Tuesday, 31 December 2019
Sunday, 22 December 2019
Saturday, 21 December 2019
Monday, 16 December 2019
सावरकर भारतरत्न अलंकरण के सच्चे हकदार हैं!
सारवरकर
भारतरत्न अलंकरण के सच्चे हकदार हैं!
-ओम वर्मा
ईस्ट
इंडिया कंपनी से शुरुआत कर अपनी साम्राज्यवादी नीति के तहत इंग्लैंड ने कई वर्षों
तक भारत पर न सिर्फ राज्य किया बल्कि अपना एक उपनिवेश बनाकर रख छोड़ा था। देश में
1857 से शुरू हुआ विद्रोह धीरे धीरे फैलता गया और आख़िर 15 अगस्त 1947 को हमें
आज़ादी मिली। स्वतंत्रता की इस लड़ाई में दो धाराएँ समानांतर रूप से काम कर रही थीं-
महात्मा गांधी के नेतृत्व में अहिंसात्मक आंदोलन जारी था तो दूसरी और खुदीराम बोस
जैसे किशोर से लेकर कई अन्य ऐसे वयस्क क्रांतिकारी थे जिन्हें सरकारी ख़जाना लूटने,
संसद में बम फेंकने और अँगरेज अफसरों व मजिस्ट्रेटों की हत्या करने से कोई गुरेज
नहीं था। गांधी जी की प्रेरणा से जनचेतना फैली तो युवा क्रांतिकारियों ने अपने
तरीके से अँगरेजी हुकूमत को नाकों चने चबवा दिए थे। गांधी जी की राह का अपना महत्व
था तो मातृभूमि को गुलामी की जंजीरों से मुक्त करवाने में क्रांतिकारियों के
योगदान को भी किसी भी तरह से कमतर नहीं माना जा सकता। मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि
आज़ादी अहिंसात्मक और उग्र दोनों तरह के आंदोलनों का ही सुफल है।
आज़ादी के आंदोलन की दूसरी धारा के सेनानियों
का जब भी जिक्र होगा, कई नाम सामने आते हैं लेकिन उत्पीड़न भोगने
की जितनी लंबी अवधि वीर सावरकर की रही, उतनी किसी की नहीं रही। देश की आज़ादी के
लिए अपना सर्वस्व निछावर कर देने वाले ऐसे ज्ञात-अज्ञात क्रांतिकारियों को समर्पित
यह पुस्तक वीर सावरकर के विद्यार्थी जीवन से लेकर कालेपानी यानी अंडमान जेल से
रिहाई तक के सारे महत्वपूर्ण, रोमांचक,
साहसी कारनामों व अँगरेजी हुकूमत द्वारा उन्हें
दी गई नारकीय यातनाओं का जीवंत दस्तावेज़ है। सावरकर ने सिखाया कि स्वतंत्रता मिलती
नहीं है, छीननी पड़ती है और उसके लिए किया गया प्रयत्न कभी-कभी
रौद्र अवश्य हो सकता है किंतु उसे नाजायज़ कतई नहीं ठहराया जा सकता।
मुझे
सावरकर जी के बारे में पढ़ना था। एक मित्र ने मुझे समंदर प्राण अकुलाया नामक पुस्तक
दी जिसके मूल मराठी लेखक : रवींद्र सदाशिव भट, हैं और
हिंदी अनुवाद: डॉ. प्रतिभा
गुर्जर ने
किया है। लेखक रवींद्र सदाशिव
भट मराठी साहित्य में एक जाना-माना नाम है। अनेक काव्य संग्रह,
नाटक, लोकनाट्य, कथा फ़िल्मों के लेखक,
अनेक लघुफ़िल्मों के निर्माता, विपुल बाल साहित्य व कैसेट्स के रचयिता
हैं व अनेक पुरस्कारों से सम्मानित भी हैं। उनकी इस पुस्तक को पढ़ना वीर सावरकर पर
किसी वृतचित्र को देखने के समान है। सही देखा जाए तो इतिहास की किताबों का संपूर्ण
