Saturday 31 May 2014


     बुलावा जो नहीं आया!
                               ओम वर्मा
                          om.varma17@gmail.com 
रा ही आहटें होती थीं तो ये लगता था कि कहीं ये वो तो नहीं! मगर जब भी उन्हें लगता कि चले आ रहे हैं वे नज़रें उठाए, तो वह हर बार उनकी नज़रों का धोखा ही साबित हुआ। बाद में तो वे सीधे ड्राइंग रूम में जाकर सोफ़े की उस कुर्सी पर जाकर बैठ गए जहाँ से मुख्यद्वार पर सीधी नजर रखी जा सकती थी। दरवाजे को भी उन्होंने अटका कर रखा था जिसके कि जरा सा हिलते ही उन्हें लगने लगता था कि उन्हें दिल्ली से मंत्रीमण्डल में शामिल होने का बुलावा आया है। मगर दरवाजे तक पहुँचते ही असलम साबरी उनके कानों में दहाड़ते प्रतीत होते थे -कोई आया है न कोई यहाँ आया होगा, मेरा दरवाजा हवाओं ने हिलाया होगा...।  रात अपने टेलीफोन व मोबाइल की घण्टी फुल कर वे सिरहाने रख कर ही सोए थे। जब भी घण्टी बजती, वे रिसीवर या मोबाइल कुछ इस अंदाज़ में उठाते जैसे बिल्ली चूहे को झपटती है। मगर नतीजा भारत-पाक वार्ताओं की तरह फिर ढाक के तीन पात होकर रह जाता था।
     हालांकि कद्र तो उनकी उस पार्टी में भी कोई कम नहीं थी। अपने विद्यार्थी जीवन से ही उन्हें लट्ठ-भारती में अच्छी ख़ासी महारत हासिल हो गई थी। इसी कारण उन्हें तब पार्टी की जिला शाखा का अध्यक्ष बना दिया गया था। इन चुनावों में जब पार्टी को उम्मीदवार ढूंढ़े नहीं मिल रहे थे तब वे अपने क्षेत्र से चुनाव लड़ने को तैयार हुए थे। मगर उधर दूसरी पार्टी के भियाजी के तूफानी दौरे और सभाओं की दिनोदिन बढ़ती भीड़ देख अकस्मात उनकी छठी इंद्रिय जागृत हुई और जैसे कोई हवा उनके कानों में सरगोशी सी कर गई कि “हे मूरख प्राणी! तेरी जेब में जिस ट्रेन का टिकट है वह प्लेटफॉर्म नं. 1 पर खड़ी है और खड़ी ही रहेगी। इस बार सिग्नल प्लेटफॉर्म नं. 2 पर खड़ी ट्रेन को मिलने वाला है। जा यह टिकट लौटा और उसका टिकट ले ले...!” इससे पहले कि खिड़की बंद होती, 2 नं. पर खड़ी ट्रेन का टिकट उनकी जेब में था। इधर यह ट्रेन पहले से ही फुल हो चली थी। मगर येन केन प्रकारेण वे जगह व अंततः मंजिल पाने में कामयाब हो ही गए।

     हाँ तो परिणाम के दिन वही हुआ जिसकी की कई चाणक्यों को उम्मीद थी। उनकी पार्टी को छप्पर फाड़ बहुमत हासिल हुआ। लहर को तूफान में बदलते देख मौसम विशेषज्ञ भी भौंचक रह गए थे। जैसे ज्वार आने पर समुद्र का बहुत सारा कचरा किनारे पर लग जाता है वैसे ही लहर उन्हें भी पार लगा चुकी थी। मगर परिणाम के बाद शपथ समारोह तक उनके दिन वैसे ही कटे जैसे म.प्र. के उस पीएमटी प्रत्याशी के कटे होंगे जो व्यापम वालों को सेट कर कॉपी ब्लेंक छोड़कर चला आया था। ये मंत्री बनाए जाने के लिए उतने ही कॉन्फिडेंट थे जितने वे डॉक्टर बनने के। उधर पीएमटी वालों को बीच कोर्स में से खदेड़ दिया गया है और इधर ये लहर के सवार किनारे पर पड़े जरूर हैं मगर अपना बारहवीं उत्तीर्ण होने का प्रमाण पत्र लहरा लहरा कर उन जहाज वालों का ध्यान खींचने की बेकार कोशिश कर रहे हैं जो नया मंत्रीमण्डल लेकर उनसे दूर, और दूर होता चला जा रहा है।                                  ***

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100
, रामनगर एक्सटेंशन, देवास 455001 (M.P.)

