हाथी चले बाज़ार…!
उस दिन गजराज फिर घूमने निकले। चाल ऐसी कि अपनी मिसाल गजराज ख़ुद आप कहलाएँ। पूरी तरह से अनुशासित। और उनके अनुशासित रहने का एकमात्र कारण था ऊपर वाले का ‘अंकुश’ जो उन्हें सहर्ष स्वीकार भी था।
उस दिन मैंने जब गजराज को जाते देखा तो पाया कि वे अकेले तो अपनी मस्त चाल से चले जा रहे हैं, मगर पीछे वो सब आवारा कुत्ते जो मुहल्ले में बढ़ती जा रही चोरियों के बावजूद भी अपने कर्तव्य का निर्वहन नहीं कर सके थे, इस समय गजराज के पीछे-पीछे ‘बाआवाज़े-बुलंद’ अपना विरोध दर्ज़ करवा रहे थे। ज्यों ज्यों गजराज आगे बढ़ते जाते थे, त्यों त्यों उनके ‘स्वागत’ में पीछे चल पड़े पहले श्वान की स्थिति “मैं अकेला ही चला था गजराज के पीछे मगर, और श्वान आते गए, कारवाँ बनता गया...” वाली होती चली गई।
वैसे हम बाप-दादा के ज़माने से ‘हाथी चले बाज़ार, कुत्ते भौंके हज़ार’ की सूक्ति सुनते आए हैं इसलिए यह तो मानना ही पड़ेगा कि इस विशाल प्राणी का मुक्त विचरण कुत्तों के समुदाय को कभी पसंद नहीं आया।
“कोई हाथी जब बाज़ार में निकलता है तो ये सारे कुत्ते एक स्वर में उसे क्या कहना चाहते हैं?” मैंने अपने परम मित्र श्री बी.लाल जी से पूछा। बी.लाल जी का पूरा नाम लाल बुझक्कड़ था मगर वे खुद को बी.लाल कहलाना पसंद करते थे। उनके पास हर बात का जवाब होता था। यहाँ तक कि वे प्राणियों की भाषा समझने का दावा भी करते हैं। कुत्तों के इस वृंदगान को उन्होंने कुछ यों डिकोड किया-“सब एक स्वर में कह रहे हैं कि गजराज बाहरी है! गजराज बाहर जाओ!”
"हाथी बाहरी कैसे हो सकता है? यह तो भारतीय नस्ल का ही है, कोई अफ़्रीकन नस्ल का थोड़ी है। फिर हम तो 'सबै भूमि गोपाल की' और 'वसुधैव कुटुंबकम्' के सिद्धांत की बात करते आए हैं!"
ऐसा भी नहीं है कि इन श्वानों को कोई रोक ही नहीं रहा था। कुछ बड़े लोग 'हट! चल हट!' कहकर तो कुछ शैतान बच्चे उन्हें पत्थर मार-मार कर रोकने का प्रयास कर रहे थे। मगर न तो उन पर डाँट का कोई असर हो रहा था और न ही पथराव का। यानी 'बाहरी' को लेकर वे इतने ख़ौफ़ज़दा थे कि उन्हें पत्थरों का कोई ख़ौफ़ नहीं रह गया था। मजे की बात यह है कि इनमें से हर कुत्ता अपनी गली में ही शेर था। दूसरी गली में अगर कोई ग़लती से चला भी गया तो पिटकर ही आता था। और आज आपस में कोई नहीं लड़ रहा था। आज सारे कुत्तों का एक 'कॉमन मिनिमम प्रोग्राम' तय था और वह था 'बाहरी गजराज का विरोध'।
उधर गजराज ने साबित कर दिया कि उसके नाम में 'राज' ऐसे ही नहीं लगाया जाता है। उन्होंने आज तक कभी पलटकर नहीं देखा कि भौंकने वाले ये प्राणी कौन या कितने हैं। हाथियों का उन्मुक्त विचरण यथावत जारी है। लेकिन हर बार होता यह है कि गजराज का दौरा निर्विवाद रूप से संपन्न हो जाता है और सारे कुत्ते भौंक भौंक कर इतने हलकान हो जाते हैं कि बाद में उनमें न तो आपस में लड़ने की क़ूवत बचती है और न ही किसी चोर, यानी वास्तविक 'बाहरी' को खदेड़ने का दम।
मुझे विश्वास है कि जिस दिन ये कुत्ते गजराज का 'बाहरी' कहकर विरोध करना बंद कर देंगे, उस दिन से ये भी कुत्ते नहीं, 'श्वानराज' कहे जाएँगे।
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