पुस्तक समीक्षा
दूर कहीं
(अंजू मोटवानी का रचना संसार) - ओम वर्मा
चूँकि ‘दूर कहीं’ अंजू मोटवानी का पहला संग्रह है इसलिए वे उसे लेकर उतनी ही सजग व आशंकित हैं जितना कोई रचनाकार, विशेषकर कवि अपने पहले शाहकार को लेकर हो सकता है। इसलिए जब वे अपनी भूमिका में कहती हैं कि -
“यह कविता क्या है नहीं जानती मैं
छंदों की भाषा नहीं जानती
मैं
लय और प्रवाह होता है कैसा
लिखती हूँ मन मैं आता है जैसा
भावों को ही तो बस जानती मैं
कल्पना को शब्दों में हूँ
पिरोती
कलम को विचारों में फिर हूँ डुबोती
इसके सिवा कुछ नहीं जानती मैं
यह कविता क्या है नहीं जानती मैं”
तो ज़ाहिर है कि उनके संग्रह को समीक्षा के सामान्य व
प्रचलित उपकरणों से नहीं परखा जा सकता।
अंजू ने अपना रचनाकर्म अपने जीवन
की दूसरी पारी में प्रारंभ किया है। अधिकांश रचनाकारों की तरह“मुझे अपने
विद्यार्थी जीवन से ही कविता लिखने का शौक था” टाइप का जुमला उनके पास नहीं है।
बल्कि उनकी यह पारी शुरू हुई उनके पाँच वर्ष पूर्व सोशल मीडिया से जुड़ने के बाद।
लेकिन यहाँ यह क्या कम है कि इस मंच पर वे सिर्फ ‘लाइक’ करने या ‘वाह’ लिख देने की औपचारिकता के बजाय कई प्रबुद्ध रचनाकारों
से जुड़ीं और उनके प्रभाव से कविता की ओर प्रवृत हुईं।
यह सही है कि
उनकी कविताओं में आज के कई बड़े नामों की तरह या और स्पष्ट कहूँ तो कुछ कथित‘प्रगतिशील’ कवियों की तरह ज़रूरत से ज़्यादा
उलझाने वाली भाषा या सिंहनाद सी गर्जना करती कोई विशिष्ट शैली नहीं है। उनके
रचनाकर्म में एक नितांत भारतीय स्त्री का बिंब उभरता है और एक आम पाठक हर कविता से
स्वयं को आत्मसात करने लगता है। एक भारतीय स्त्री चाहे किसी भी बड़े परिवार से हो, पहले माता-पिता और भाई बहिन, फिर पति, सास-ससुर, बाद में बच्चों का लालन-पालन आदि
कुछ ऐसी जिम्मेदारियाँ हैं जिनसे कभी मुक्त नहीं हो पाती। यही उसकी सृष्टि है और
वह इसी सृष्टि की ब्रह्मा, विष्णु व महेश है। इनमें से भी कुछ स्त्रियाँ साहित्य सृजन के कुछ पल चुरा
लेती है, अंजू मोटवानी
ऐसे ही कुछ नामों में से एक हैं। इनकी कविताओं से गुज़रना ऐसी ही एक सम्पूर्ण
सृष्टि से होकर गुजरना है।
लहरें जब आती
हैं तो अपने साथ रेत-मिट्टी बहा ले जाती हैं यह तो सब देखते हैं लेकिन यही लहरें
कवयित्री को भावनाओं के संसार में बहुत दूर ले जाती हैं और उनके मुख से निकल पड़ता
है-
“भला लहरें भी कहीं
समझती हैं क्या
प्रेम को
वो तो अपनी धुन में
बस आती हैं
तेज़ी से और
उतनी ही तेज़ी से
लौट जाती हैं
सब कुछ समेट कर
दूर कहीं, दूर कहीं !