खंड ही सावरकर जी के स्वातंत्र्य तत्वज्ञान से भरा पड़ा है। वीर सावरकर ने 10000 से अधिक पन्ने मराठी भाषा
में तथा 1500 से अधिक पन्ने अंग्रेजी में
लिखे हैं। उन पर लिखी पुस्तक पर चर्चा करने से पहले यहाँ उपस्थित सज्जनों को वीर
सावरकर जी के बारे में एक बहुत महत्वपूर्ण, रोचक व सामयिक
जानकारी देना चाहूँगा। क्या आप जानते हैं कि महान सुर साम्राज्ञी लता
मंगेशकर जो भारत रत्न से भी अलंकृत हैं,
किसकी प्रेरणा से गायकी में आईं? लता
जी के साक्षात्कार पर आई एक ताजा पुस्तक में उन्होंने स्वयं खुलासा किया है कि
उन्होंने सावरकर जी के सम्मुख समाजसेवा के क्षेत्र में प्रवेश करने की इच्छा
व्यक्त की थी। मगर उनकी सलाह पर पार्शगायन में किस्मत आजमाई जिसका परिणाम सबके
सामने है।
विनायक दामोदर सावरकर (जन्म 28 मई 1883) नाम
के इस सरल बुद्धि बालक का क्रांतिकारी जीवन का आरंभ हम उनकी आयु के 14-15 वें वर्ष
से मान सकते हैं जब उन्होंने देवी की
प्रतिमा के सामने यह शपथ ली कि “भारत के स्वातंत्र्य के लिए मारते- मारते मरने
तक जूझूँगा।“ इस शपथ के
माध्यम से उन्होंने अपनी पीढ़ी में नवीन
विचारों का मंत्र फूँक दिया। था। आगामी 26 फरवरी 2020
को उनके निधन को 54
वर्ष पूरे हो जाएँगे। दुर्भाग्य से इस कालखंड
में उनके महान त्याग, क्रान्ति
के लिए किए गए साहसिक कार्य, गहन
राष्ट्रनिष्ठा, व प्रेरणादायक विचारों की महत्ता को समाज
में वह स्वीकृति या सम्मान नहीं मिला जिसके वे वास्तविक हकदार थे। आज देश से अधिक
से अधिक ‘लेने’
व कम से कम ‘देने’
की मानसिकता के चलते ‘मैं’
का ही अस्तित्ववादी विचार सर्वत्र दिखाई दे रहा है। ‘मैं’
के स्थान पर ‘हम’
का विचार करना आज समय की
आवश्यकता है। मातृभूमि के प्रति निष्ठा जाग्रत करने के लिए हमें भेंड़चाल चलते
भारतीय जनमानस के सम्मुख लिए उनके सम्मुख
क्रांतिकारियों के रोमहर्षक चरित्र रखना चाहिए।
स्वतंत्रता का वर्णन करते हुए सावरकरजी ने ‘अमर स्वतंत्रता स्त्रोत’ में कहा है कि “जो भी उत्तम है,
उदात्त है, उन्नत है वही महान और मधुर है।“ लेखक की कामना है कि स्वातंत्र्यवीर
सावरकर के क्रान्ति पर्व से नई पीढ़ी प्रेरणा ले और अंधकार से प्रकाश की ओर अग्रसर
हो।
उनका संपूर्ण जीवन ही अद्भुत और अलौकिक
प्रसंगों से भरा पड़ा है। उनके समय लॉर्ड वेव्हेल ने उनके बारे में कहा था कि “इतनी
अघोरी यातनाएँ भोगकर भी, तरोताजा बुद्धि रखकर पूरे भारत का तूफानी
दौरा करने की ताकत इस आदमी में आख़िर कहाँ से आई?”
हृदय की धड़कनें जहां बंद हो जाएँ ऐसी अँधेरी कोठरी में,
लिखने के कोई भी साधन न होते हुए भी ‘कमला’,
‘विरहोच्छवास’, ‘गोमंतक’
जैसी एक से बढ़कर एक उत्तम विचारों और उपमा,
उत्प्रेक्षा अलंकारों से युक्त रसपूर्ण काव्यों की रचना उन्होंने की। रवींद्र जी ने अपनी पुस्तक में सावरकर
और तिलक जी के बीच हुए संवादों की भी रोचक प्रस्तुति है। उनके शि. म. परांजपे व न.