Tuesday 27 May 2014




  व्यंग्य              
             कच्ची व पक्की दीवार

                                           
  ओम वर्मा
                                       om.varma17@gmail.com
 
दीवारें दो तरह की होती हैं – कच्ची दीवार और पक्की दीवार। साहित्यिक भाषा में एक मूर्त और एक अमूर्त! कच्ची दीवार यानी वह मूर्त दीवार जो ईंट गारे या अन्य बिल्डिंग मटेरियल की बनी होती है व सारी दुनिया को दिखाई देती है... जैसे कि ग्रेट वाल ऑफ चाइना’, या दोनों जर्मनियों के पुनर्मिलन से पूर्व पैंतालीस वर्षों तक तनी रही ऐतिहासिक बर्लिन वाल। चीन की 6000 किमी लंबी दीवार के बारे में कभी यह भी पढ़ा था कि वह चाँद से भी दिखाई देती है। बहरहाल दीवार चाँद से भले ही दिखे या न दिखे, दो देशों को बाँटे या न बाँटे, वह होती बड़ी ही कच्ची है। आखिर दीवारें ही हैं कोई रेडक्लिफ लाइन नहीं कि हथौड़े, डायनामाइट या परमाणु बम से भी नहीं मिटाई जा सके। चीन की ग्रेट वाल को भी चीन या अन्य महाशक्तियाँ जब चाहें ध्वस्त कर सकती हैं। कई बार तो यूँ लगता है कि जैसे सारी दुनिया ही शीशे की है जहाँ कभी कोई सिरफिरा एक हवाई जहाज का अपहरण कर उसे टकरा दे तो ऊंची से ऊंची दीवार को ज़ीरो ग्राउंड में बदलने में पल भर न लगे। यानी मूर्त दीवारों को अच्छे या बुरे किसी भी प्रयोजन के लिए ध्वस्त किया जा सकता है। कहीं कोईभाई हुआ तो जमीन हथियाने के लिए  दीवारें जबरन खड़ी कर लेता है और घर पर पेटी बिस्तर तैयार रख नौकरी पर निकलने वाला कोई कलेक्टर या कमिश्नर हो तो जमींदोज़ भी कर सकता है।
   मगर जो अदृश्य व अमूर्त दीवारें होती हैं उनका लेखा जोखा या जवाब है किसी के पास? वो दीवार जिसे गुजरात और शेष भारत के बीच खड़ी करने की कोशिशें जारी हैं वो दीवार जो कश्मीरियत और हिंदुस्तानियत के बीच या देश के हर अलगू चौधरी और जुम्मन शेख के बीच तामीर की जा रही है और रोज उस पर नई नई परतें चढ़ाई जा रही हैं… वह दीवार जो एक पीएम को दूसरे पीएम की शपथ विधि में जाने में अवरोध खड़े करती है ,,,या  वह जो किसी लंगड़ को आज तक अदालत के फैसले की नकल लेने से रोक रही है...वह दीवार जो आज भी होरी को भूखा सोने या आत्महत्या करने पर विवश करती है... वह दीवार जो राँझे को हीर और मजनूँ को लैला से मिलने से आज भी रोके हुए है... वह कभी टूटेगी भी? और वह दीवार जिसके कि इस पार वाला उस पार वाले को सिर्फ पाँच साल में एक ही बार देख पाता है या वह जिसकी वजह से वंशवाद में सेंध लगाने के बारे में सोचना ही 1857 के विद्रोह के समान गदर मान लिया जाए, उस दीवार के लिए कोई बारूद या बुलडोजर अभी तक ईज़ाद क्यों नहीं हुआ? क्या मातृभूमि की रक्षा हेतु प्राण न्योछावर कर देने वाले शहीदों की शहादत की दीवार से उनकी मज़हबी पहचान की दीवार बड़ी हो सकती है?क्या टोपी और तिलक के बीच में दीवारें खड़ी की जाती रहेंगी? क्या हिंदी को संपूर्ण देश की राष्ट्रभाषा और संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनने में जो दीवार अवरोध बनकर खड़ी है उसे कोई ध्वस्त कर सकेगा? और लास्ट बट नॉट द लीस्ट कि अर्जुन को इक़बाल के साथ क्रिकेट खेलने से रोकने वाली या उनके बालमन में विषबेल सी खड़ी की जा रही दीवार को गिराने के लिए भी कोई महापुरुष कभी रथ यात्रा निकालेगा?  
   जाहिर है कि देश में दीवारें बहुत हैं। अगर इनमें से सही चुन ली जाएँ और उन पर सद्भाव की छतें ढाल दी जाएँ तो इतने मकान बल्कि घर बन जाएँ कि सभी को छत्रछाया मिल जाए!
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100, रामनगर एक्सटेंशन, देवास 455001(म.प्र.)      


