Thursday, 26 July 2018

व्यंग्य - सुबह सवेरे 26.07.18 'उन्होंने यूँ आँख मारी जैसे बड़ा तीर मार लिया हो!'


       
व्यंग्य
                      यूँ आँख मारी जैसे बड़ा तीर मार लिया!
                                                                                                       ओम वर्मा

कुछ अति आशावादी मित्र इन दिनों आईने के सामने खड़े होकर आँख मारने की रात-दिन प्रेक्टिस कर रहे हैं। उन्हें लगता है कि पता नहीं कब लोकतंत्र में इस हुनर की भी ज़रूरत पड़ जाए!

     आँख मारने की जब भी कोई बात चलती है या इससे जुड़ा कोई प्रसंग सामने आता है तब दो फ़िल्मी दृश्य मेरी स्मृति में उभरने लगते हैं। 1977 की फ़िल्म खून पसीना और 1985 की संजोग। पहली फ़िल्म में बनी सँवरी चंदा यानी अभिनेत्री रेखा मेले से गुज़र रही होती है जिसे देखकर एक गुण्डा आँख  मार देता है। रेखा तुरंत पलटकर गुण्डे के खिलाफ़ अपना अविश्वास प्रस्ताव पेश करते हुए उससे तूने आँख मारी तो मारी ही क्यों कुछ ऐसे आक्रामक अंदाज़ में बार-बार पूछती है कि गुण्डा तुरंत भीगी बिल्ली बन म्याऊ म्याऊ करने लगता है। संजोग फ़िल्म का दृश्य इससे उलट है। यहाँ चंदू यानी असरानी की दिली तमन्ना है कि वे शादी करेंगे तो उसी लड़की से जो उन्हें देखते ही आँख मार देगी। संयोग से वे अपने लिए चंदा यानी जयप्रदा को देखने जाते हैं मगर वह उन्हें पसंद नहीं करती इसलिए भैंगी होने व पागलपन का ढोंग करने लगती है जबकि दूसरी ओर चंदा की चचेरी बहिन सुनयना यानी अरुणा ईरानी उन्हें देखते ही आँख मार देती है। लड़की का यह आँख मारना चंदू को ऐसा पसंद आता है कि वे बिना कोई अन्य पूछताछ के उसी से शादी कर बैठते हैं। सुहागरात के समय चंदू को मालूम पड़ता है तो वह सिर पीट लेता है कि सुनयना का उसे देखकर आँख मारना प्रणय आमंत्रण नहीं, बल्कि यह उसके नेत्रदोष की वजह से है एक रिफ़्लेक्स एक्शन मात्र है जो फ़िल्म में एक कॉमिक रिलीफ़ के तौर पर रखा गया है तथा  तथा परिस्थितिजन्य हास्य ही उत्पन्न करता है। बाद में बाय डिफ़ाल्ट चंदू-सुनयना के बच्चे भी आँख मारने वाले ही पैदा होते हैं।

     लेकिन हाल ही में देश की संसद में जो आँख मारने की घटना हुई है उसके बारे में मैं तय नहीं कर पा रहा हूँ कि उसे उक्त दोनों में से किस श्रेणी में रखूँ! यहाँ आँख-मारक ने जब पहले स्वयं को राग द्वेष व नफरत जैसी तमाम भावनाओं से मुक्त घोषित किया तो लगा जैसे राजनीति की साँप सीढ़ी में वे सीधे नीचे के खाने से सबसे ऊपर के खाने में पहुँच गए हैं। मगर जब उन्होंने पीएम के पास दौड़ लगाकर गले पड़ने का जो तमाशा कर सहानुभूति प्राप्त करने की कोशिश की उससे उन्होंने साबित कर दिया कि उन पर चस्पाँ टाइटल की एक्स्पायरी डेट अभी बहुत दूर है। फिर जिस तरह से उन्होंने आँख मारकर पूरे एपिसोड का अंत किया है उससे राजनीति की साँप-सीढ़ी में फिर वे निचले पायदान पर देखे जाने लगे हैं। यहाँ उनकी हालत उस गेंदबाज़ की तरह हो गई जिसने मैच की अंतिम गेंद पर प्रतिद्वंद्वी टीम के अंतिम बल्लेबाज़ को जिसे जीतने के लिए मात्र एक रन चाहिए था, क्लीन बोल्ड तो कर दिया मगर अगले ही पल उसे नोबाल घोषित कर दिया गया।
  
      
     मुझे चिंता सिर्फ़ इस बात की है कि आलिंगन के लिए स्वयं पहल करने वाले हर शख्स को अब शंका की नज़र से न देखा जाने लगे! कल ही मेरे शहर में कॉलेज के पास के चौराहे पर आँख मारते हुए रँगे हाथों पकड़े गए एक मजनूँ ने अपनी सफाई में तर्क दिया कि जब संसद में आँख मारी जा सकती है तो सड़क पर क्यों नहीं?

