Wednesday, 5 September 2018

गमगीन होने से पहले गमगीन दिखना बड़ी कला है राजनीति में


  व्यंग्य
               शोकसभा  या शौकसभा
                                                                                                ओम वर्मा
किसी विशिष्टजन केअंतिम संस्कार में उपस्थित रहते समय या शोकसभा में श्रद्धांजलि देते समय क्या बोलना,चेहरे पर कैसे भाव रखना और दो मिनट के मौन पर कैसे संयमित रहना... कई बार ये बातें कुछ लोगों के लिए किसी किकी चैलेंज से भी बड़ी चुनौती साबित हो जाती हैं।
       मुझे याद है 11जनवरी1966 का दिन। तब मैं गाँव के स्कूल में 6 ठी कक्षा का विद्यार्थी था। उस सब दूर सुबह से एक ही चर्चा थी कि गत रात ताशकंद में प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री जी का निधन हो गया है। स्कूल में वन्देमातरम् और जनगणमन के तत्काल बाद श्रद्धांजलि स्वरूप दो मिनट मौन रखा गया। तब गाँवों के स्कूलों के बच्चे आज के बच्चों से औसत आयु में तीन-चार साल बड़े हुआ करते थे। हर क्लास में एक-दो ऐसे एबले बच्चे भी होते थे जो ऐसे मौकों पर कुछ न कुछ कुचमात कर देना अपना मौलिक अधिकार समझते थे। तो उस दिन हमें मौन खड़े हुए एक मिनट भी नहीं गुज़रा था कि मेरे पीछे खड़े अनोखीलाल ने जो ऐसे कामों का विशेषज्ञ था, बिल्ली की आवाज़ निकाल दी जिसे सुनकर मुझे हँसी आ गई। तब मेहता सर जो कि पहनावे में पूरे गांधीवादी थे और उनका उसूल था कि कि जब वे एक गाल पर तमाचा मारें तो लड़के को अपना दूसरा गाल भी आगे करना होगा अन्यथा दूसरे गाल पर तीन तमाचे लग सकते थे, ने इसे ‘असहयोग आंदोलन’ मानकर अनोखीलाल को सिर्फ़ एक व हँसने पर मुझे दो तमाचे लगाए थे। आज जब भी जय जवान, जय किसान का नारा कहीं सुनता हूँ तो मुझे शास्त्री जी से पहले मेहता सर याद आने लगते हैं। वो तो अच्छा हुआ कि चाचा नेहरू गर्मी की छुट्टियों में गुज़र गए थे वर्ना अनोखीलाल तब भी किसी न किसी का आराम हराम तो करवा कर ही छोड़ता। 
     फिर बड़े हुए तो लोगों की अंतिम यात्राओं में आना-जाना लगा रहा। हर बार लगा कि श्मशानघाट सिर्फ़ पंचतत्व का पंचमहाभूत में विलय केंद्र ही नहीं है बल्कि यह कई नई कथाओं व रोचक चरित्रों का उद्गम स्थल भी है। जैसे साथ आए लोगों में से अकस्मात एक लकड़ी जमाने का विशेषज्ञ सामने आता है जो दूसरों की जमावट को नए मुख्यमंत्री द्वारा गठित किए जाने वाले नए मंत्रिमंडल की तरह एक बार बदलवाता ज़रूर है। इस बीच फिर एक श्रद्धांजलि विशेषज्ञ प्रकट हो जाता है जो मृतक की इतनी सारी विशेषताएँ गिनाने लगता है कि सुनकर चित्रगुप्त भी सोचने लगते हैं कि काश ये सब दाह संस्कार से पहले पता चल जाता तो इसे वापस लौटा देते क्योंकि ऐसे महान व्यक्ति की अभी मृत्युलोक में ज़्यादा ज़रूरत है।
     मामला अगर किसी वीआईपी का हो और शोक संदेश लिखना पड़े तो जैसा भी याद आए लिख दें, मोबाइल से कॉपी हर्गिज न करें। ऐसी सभा में बोलते समय अपनी आवाज़ को थोड़ा भारी बनाकर श्रद्धांजलि में बहुत वज़न पैदा किया जा सकता है। मानाकि आपको रोना नहीं आया है मगर बोलते समय एक-दो बार रुमाल को आँखों से लगाते रहना चाहिए। जैसे मात्र नाम लिखना याद होने पर आपको साक्षर मान लिया जाता और ऐसे 80 प्रतिशत साक्षारों के कारण कोई जिला पूर्ण साक्षर घोषित कर दिया जाता है, वैसे ही अपनी आँखों से  आपके दो बार रुमाल छुआने भर से प्रेसनोट में आपके वक्तव्य के साथ बर्स्ट इन टु टीयर्स यानी रो पड़ेटाइप का मुहावरा जोड़ा जा सकता है। लेकिन गैर-वीआईपी लोगोंके मामले में बात अलग है। मेरे मुहल्ले में एक व्यक्ति का निधन हुआ। उनके यहाँ जब भी कोईबैठने आता तब बड़ा बेटा जिसने अपनी अलग गृहस्थी बसा ली थी, दहाड़ मारकर रोने लगता था और उन्हें अंतिम समय तक अपने पास रखने वाला सबसे छोटा बेटा चुपचाप बैठा रहता था। आने वाले भी समझ जाते थे कि वे मगरमच्छ के आँसू देखकर आ रहे हैं।
     लोगों की असली परीक्षा तो तब होती है जब किसी वीआईपी के निधन पर उन्हें कई घंटे  सतत बैठे रहना पड़ता है। यहाँ पूरे समय,खासकर कैमरे के सामने आपका मुँह जितना लटका दिखेगा, आपका राजनीति का ग्राफ़ उतना ही ऊपर जाने की संभावना बढ़ जाती है। दुर्भाग्य से कुछ लोगों को यहीं कुछ भूले-बिसरे चुटकुले याद आने लगते हैं। अगर चुनाव सन्निकट हों तो हँसी मतदान होने तक स्थगित रखें वर्ना सोशल मीडिया पर ट्रोल होने में देर नहीं लगेगी। राजनीति में ग़मगीन होने से ज़्यादा ग़मगीन दिखना बड़ी कला है।
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