’ में पीछे चल पड़े पहले  श्वान की स्थिति “मैं अकेला ही चला था गजराज के पीछे मगरऔर श्वान आते गएकारवाँ बनता गया...” वाली होती चली गई।

 

     वैसे हम बाप-दादा के ज़माने से हाथी चले बाज़ारकुत्ते भौंके हज़ार’ की सूक्ति सुनते आए हैं इसलिए यह तो मानना ही पड़ेगा कि इस विशाल प्राणी का मुक्त विचरण कुत्तों के समुदाय को कभी पसंद नहीं आया।

 

     “कोई हाथी जब बाज़ार में निकलता है तो ये सारे कुत्ते एक स्वर में उसे क्या कहना चाहते हैं?” मैंने अपने परम मित्र श्री बी.लाल जी से पूछा। बी.लाल जी का पूरा नाम लाल बुझक्कड़ था मगर वे खुद को बी.लाल कहलाना पसंद करते थे। उनके पास हर बात का जवाब होता था। यहाँ तक कि वे प्राणियों की भाषा समझने का दावा भी करते हैं। कुत्तों के इस वृंदगान को उन्होंने कुछ यों डिकोड किया-सब एक स्वर में कह रहे हैं कि   गजराज बाहरी है! गजराज बाहर जाओ!”        

 

     "हाथी बाहरी कैसे हो सकता हैयह तो भारतीय नस्ल का ही हैकोई अफ़्रीकन नस्ल का थोड़ी है। फिर हम तो 'सबै भूमि गोपाल कीऔर 'वसुधैव कुटुंबकम्के सिद्धांत की बात करते आए हैं!"              

 

     ऐसा भी नहीं है कि इन श्वानों को कोई रोक ही नहीं रहा  था। कुछ बड़े लोग 'हट! चल हट!कहकर तो कुछ शैतान बच्चे उन्हें पत्थर मार-मार कर रोकने का प्रयास कर रहे थे। मगर न तो उन पर डाँट का कोई असर हो रहा था और न ही पथराव का। यानी 'बाहरीको लेकर वे इतने ख़ौफ़ज़दा थे कि उन्हें पत्थरों का कोई ख़ौफ़ नहीं रह गया था। मजे की बात यह है कि इनमें से हर कुत्ता अपनी गली में ही शेर था। दूसरी गली में अगर कोई ग़लती से चला भी गया तो पिटकर ही आता था। और आज आपस में कोई नहीं लड़ रहा था। आज सारे कुत्तों का एक 'कॉमन मिनिमम प्रोग्रामतय था और वह था 'बाहरी गजराज का विरोध'

 

    उधर गजराज ने साबित कर दिया कि उसके नाम में 'राजऐसे ही नहीं लगाया जाता है। उन्होंने आज तक कभी पलटकर नहीं देखा कि भौंकने वाले ये प्राणी कौन  या कितने हैं। हाथियों का उन्मुक्त विचरण यथावत जारी है। लेकिन हर बार होता यह है कि गजराज का दौरा निर्विवाद रूप से संपन्न हो जाता है और सारे कुत्ते भौंक भौंक कर इतने हलकान हो जाते हैं कि बाद में उनमें न तो आपस में लड़ने की क़ूवत बचती है और न ही किसी चोरयानी वास्तविक 'बाहरीको खदेड़ने का दम।

 

     मुझे विश्वास है कि जिस दिन ये कुत्ते गजराज का 'बाहरीकहकर विरोध करना बंद कर देंगेउस दिन से ये भी कुत्ते नहीं, 'श्वानराजकहे जाएँगे।

                                                 ***

                                                                          

Saturday 10 April 2021

व्यंग्य - खेल और सियासी खेला (नईदुनिया , 11.04.2021)


व्यंग्य


                                       खेल और सियासी खेला

खेल और खेला। अभिधा की दृष्टि से भले ही इनमें एक मात्रा भर का अंतर हो, लेकिन लक्षणा में यही अंतर एक मात्रा का न रहकर बहुत अधिक मात्रा में देखा जा सकता है। वैसे तो हर भाषा का अपना सौंदर्य होता है। इस कारण कुछ शब्द ऐसे भी होते हैं जो जिन अर्थों में अपनी मूल भाषा में प्रयुक्त होते हैं, दूसरी भाषा में जाने पर वे अपने मूल भाषाई अर्थ से या तो और अधिक अर्थवान हो जाते हैं या उनका अर्थ कुछ संकुचित हो जाता है।