चि. केलकर के बीच हुए वाद-विवादों का अत्यंत सुंदर शब्द रूप जीवंत करने में
रवींद्र जी सफल हुए हैं। पुस्तक में लेखक ने सावरकर के सिर्फ क्रांतिकारी पक्ष को
उभारा गया है, उनके वैयक्तिक जीवन को कहीं भी नहीं
उभारा गया है। उपन्यास भारत भू के स्वर्णिम इतिहास के पुण्य स्मरण से आरंभ होता है
और अंडमान से उनके लौटने पर समाप्त होता है। लेखक ने पुस्तक का शीर्षक ‘सागरा प्राण तळमळला’
सावरकर जी की इसी नाम की अमर काव्य रचना के नाम पर रखा है।
उनके बाल्यकाल की घटना है जब उनके मन का यह चिंतनआकार लेता है कि हर विजयादशमी
को शास्त्रों की पूजा क्या मात्र परंपरा का निर्वाह है?
चंडी के चरणों पर रक्ताभिषेक कौन करेगा। गीता का कर्मयोग आधुनिक अर्जुनों को कौन
सा वासुदेव बतलाएगा और कहेगा-“मा S
मनुस्मर युद्धयच!” (मेरा अनुसरण कर,
युद्ध कर!) जब
उनके पिता की आयु 40-42 ही थी कि सावरकर अपनी माँ को भी
खो देते हैं। ऐसे में उनके दर्जी समाज
के मित्र के यहाँ उनके भोजन करने का प्रसंग छुआछूत के प्रति उनके उदार दृष्टिकोण को
दर्शाता है। इसी में विजयादशमी पर घर में शस्त्र-पूजा पर जिलाधीश द्वारा नोटिस जारी
कर दिए जाने से किसी आगामी संकट
की आहट भी सुनाई देती है।
बड़े भाई और बहिन की शादी
हो जाती है। तभी चाफेकर बंधुओं द्वारा दो अँगरेज अधिकारी
रेण्ड और आयर्स्ट का वध कर दिया जाता है जिससे उन्हें फाँसी की सजा सुना दी जाती है। यह घटना उनके क्रांतिकारी जीवन के लिए प्रेरणास्रोत बन जाती है।
यहाँ वे चाफेकर बंधुओं की शहादत से उद्विग्न
हो उन पर काव्य रचना करते हैं। यहाँ यह विनायक के अंदर एक क्रांतिकारी
विचारधारा का पनपना प्रारंभ हो जाता है। फिर वे पुणे
प्रवास तथा लोकमान्य तिलक जी से पहली मुलाक़ात करते हैं। तभी प्लेग
का प्रकोप हो
जाता है। यहाँ उनके पिताश्री द्वारा
तुकाराम दर्जी की सेवा- सुश्रुषा की
जाती है। महामारी के नाम पर
अँगरेजी सरकार भारतीयों का उत्पीड़न करती है व
अंत में प्लेग रोगियों की सेवा करते करते विनायक के पिटाश्री का भी निधन हो जाता है।
यहाँ
उनके अंदर मोह छोड़ने का विचार जन्म लेता है। पिता की मृत्यु के बाद प्लेग से ही उनके काका भी गुज़र
जाते हैं और संक्रमण भतीजे को भी घेर लेता है। तब उन्हें काया के नश्वर होने का
एहसास होता है। जीवन की यही निस्सारता उन्हें चाफेकर बंधुओं,
रानडे व वासुदेव बलवंत के छोड़े अधूरे काम को आगे चलकर पूरा करने की प्रेरणा देती
है। घर वापसी पर वे देखते हैं कि उनके व काका के परिवार में निकट के रिश्तेदारों
द्वारा ही चोरी कर ली गई है। इससे दुःखी होकर उन्हें आख़िर गाँव छोड़कर नासिक आने पर
मजबूर होना पड़ता है। फिर वे इटली के स्वाधीनता सेनानी मझिनी का चरित्र पढ़ते हैं जो
उनमें एक नई ऊर्जा का संचार कर देता है। नासिक में विनायक द्वारा ‘राष्ट्रभक्त समूह’