दबंग दुनिया , 25.05.14 







Friday 16 May 2014



व्यंग्य
        लकीर पर चिंतन
                            ओम वर्मा
                                    om.varma17@gmail.com 
साँप निकल गयालकीर पर चिंतन जारी है। सबके हाथों में बड़ी बड़ी लाठियाँ हैं। इतने धुरंधरों के होते साँप आखिर बच कर कैसे निकल गया। जवाब देना मुश्किल हो रहा है। माहौल कुछ ऐसा है कि सामूहिक बलात्कार पर बहस में भाग लेते समय भी जिनकी मुस्कराहट गायब नहीं होती थी आज उन्होंने भी गंभीरता ओढ़ रखी है। जिस लहर को उन्होंने झोंका भी नहीं समझा था वह तूफान बनकर उनकी साठ साल पुरानी बस्ती तहस नहस कर गई। परंपरानुसार बिखरे दूध पर रोया जा रहा है। जिसे साँप समझ कर छेड़ा जा रहा था वह सिंहासन पर जा बैठा है और उसकी छोड़ी गई लकीर पर अब  लाठियाँ भांजी जा रही हैं। हार का ठीकरा फोड़ने के लिए सही सिर तलाशा जा रहा है।
   
     “मैंने उसको राक्षस कहा था पर शायद लोगों ने उसकी बड़ी बड़ी आँखें देख कर शायद उसे देवदूत समझ लिया।” एक चिंतक ने कहा।
   
     “मैंने तो उसे गुण्डा कहा था पर लोगों ने उसे वाराणसी का पण्डा बना दिया।” दूसरे चिंतक ने दूर की कौड़ी पेश की।

    “मैडम ने पहले ही उसको आदमखोर बता दिया था, पर शायद लोगों ने माखनचोर सुन लिया होगा।” सिर्फ अपने अद्भुत बयानों के कारण चर्चा में बने रहने वाले एक अन्य आधार स्तंभ ने यहाँ भी वफादारी प्रदर्शन करने का मौका नहीं छोड़ा।
   
    “हम भी उसके मुकाबले के लिए अपने युवराज को लाए थे...कहीं ऐसा तो नहीं कि अपने युवराज की एक्सेप्टिबिलिटी उनके मुकाबले पब्लिक में कम हो ?” एक कम चर्चित पार्टीमेन ने दबी जुबान से थोड़ी हिम्मत करके अंधों की बस्ती में आईने ले लो जैसी आवाज निकालने की कोशिश की।

    “ये कौन बद्तमीज़ घुस आया है..लगता है गुजरात वालों का भेजा आदमी है!” एक भियाजी किस्म के कार्यकर्ता ने हाँक लगाई। इतने में बाकी लोगों ने युवराज की स्वीकार्यता पर शंका उठाने वाले ‘विद्रोही’ को अस्वीकार करते हुए टांगा-टोली कर सीधा मुख्य-द्वार दिखा दिया।