     सूत्रों के हवाले से ज्ञात हुआ है कि उधर पार्टी आलाकमान ने नई आचार संहिता जारी कर दी है जिसके अनुसार अब सब एक दूसरे का आँख मारकर ही अभिवादन करेंगे।

                                                      ***

Friday, 20 July 2018

सुबह सवेरे व दैनिक ट्रिब्यून 20.07.18 में प्रकाशित व्यंग्य

व्यंग्य


          हर किसी में नहीं होता सिर में गंगा समा लेने का हुनर 


                                                                                                          ओम वर्मा

कोई माने या न माने, इसे जाहिर होने दे या न होने दे, मगर मुझे पक्का यकीन है कि यहाँ हर शख्स का जीवन में विष से कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में वास्ता अवश्य पड़ता है। आज अधिकांश लोग प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जहर पीने के लिए मजबूर हैं क्योंकि कुछ लोग उसे उगलने का कोई अवसर हाथ से नहीं जाने देते!
    
     सैकड़ों, हज़ारों या शायद लाखों वर्ष पूर्व जब समुद्र मंथन से विष उपजा था तो उस समय के प्रशासकों या प्रबंधकों के सामने भी उसके निपटान को लेकर वही चिंता या समस्या रही होगी जो वर्तमान दिल्ली सरकार के सामने कूड़े के ढेर को लेकर है या कभी भोपाल गैस त्रासदी के बाद यूनियन कार्बाइड के परिसर में वर्षों तक पड़े रहे रेडियोधर्मी कूड़े के कारण मध्यप्रदेश सरकार को रही थी। मगर न तो तब ‘एलजी-सीएम विवाद’ जैसा कोई लोचा था और न ही उक्त घातक पदार्थ के लिए जिम्मेदार किसी एंडरसन के भाग जाने या भगा दिए जाने जैसे और 'बोफ़ोर्स’ (Bofors) काण्ड की तरह सत्ता की चूलें हिला देने वाले किसी महाघोटाले के घटित होने की संभावना थी। लिहाजा विष के निपटान का प्रकरण देवों के देव महादेव ने बिना हील - हुज्जत या बिना किसी प्रतिदान की अपेक्षा के उसे स्वयं अपने कण्ठ में धारण कर हमेशा हमेशा के लिए शांत कर दिया था। 'यह विष हमारे समय का नहीं है, पिछली सरकार के समय का या पिछले युग का है’ या 'समुद्र मंथन से उपजे अमृत पर पहला हक़ किसी समुदाय विशेष का है’ या राहु और केतु द्वारा छलपूर्ण तरीके से अमृतपान कर लिए जाने पर 'बच्चों से ग़लतियाँ हो जाती हैं’ टाइप की बात कहने का तब चलन शुरू नहीं हुआ था इसलिए मामला कुछ टीवी चैनलों पर कई कई साल तक खींचें जाने वाले धारावाहिकों की तरह लंबा नहीं खिंचा और मंथन के सभी अमूल्य उत्पाद सभी सुपात्रों को डिलीवर हो गए। रहा सवाल विष का तो उसे धारण कर महादेव आज भी कैलाश पर्वत पर विराजमान हैं। विष आज भी अपने सनातन स्वरूप में यानी 'एज़ इट इज़’ वाली स्थिति में है। इस   क्रांँतिकारी घटना को जिन्होंने सही परिप्रेक्ष्य में  समझा वे दीन-दुनिया की बुराइयों के गरल को पीकर बाहर न निकालने की कला खुद तो सीखे ही और औरों को भी सिखाने में लगे हैं। आज भले ही इनकी संख्या कम है, कल बढ़ना भी तय है!

     बहरहाल घोर कलियुग में जनता जो कि सर्वोपरि होती है, द्वारा पूरी तरह नकार दिए जाने के बावजूद भी कोई व्यक्ति या दल स्वयं को  पराजित करने वाले दल के साथ सरकार बनाकर खुद को 'एक कण्ठ  विषपायी’ घोषित कर सिर में गंगा समा लेने का हुनर सीखने के बजाय आँखो से गंगा जमुना बहाने लगे तो वह गरलपान करने वाला शंकर नहीं बल्कि गरलपात्र में जा गिरा कंकर बनकर रह जाता है! सुपात्रों के लिए अमृत छोड़कर किसी और का अहित न हो इसलिए गरलपान करने और सत्ता के अमृत को स्वयं प्राप्त करने के लिए किए गए गरलपान में कुछ तो अंतर है साहेब! 

     काश् वे समझ सकते कि सत्ता के जामुन खाकर कण्ठ नीला कर लेने भर से कोई नीलकण्ठ या नीलकण्ठेश्वर नहीं बन जाता!

     
                                          ***
100, रामनगर एक्सटेंशन देवास 455001