नामक गुप्त क्रांतिकारी संघटन का गठन किया जाता है जिसकी साप्ताहिक बैठक होने लगती हैं। उन्होंने समूह के कार्यालय में एक दीवार पर तात्या
टोपे, रानी लक्ष्मीबाई व नानासाहेब पेशवा जैसे स्वतंत्रता
सेनानियों के चित्र लगाए जिसके सामने की दीवार पर गणेश और दत्तात्रेय जैसे देवताओं
की तस्वीरें लगाईं। उनका कहना था कि “आज हमें इन स्वातंत्र्यवीरों का मनःपूर्वक
स्मरण करना चाहिए। देवताओं के उत्सव,
जयंतियाँ मनाते समय इन नरवीरों की भी स्तुति गाई जानी चाहिए। क्रांतिकारियों की ये
कथा शिवलीलामृत से अधिक सरस है और उनके वचन वेद की सूक्तियों की तरह प्रभावशाली
हैं।” नासिक में फिर प्लेग फैला तो बड़े भाई ने जिद करके
विनायक व छोटे भाई को मामा के घर कोठूर भिजवा दिया। यहाँ यह लाभ हुआ कि मामा के संग्रह
से विनायक ने होमर के इलियड से लेकर रामदास के दासबोध तक के अनेक
ग्रंथ पढ़ डाले। गोदावरी के तट पर बैठकर मोरोपंत के ‘गंगावकिली’
की तरह ‘गोदावकिली’
रच डाली। प्लेग का आतंक कम होने पर वापस नासिक
लौट गए। रानी विक्टोरिया का निधन और एडवर्ड का राज्याभिषेक होने पर सरकार
के कुछ ‘वफादार’ लोग
पहले शोक व बाद में खुशी मनाते हैं तब दोनों बातों में सावरकर लोगों को दूर रहने
की सलाह देते हैं। फिर स्वयं के विवाह को लेकर दुविधा,
विवाह के बाद पुणे के फर्ग्युसन कॉलेज में प्रवेश लिया जहाँ अध्ययन के दौरान
अँगरेजी पढ़ाने वाले शिक्षक से विवाद हुआ जिसके लिए अनुशासनात्मक कार्रवाई का सामना
करना पड़ा। यहाँ रहकर कई पुस्तकों का अध्ययन तो किया ही,
उनके क्रांति के अभियान को भी बल मिला।
सिंहगढ़ दुर्ग की सैर
कर तानाजी मालुसरे की शौर्य गाथा और उस पर पोवाड़ा रच देते हैं। यहाँ दो सौ युवकों द्वारा ‘अभिनव
भारत’ नामक संस्था की स्थापना की जाती है। इसी
बीच सावरकर पिता बन जाते हैं। लोकमान्य तिलक जी की प्रेरणा से बंग भंग आंदोलन के
प्रति सहानुभूति जताने के लिए विदेशी वस्त्र एकत्र कर होली जलाई जाती है। फलस्वरूप
प्रिंसिपल परांजपे द्वारा उन्हें दस रु. जुर्माना और छात्रावास से निकालने का दंड दे
दिया जाता है। इसके विरोध में तिलक ने अपने अखबार ‘केसरी’ में “यह हमारे गुरु नहीं हैं!” शीर्षक से
संपादकीय लिखा। बाद में साप्ताहिक ‘विहारी’
के संपादक श्री फाटक से
मुलाक़ात होती है जो जिनके आग्रह पर उनके पत्र के लिए लिखना स्वीकार कर लेते हैं। फिर
09 जून 1906 का वह ऐतिहासिक दिन जब परिजनों को छोड़कर बैरिस्टरी पढ़ने के लिए
इंग्लैंड प्रवास किया। फ्राँस पहुँचते ही उन्हें पुणे में पढे वहाँ के
क्रांतिकारी जोसेफ़ मेझिनी याद आने लगता है। उनके मन में क्रांति का
बीजारोपण करने में उस पुस्तक का भी हाथ था। इसलिए वे उसके चरित्र को लंदन में जाकर मराठी में उतारने
का विचार करते हैं। पं. श्यामजी कृष्ण वर्मा द्वारा लंदन में स्थापित ‘इंडिया हाउस’
वहाँ भारतीय राजनीति का