   “नहींहमारी हार का असली कारण ‘थ्री डी’ टेक्नॉलाजी है जिसके न होने से जहाँ हमारे युवराज एक बार में एक ही जगह दिखते थे वहीं वो किशन कन्हैया की तरह रास लीला में एक दो नहीं पूरे एक सौ आठ स्थानों पर हर गोपी को अपने अपने साथ नज़र आते थे।” पार्टी के एक सलाहकार ने अपना तकनीकी ज्ञान बघारा।

    “मैंने पहले ही कहा था कि 2012 में मनमोहनसिंह की जगह राहुलजी को पीएम बना दिया गया होता देश एक अलग ऊँचाई पर होता और आज परिणाम उलटा भी हो सकता था।एक स्व. प्रधानमंत्री के पुत्र जिसने सिर्फ अपने पिता की सफेद लट वाली हेयर स्टाइल अपनाई हैविचारधारा नहींने गहन मंथन से नवनीत निकालकर प्रस्तुत किया।

     “मैंने तो पहले ही बोटी बोटी उड़ा देने की बात कह दी थी...किसी कोने से यह आवाज भी सुनाई दी। 

    तो हार का ठीकरा फोड़ने के लिए सर की तलाश जारी है। क्या देश का मतदाता वंशवाद या एक ही परिवार का शासन जारी रखना चाहता है या नहीं… चुनाव में विकास जैसा भी कभी कोई मुद्दा था या नहीं... राष्ट्रकुल खेल घोटाले से लेकर कोयला खदान व टूजी स्पेक्ट्रम के आवंटन और रॉबर्ट वाड्रा की संपत्ति में हुई कल्पनातीत वृद्धि ...आदि आदि भी कोई मुद्दे थे या नहीं... जनता इनका जवाब चाहती थी। इस बारे में जब होगी फुरसत तो देखा जाएगा!                                                                                 ***
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100, रामनगर एक्सटेंशनदेवास 455001(म.प्र.)                                                   

Thursday 1 May 2014

व्यंग्य (नईदुनिया, 02.05.14) 
          
स्वर्ग में कवि सम्मेलन 

        
(सभी संबंधित कवियों से क्षमायाचना सहित)                                 

                         
ओम वर्मा
                                   
                     om.varma17@gmail.com
स्वर्ग में अप्सराओं के नृत्य देख देखकर देवतागण भी एक दिन आखिर बोर हो ही गए। अति सर्वत्र वर्जयेत! उन्हें मोनोटोनी से ग्रस्त देख वैद्य द्वय अश्विनीकुमारों ने सलाह दी कि अब ये आमोद प्रामोद छोडकर कुछ चैंज हो जाए। बात जब तीनों लोकों में विचरने वाले फ्री लांसर नारद जी को मालूम पड़ी तो उन्होंने नमो नमो, मेरा मतलब नारायण नारायण के उद्घोष के साथ खबर दी कि भारत भूमि पर इन दिनों आम चुनाव की धूम मची हुई है जिसमें जनता को वहाँ के नेताओं के बयानों व टीवी पर उनके बीच होने वाली  बहस देखने में जो मज़ा आ रहा है वैसा कुछ यहाँ भी होना चाहिए।
     संस्कृति विभाग देख रहे एक देवता ने सुझाव दिया कि सारे देवताओं के लिए स्वर्ग छोडकर एक साथ भारत भूमि पर चले जाना भले ही मुमकिन न हो, पर जब एक से एक धुरंधर कविगण स्वर्ग में स्थाई निवास बना चुके हैं तो क्यों न उन्हें ही आमंत्रित कर एक चुनावी कवि सम्मेलन करवा लिया जाए। विचार ने मूर्त रूप लिया और स्वर्ग में कवि सम्मेलन संपन्न हुआ। प्रस्तुत है सम्मेलन के संपादित अंश-
    सबसे पहले आमंत्रित किया गया युवावस्था में ही स्वर्ग पहुँच चुके कवि सुदामा पाण्डेय धूमिल को। धूमिलजी ने फरमाया-     
     एक आदमी
     दल बनाता है
     एक आदमी इसे तोडकर नया दल बनाता है
 
     एक तीसरा आदमी भी है
     जो न दल बनाता है न दल तोड़ता है
 
     वह पैराशूट से उतरता है और टिकट पा जाता है 
     मैं पूछता हूँ 
     यह तीसरा आदमी कौन है?
     मेरे देश की जनता मौन है!