     खेल शब्द सुनते ही किसी भी हिंदीभाषी के मन में सबसे पहले क्रीड़ा का ही भान होता है। लेकिन ‘खेला’ बांग्ला में जो अर्थ रखता है, वह आजकल राजनीति में कुछ भिन्न अर्थ में व कुछ ज़्यादा ही प्रयुक्त हो रहा है। बहरहाल, खेल हो या वर्तमान में प्रचलित हो रहा खेला, दोनों में ही शारीरिक बल की ज़रूरत होती है। खेल के लिए तो शारीरिक ताकत खिलाड़ी में स्वयं में होनी चाहिए जबकि सियासी ‘खेला’ के लिए ताकत खिलाड़ियों में हो यह ज़रूरी नहीं है। अक्सर होता यह है कि खेला दिखाने वाले के पीछे ताकत नहीं बल्कि ताकतें होती हैं जो इसके खिलाड़ियों को चाहे जितनी दूरी से नियंत्रित कर सकती हैं। खेला में ‘मनी पॉवर’ और ‘मसल पॉवर’ एक दूसरे में परिवर्तनीय होते हैं। खेल में ‘मसल पॉवर’ का सही उपयोग करने वाला खिलाड़ी के पास मनी पॉवर अपने आप आने लगता है। खेल में ताकत के दम पर खिलाड़ी चौके-छक्के लगाता है, तो खेला में धक्के लगाता है। खेल वाला गिल्लियाँ उड़ाता है, तो खेला वाला खिल्लियाँ उड़ाता है। खेल में खिलाड़ी गोल दाग सकता है तो खेला में गोल तो नहीं लेकिन गोलमाल अवश्य किया जा सकता है, किसी भी बात को गोल किया जा सकता है और किसी को भी दागा जा सकता है। खेल में शॉट मारा जाता है तो खेला में खिलाड़ी शॉट में एक अँगरेजी स्वर ‘ओ’ और लगाकर किसी को शूट भी कर सकता है या खुद भी शूटऑउट हो सकता है। क्रिकेट जैसे खेलों में तो घायल खिलाड़ी का स्थानापन्न भी मिल जाता है जो कम से कम दूर की फील्डिंग तो कर ही सकता है, मगर खेला में खिलाड़ी की चाहे टाँग टूट जाए, उसे ‘रिटायर्ड हर्ट’ घोषित नहीं किया जा सकता और न ही वह होना चाहता है। खेल में प्रमुख खिलाड़ी का घायल होना टीम की जीत की संभावना पर ग्रहण लगा देता है जबकि ‘खेला’ में प्रमुख खिलाड़ी का घायल होना उसके लिए ‘एडवांटेज’ साबित हो सकता है। खेला में घायल खिलाड़ी मैदान नहीं छोड़ता। यह घायल खिलाड़ी खेला के मैदान में अगर व्हील चेयर पर बैठकर भी जाना चाहे तो उसे नागरिकता क़ानून में माँगे जा सकने वाले दस्तावेजी सबूत की तरह अपनी प्लास्टर चढ़ी टाँग दिखाते रहना पड़ती है।

     खेल खेलने वालों में खिलाड़ी-भावना स्वयं विकसित होने लगती है। खेला खेलने वाले खिलाड़ी-भावना से दूर होते देखे जा रहे हैं। खेल की बात चले तो कई बड़े नाम ध्यान में आने लगते हैं। लेकिन खेला की बात चलते ही सिर्फ़ एक नाम ध्यान में आता है...जी हाँ वही जो इस समय आपके ख्याल-शरीफ में भी आ रहा है!
                                                                        ***

चुटकी 107 / 10.04.2021 राष्ट्रीय नवाचार, 10.04.2021

चुटकी 107, इंदौर समाचार , 10.04.2021

चुटकी 106 राष्ट्रीय नवाचार 03.04.2021

चुटकी106/ 03.04.2021 विजय दर्पण टाइम्स