आखाड़ा थी। राष्ट्रीय विचारों को गतिशील बनाने में सहयोग देने वाली इस संस्था में
प्रवेश पाकर तो वे जैसे ‘कृतकृत्य’
हो गए। वहीं रहकर ‘अठारह सौ सत्तावन का स्वतंत्रता समर’ नामक
ग्रंथ भी लिखा। एडिनबरो जाकर रूसी क्रांतिकारियों से बम बनाने की तकनीक जानी। जिसे
हेमचंद दास और होतीलाल वर्मा के हाथों भारत पहुंचाया गया। जहाँ
मिदनापुर एक्स्प्रेस पर इसका पहला प्रयोग किया गया। इसी सिलसिले में बाद में खुदीराम
बोस व अन्य चौंतीस क्रांतिकारी युवक पकड़े गए। इस प्रकार भारत में क्रान्ति का
शंखनाद हो जाता है। 10 मई 1908 को ‘इंडिया हाउस’ में 1857 के भारतीय राष्ट्रीय उत्थान का पचासवाँ वार्षिक दिवस मनाया गया। लोकमान्य
पर मुकदमा चलाकर उन्हें 23 जुलाई को छह वर्ष की कालेपानी की सजा सुनाई गई। इससे
सावरकर की क्रांति भावना और बलवती हो उठती
है।
‘अठारह सौ सत्तावन का स्वतंत्रता समर’ भारत में छपवाने के लिए उनके भाई ने बहुत प्रयास किए
मगर सफलता नहीं मिली। आख़िर जर्मनी की एक प्रेस में छपवाई तो वहाँ प्रूफ़ की अनेक
गलतियाँ हो गईं। अंततः हालैंड जैसे स्वतंत्र राष्ट्र में वह छप सकी। वहाँ से इसे ‘डॉन क्विकझोट’
व ‘पिक् विक् पेपर्स’
के आवरण चढ़ाकर यहाँ बुलवाया गया जिसे बाद में ‘हैंड
टु हैंड’ कई संबंधित व्यक्तियों तक पहुँचा दिया गया। फिर
इंग्लैंड में बेटे की मृत्यु का दुःखद समाचार मिलता है। वे इंग्लैंड से भारत चतुर्भुज के हाथ पिस्तोल भेज देते हैं। यहाँ भाई को कालेपानी की सजा मिल जाती है। इन तमाम प्रसंगों
से अन्य कोई टूट सकता था
मगर वे सावरकर ही थे जो और मजबूत होते चले गए।
इधर
खुदीराम बोस,
प्रफुल्लचंद चाकी को फाँसी हो
जाती है जिसका व बाबा (सावरकर
के बड़े भाई), तिलक तथा परांजपे की कालापानी की सजा का
प्रतिशोध लेने के लिए मदनलाल धींगरा द्वारा कर्ज़न वायली व डॉ. कावस लालकाका का वध,
बाबा को कालेपानी की सजा सुनाने वाले जेक्सन का अनंत कान्हेरे द्वारा वध और
इस कथित अपराध के लिए कान्हेरे, कर्वे और देशपांडे को ठाणे जेल में
फाँसी। यहाँ से सावरकर के जीवन का दूसरा अध्याय शुरू होता है। ।
इन क्रांतिकारियों को पिस्तोल उपलब्द्ध करवाने वाले कथित अपराधी विनायक दामोदर
सावरकर की पुलिस को तलाश...! इधर मातृभूमि से दूर सावरकर का मातृभूमि की स्मृति को
लेकर सागर से संवाद जो उनकी अमर काव्य रचना ‘सागर
प्राण तळवळला’ के रूप में सामने आती है। चूँकि अपने सभी साथियों को
वे कालापानी या फाँसी के अलावा कुछ नहीं दे सके इसलिए फ्राँस जैसी
सुरक्षित भूमि का मोह छोड़कर इंग्लैंड प्रस्थान कर जाते हैं,
जहाँ विक्टोरिया स्टेशन पर सीआईडी अधिकारी मेक्कार्थी और पार्कर उनकी गिरफ्तारी के
लिए तैयार खड़े थे। यहाँ से उन्हें ब्रिक्सटन जेल भेज दिया जाता है। यहाँ से भारत
सरकार के अनुरोध पर उन्हें भारत ले जाने के लिए अँगरेज अधिकारी पार्कर को अपने दल