(पहली कविता ‘दूर कहीं’)
‘मिट्टी का चूल्हा’ वह कविता है
जिस पर लिखना किसी जोखिम से कम नहीं है। कारण यह है कि इस पर बहुत बार लिखा गया
है। लेकिन इस कविता में भी अंजू अपनी मौलिक दृष्टि के साथ दिखाई देती हैं। उनके
लिए मिट्टी के चूल्हे की विदाई सिर्फ पुराने से नए की और लौटना भर नहीं है बल्कि
इसमें वे तमाम जीवन मूल्यों व आस्थाओं का विसर्जन देखती हैं। ‘फितरत’ कविता में
आदमी के स्त्री को महज उपभोग की वस्तु समझे जाने व ‘मर्दानगी’ के अहंकार को उजागर किया है।
आस्था और मन्नतें हमारे जीवन और संस्कृति का हिस्सा हैं। पेड़ पर जब मन्नतों के
धागे बाँधे जाते हैं तो हम प्रकृति के हर अंग में ईश का अंश देखकर उसके प्रति
विश्वास और कृतज्ञता ज्ञापित कर रहे होते हैं। हमारी खुशहाली के लिए मन्नतों के
धागों का बोझ सहता पेड़ यही एहसास करवाता है कविता ‘धागेआस के में’। ‘शिल्पकार’ में शिल्पकार
के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करती पाषाण प्रतिमा है। ‘छू लूँ आसमान’ कविता प्रारंभ
की पंक्तियों में बिलकुल साधारण वर्णन करने वाली पंक्तियाँ लगती हैं, लेकिन जब अंत में वे कहती हैं
कि-
दिल ही दिल में
वो तो सोचे
मेरे पैरों को न कतरो
कर दो मुझको भी आजाद
छू लूँ मैं भी आसमान !
तब उनकी काव्य चेतना व्यष्टि से समष्टि तक पहुँच जाती
है। कवयित्री जहाँ एक ओर पारिजात के फूलों के अल्पजीवी होने पर अपनी पीड़ा व्यक्त
करती हैं वहीं जब उनके खिलखिलाते रहने की दुआ करती हैं तो ऐसा लगता है मानों उनमें
अपना ही अक्स देख रही हों। ‘माँ की ममता’ कविता में
बेटे की उपेक्षा के बाद भी उसके लिए दुआ में हाथ उठाती माँ है। ‘तुम जो मिले’ कविता में
प्रेमरस में पगी नायिका है तो ‘तनहाइयाँ’ में उसी नायिका का विरहिणी रूप
सामने आता है। ‘मंथन’ कविता में वे
आध्यात्मिक मिथ के सहारे अमृत और गरल को अलग करना चाहती हैं। ‘बुढ़िया बेचारी’, ‘आतंक’, ‘वसीयत’ व प्रेमरस में
डूबी कविता ‘खेल’ इन चार कविताओं
को संग्रह की ‘टॉप-10’ कविताओं में रखा जा सकता है
जिसमें स्त्री के प्रति पुरुष के नजरिए को बड़ी शिद्दत से उभारा गया है। कुछ इसी
मिजाज की कविता ‘सबब’ भी है। ‘उन्मुक्त उड़ान’ व‘ज़ायका’ शीर्षक
कविताओं में में कवयित्री अपने ही रचनाकर्म का आत्मावलोकन करती नज़र आती हैं।
‘नन्ही चिड़िया’ कविता में
हमारे जनजीवन से दूर जाती चिड़िया के माध्यम से संयोग और वियोग का मार्मिक वितान
रचा गया है। ‘भीतर का
बच्चा’ कविता में उस
बच्चे का चित्रण है जो हम सब के अंदर छिपा और दबा बैठा है और बाहर आने को मचलता
है। बच्चे की मासूमियत व कोमल भावनाओं पर तमाम वर्जनाएँ हावी हैं। कविता ‘आकृतियाँ’, ‘उजड़ा गुलिस्ताँ’ व ‘नया सवेरा’ में कवयित्री