 
   सभी कवियों सहित देवी देवताओं के मुख से वाह! वाह!! निकल पड़ी। फिर आए दुष्यंतकुमारजी। ये यहाँ भी पूरे समय अपने मित्र कमलेश्वरजी के साथ भारत भूमि पर आम आदमी की दुर्दशा पर चिंतन करते रहते हैं। उन्होंने अपने अंदाज़ में गजल पढ़ी- 

   हार की   संभावनाएँ   सामने   हैं।
  फिर भी संसद के किनारे घर बने हैं।
  सियासत में  ईमान की बात मत कर
,
  इन  दरख्तों के बहुत  नाजुक तने हैं।
  कुछ तो महँगाई की वजह से हैं खफा
,
  कुछ घोटालों की वजह से अनमने हैं।
  इलेक्शन  में जैसा चाहो तुम बजा लो
, 
  मुसलमां  उनके लिए बस झुनझुने हैं। 

   इन्होंने भी खूब दाद पाई। फिर बुलाया गया छायावादी व हालावादी श्रृंखला के अंतिम कवि डॉ हरिवंशराय बच्चन को। उनके आते ही देवताओं ने मधुशाला की श्रृंखला में कुछ नया सुनाने की फरमाइश कर डाली जिसे उन्होंने दो रुबाइयाँ  सुनाकर पूरी की  –

    अपना मत देने को घर से
    चलता मत देने वाला
    किसको दूँ
, क्यों दूँ, असमंजस
    में है अब भोला भाला
         ख्वाब दिखाते हैं सब ढेरों
,
         पर मैं सच बतलाता हूँ
    इसको दे या उसको दे तू
,
    सभी करेंगे घोटाला।
और दूसरी रुबाई-        पण्डितजी बोले दुनिया को
                      चला रहा मुरलीवाला
                      मुल्ला बोले क़ायनात को
                      चला रहे अल्लाताला
             लेकिन साथ रहे जब भी वे
             नहीं लड़े घोटालों में
                   वैर कराते मंदिर मस्जिद
                   मेल कराता घोटाला।

   और फिर आए दादा माखनलाल चतुर्वेदी जिन्होंने इस बार जूते की अभिलाषा का बखान किया-
 
   चाह नहीं मैं विश्व सुंदरी के पग में पहना जाऊँ
   चाह नहीं शादी में चोरी हो साली को ललचाऊँ
   चाह नहीं अब सम्राटों के चरणों में डाला जाऊँ
   चाह नहीं अब बड़े माल में बैठ भाग्य पर इठलाऊँ
   मुझे पैक करना तुम बढ़िया
, उसके मुँह पर देना फेंक
   चले शान से वोट माँगने आज बेच जो अपना देश !

           
फिर आए रघुवीर सहाय जिन्होंने आज की स्थिति देखकर अधिनायक कविता को यूँ पेश किया-
 राजनीति में भला कौन वह
 बदकिस्मत मतदाता है

 पाँच बरस होते ही जिसका
 गुण हर नेता गाता है


 खांसी, मफ़लर, टोपी, धरना 
 और कभी धमकी के साथ  
 अपने चमचों से नित अपनी
 जय-जय कौन कराता है


जब जब भी कोई आता है
राजनीति में केजरीवाल
बीच सड़क में उसके मुँह पर
थप्पड़ कौन लगाता है
कौन कौन है मेरे देश में
अधिनायक वह महाबली
कुछ लोगों को पाकिस्तान का
डर जो रोज दिखाता है

    देवतागण, जाहिर है कि एक यादगार शाम की याद लेकर लौटे और कई दिनों तक कविताओं की पंक्तियाँ गुनगुनाते रहे। कुछ दिनों के लिए उर्वशियों को भी आराम मिल गया था।                                       ***
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