के साथ भेजा जाता है। लंदन से फ्राँस के मार्सेलिस पोर्ट पर पहुँचने पर वे बोट के
शौचकूप से पलायन का दुःसाहस कर बैठते हैं मगर भागते समय पकड़ लिए जाते है। बाद में
बोट में लाकर उन्हें पिंजरे में क़ैद करके ले जाया जाता है। फिर भारत में मुकदमा चलता है जिसमें एक आरोप में
24 दिसंबर को और दूसरे आरोप में 30 जनवरी 1911 को यानी कुल दो बार
कालेपानी की आजीवन कारावास की सजा सुनाई जाती
है। सजा के अनुसार उन्हें
1910 से 1960 तक कुल 50 वर्ष तक अंडमान-निकोबार द्वीप की सेल्यूलर जेल में रहना
था। जेल में उनकी पहचान कैदी नंबर 32778 के रूप में थी।
जेल में उन्हें जो यातनाएँ दी गईं,
उन पर अलग से कई ग्रंथ लिखे जा सकते हैं। जिसकी शुरुआत डोंगरी जेल से ही हो चुकी
थी जहां उनके सामने नारियल की जटाओं का ढेर रख दिया जाता था जिसे उन्हें दुपहरी के
भोजन से पहले कूटकर रखना होता था। मगर इसके बावजूद उन्होंने बिना कागज –कलम के
सिर्फ अपने स्मृति पटल पर ‘गुरु गोविंदसिंह’ और ‘सप्तर्षी’
जैसी काव्य रचनाएँ पूरी की। डोंगरी से ठाणे की जेल में स्थानांतरित कर दिया गया
जहाँ के सफाई कर्मचारी ने उन्हें गुप्त रूप से छोटे भाई जो उसी जेल में बंद था,
की लिखी चिट्ठी लाकर दी। भाइयों में मुलाक़ात का तो सवाल ही नहीं था। बाद में उनके
सहित कई क़ैदियों को रेल से मद्रास जहाँ से ‘महाराजा’ नामक बोट से उन्हें अंडमान-निकोबार पहुँचा दिया गया। अंडमान
की काल कोठरी में जहाँ कोल्हू चलाने और छिलके कूटने तक का काम करना पड़ता था वहीं दीवार
पर कील की मदद से ‘कमला’
काव्य का जन्म हुआ। जेल
के एक सहृदय कर्मचारी की कृपा से तीन-चार साल बाद कोल्हू के पास बड़े भाई से
मुलाक़ात, मुंबई
विद्यापीठ द्वारा उनकी बीए की डिग्री व ब्रिटिश सरकार द्वारा उनकी वकालात की
डिग्री रद्द करना...! हद तब हो गई जब जॉर्ज पंचम के गद्दी पर बैठने का जश्न दिल्ली
में ज़ोर शोर से मनाया जा रहा था और इस खुशी में अंडमान के 183 क़ैदियों की सज़ा रद्द
कर दी गई, 230 क़ैदियों को प्रतिवर्ष एक माह का
पेरोल मंजूर किया गया, लेकिन विनायक दामोदर सावरकर के साथ किसी
भी प्रकार की कोई रियायत नहीं बरती गई। साहबों के शौचालयों में प्रयुक्त हो चुके
अखबार के टुकड़ों, सुपरिंटेंडेंट व जेलर के यहाँ काम करने
वाले क़ैदियों और हर माह आने वाले राजनीतिक क़ैदियों से ही उन्हें बाहरी गतिविधियों
की नई नई जानकारियाँ मिल पाती थी।
जब 1914 में विश्व के भूगोल पर माहायुद्ध के
बादल मँडराने लगे तो यहाँ भी हलचल शुरू हुई। इस परिप्रेक्ष्य में सावरकर ने आठ-दस
दिन विचार मंथन करके सरकार को आवेदन भेजा जिसमें मुख्य माँग यह थी कि “अगर
इंग्लैंड सच में भारत को दासता से मुक्त करने के लिए तैयार है तो सरकार को सभी
राजनीतिक बंदियों को रिहा कर देना चाहिए। हम वचन देते हैं कि सेना में भर्ती होकर
किसी भी रणक्षेत्र में जाने को मना नहीं करेंगे।“ लेकिन यहाँ भी सरकार ने