का आशावाद सामने आता है।‘प्रीत के रंग’, ‘वो तेरा नाम’, ‘क्या लौटाऊँ’, ‘क्या है प्यार’, व ‘काश’ प्रेम रस में
पगी कविताएँ हैं। कविता‘प्रीत अधूरी’ में जब वे कहती हैं कि
अब तुम्ही बताओ
कैसे लिखूँ मैं अंत
क्योंकि अब भी
मैं हूँ और
तुम हो
कहीं
तो बाकी मुझमें
तब लगता है राधामय कृष्ण या कृष्णमय राधा के भाव को
व्यक्त कर रही होती हैं। स्त्री को मर्द या तो पैरों की धूल समझते हैं या उसे देवी
बनाकर मंदिर में स्थापित कर देते हैं। कविता ‘महानता’ में यही पीड़ा कवयित्री ने बड़े सशक्त तरीके से व्यक्त की है। इस भौतिक व
नश्वर जगत में कवयित्री शब्दों (कविता ‘साथी’) को अपना साथी मानकर चलती हैं। ‘कलम’ कविता में
अंजू कलम की सामर्थ्य में अपनी आस्था प्रकट करती हैं। ‘अधूरी ज़िंदगी’ कन्या भ्रूण
हत्या के ख़िलाफ़ उनकी आवाज़ है तो ‘अपने की तलाश’ में उपेक्षित बुज़ुर्गों के एकाकी
जीवन की पीड़ा को व्यक्त किया है। ‘सात वचन’ भी स्त्री विमर्श के नए आयाम
खोलती है जिसमें उस स्त्री की पीड़ा को व्यक्त किया गया है जो अपने ‘देवता’ के आगे प्रेम में पूर्ण समर्पण
का ‘प्रेम दीपक’ जलाए रखती है देती है वह ‘देवता’ देव बनना तो दूर ठीक से मनुष्य
भी नहीं बन पा रहा है।
‘कमरे कि खिड़की’ कविता में
प्रकृति से उनका जीवंत संवाद है। । ‘ओस की बूँद’ में जीवन की क्षणभंगूरता पर
कवयित्री का चिंतन सामने आता है। संग्रह की अंतिम कविता ‘टूटा सितारा’ हमारे बीच किसी के अचानक चले
जाने से हुई रिक्तता की पीड़ा व्यक्त करती है। टूटता तारा भले ही इस कायनात से विदा
ले रहा है, भले ही किसी
श्याम विवर (ब्लैक होल) में समाने वाला हो मगर हम उसके टूटने या अंत होने में भी
अपने लिए कुछ ख्वाहिशों को पूरा होना देखते हैं। या यूँ कहें कि कवयित्री ने टूटते
तारे के माध्यम से यह संदेश देना चाहा है कि ख़ुद मिटकर भी किसी के काम आ सकते हैं
या किसी के काम आना ही ज़िंदगी है।
मुझे अँगरेजी
लेखिका जेन ऑस्टिन याद आती हैं। ‘प्राइड एंड प्रिज्यूडिस’ जैसे क्लासिक
उपन्यास सहित मात्र छह उपन्यास रचने वाली इस लेखिका का रचना संसार घर परिवार तक ही
सीमित था। इनके बारे में किसी समीक्षक ने कहा था कि “she hardly steps out of her
parlour, still paints so fine with her brush…”. कुछ हद तक यह बात अंजू मोटवानी के
रचना संसार में भी देखी जा सकती है। सारी कविताएँ सरासरी तौर से देखने पर सीमित
दायरे की रचनाएँ लगती हैं मगर अपने में घर-परिवार, सारे सुख-दुख और पूरी प्रकृति को समेटे नज़र आती हैं।
मैं अंजू
मोटवानी में एक पूर्ण कवयित्री का उभरता अक्स देखता हूँ।
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