आजीवन कारावास वालों को अच्छे व्यवहार होने पर चौदह साल की सजा पूर्ण होने पर
रिहाई, पाँच साल की सजा पूर्ण होने वालों को खुद का खाना
पकाने की सुविधा तो दी मगर इनमें से कोई भी छूट सावरकर पर लागू नहीं की गई। एक
अकेले मुस्लिम कैदी के नमाज पढ़ने पर साथ के कैदी द्वारा बात करने पर व्यवधान होने
पर वे सामुदायिक नमाज पढ़ने की व हिंदू क़ैदियों को सामुहिक रूप से रामधुन
गाने की सलाह देते हैं। इसी बीच लोकमान्य तिलक के निधन का दुःखद समाचार मिलता है
जो उन सहित सभी क्रांतिकारियों को व्यथित कर देता है।
फिर देश भर में चल पड़ता है सावरकर की रिहाई
के लिए हस्ताक्षर अभियान। गांधी जी ने ‘यंग
इंडिया’ में राजनीतिक क़ैदियों की रिहाई का
तर्कसंगत रूप से समर्थन किया। वही ‘महाराजा’
बोट जो उन्हें यहाँ लाई थी, वापस मद्रास ले जाकर छोड़ देती है।
10 नवंबर 1957 को नई दिल्ली में आयोजित हुए, 1857 के प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के शाताब्दी समारोह में वे मुख्य वक्ता रहे। 08 अक्टूबर 1959 को उन्हें पुणे विवि ने डी ०.लिट० की मानद उपाधि से अलंकृत किया। 08
नवंबर 1963 को इनकी पत्नी यमुनाबाई का निधन हो गया। फिर उन्हें जब तेज ज्वर ने आ घेरा तो
स्वास्थ्य निरंतर गिरने लगा। लिहाजा 01फ़रवरी 1966 को उन्होंने मृत्युपर्यंत उपवास कर इच्छामृत्यु प्राप्त करने का निर्णय
लिया। और इस प्रकार यह महान स्वतंत्रता सेनानी 26 फ़रवरी 1966 को मुंबई में महाप्रयाण कर गया। उन
पर कुछ लोग 1910 के बाद ब्रिटिश सरकार का एजेंट होने का आरोप लगाते हैं लेकिन हमें
यह नहीं भूलना चाहिए कि अगर ऐसा था तो उन्हें 04 जुलाई 1911 से 21 मई 1921 तक,
यानी पहले की सजा कुल 11 वर्ष अंडमान जेल में रहकर नारकीय यातना क्यों भुगतना पड़ी?
अपनी
माफी माँगने को जायज ठहराते हुए वे अपनी आत्मकथा में स्वयं लिखते हैं कि “अगर
मैंने जेल में हड़ताल की होती तो मुझसे भारत पत्र भेजने का अधिकार छीन लिया जाता।“ उनकी
भगतसिंह से तुलना करना दोनों के साथ अन्याय होगा। भगतसिंह ने बहरी सरकार को सुनाने
के लिए बम फोड़ा था जिसमें सफल रहने के बाद उन्होंने तय कर लिया था कि उन्हें फाँसी
का फंदा चाहिए। दूसरी तरफ सावरकर बाहर नहीं आते तो कारावास में ही उनकी मृत्यु
निश्चित थी। जाहिर है कि वे बाहर आकर अपने अभियान को जारी रखना चाहते थे। इस समग्र
योगदान को देखते हुए सरकार अगर उन्हें भारतरत्न अलंकरण देती है तो क्या ग़लत
है। ***
ब्लॉग omvarmadewas.blogspot.in
संदर्भ
पुस्तक : समंदर
प्राण अकुलाया ,
मूल
मराठी लेखक : रवींद्र सदाशिव भट,
अनुवादक:
डॉ. प्रतिभा गुर्जर
प्रकाशक
: स्वराज संस्थान संचालनालय, संस्कृति विभाग, मध्यप्रदेश शासन,
भोपाल।
मूल्य:
₹ 200/-
Saturday, 7 December 2019
Friday, 6 December 2019
Subscribe to:
Posts (Atom)