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Saturday, 14 November 2020
Saturday, 7 November 2020
Tuesday, 3 November 2020
पुस्तक समीक्षा, 'वे रचनाकुमारी को नहीं जानते!'(शांतिलाल जैन)
पुस्तक का नाम - वे रचनाकुमारी को नहीं जानते!
लेखक – शांतिलाल जैन
नए प्रतिमान स्थापित करती व्यंग्य रचनाएँ
व्यंग्य लेखन में शांतिलाल जैन एक जाना पहचाना व स्थापित नाम है। वे अनेक पुरस्कार व सम्मानों से अलंकृत हैं। यह व्यंग्यकार का चौथा संग्रह है जिसकी भूमिका अपने समय के श्रेष्ठ व पद्मश्री सम्मान से अलंकृत व्यंग्यकार डॉ ज्ञान चतुर्वेदी जी ने लिखी है। ऐसे में जहाँ संग्रह एक ओर पाठक से अधिक सजगता व सतर्कता से पढे जाने की माँग तो करता ही है, दूसरी ओर लेखक से भी उसकी अपेक्षाएँ कुछ ज़्यादा ही हो जाती हैं।
सबसे पहले हमारा सामना होता है ज्ञान सर की इस टिप्पणी से - “व्यंग्य चूंकि समाज, सत्ता और संबंधों की विसंगतियों से उत्पन्न बेचैनी, विद्रोह और प्रतिकार का ही लेखन है...हर नई रचना में वे (शांति भाई) कुछ अलग, कुछ आगे, कुछ बेहतर, कुछ कमाल के नज़र आते हैं…नए व्यंग्यकारों को उनसे यह सीखना ही होगा कि कैसे एक लेखक अपनी बेचैनी को निरंतर जीवित रख पाता है, और कैसे वह उस बेचैनी को रचनात्मक पागलपन में बदलता है?”
यह तो वह बात है जो उनके लिए सर ने कही। संग्रह से गुज़रने के बाद सर की किसी भी बात से असहमत नहीं हुआ जा सकता। मगर मैं यहाँ वह बात कहूँगा जो मैंने, यानी व्यंग्य के एक पाठक ने महसूस की।
संग्रह का पहला व्यंग्य ‘आधुनिक भारत के इतिहास लेखन में जवरसिंग का योगदान’ ऐसे अति उत्साही लोगों पर तीक्ष्ण कटाक्ष है जो सोशल मीडिया पर आने वाली किसी भी पोस्ट पर भरोसा कर लेते हैं और उसे बिना जाँचे परखे फैलाने लग जाते हैं। ऐसी भ्रामक सूचनाओं के आधार पर वे स्वयं को महाज्ञानी समझने लगते हैं। ‘एक रूह जो कुछ भी नकार सकती है’ में उन पर तंज़ है जिनका चिंतन इतना नकारात्मक हो चुका है कि किसी भी बात को सुनते ही उनका पहला जवाब उसे नकारना ही होता है। यह ठीक वैसा ही जैसे राजनीति में कुछ लोग सिर्फ़ विरोध करने के लिए ही विरोध करना अपना धर्म समझते हैं। सत्ता के सुर से सुर नहीं मिला पाने पर बुद्धिजीवी की जो फजीहत होती है वह ‘नया इंडिया : बुद्धिजीवी होना अब एक गाली है” शीर्षक व्यंग्य में देखी जा सकती है। टीवी के टॉक-शो इन दिनों दंगल के अखाड़े बने हुए हैं। इस पर शांति भाई जबर्दस्त चुटकी लेते हैं व्यंग्य ‘प्राइम-टाइम के बिजनेस में पेलवान का परवेस’ में। आईटी सेक्टर में नौकरियों की खोखली चकाचौंध है उस पर निशाना साधा है व्यंग्य ‘नई परिकथा’ में। कुछ व्यंग्यों की आगे दी जा रही पंच लाइनों को देखकर हमें मानना पड़ता है कि वे ज्ञान जी द्वारा व्यक्त किए गए विश्वास पर खरे उतरते हैं-
“काली कराने और मशीन का खटका दबाने के बीच के तीस सेकण्ड में जीडीपी याद नहीं रहती, जाति याद रहती है...हमारे युग में न जीडीपी हुआ करे थे न चुनाव होते तो एक-दो चुनाव तो इसी मुद्दे पर निपट जाते कि चौदह साल के भरत भाईसा के कार्यकाल में जीडीपी ज़्यादा बढ़ी कि बड़े भैया के अयोध्या वापस आने के बाद विकास तेज़ हुआ।”
“...तब कोई क्यों सुनें तुम्हारी चीख? सुनने को इतनी बेहतरीन चीजें हैं तो – बिग बॉस के घर की गंदी-गंदी गालियाँ, आराध्या-तैमूर की राइम्स, बॉयफ़्रेंड बदलती सेलिब्रिटीज की सिसकियाँ...धरती भी इंसानों सी हो चली है- वो तब भी नहीं फटी जब तुमसे खिलौनेवाली गुड़िया के बॉडी-पार्ट्स पर उँगली रखवा-रखवा कर क्राइम सीन क्रिएट करवाया गया। ये देश प्रिया प्रकाश की एक आँख के इशारों की भाषा तो समझता है, तुम्हारे संकेतों को नहीं...वो (विपक्ष) उन सारी आवाज़ों को सुनता है जिन्हें प्रतिध्वनित करवा कर ईवीएम का बटन दबवाया जा सकता है।” (मूक-बधिर तुम नहीं हो...!)
बच्चों को मोबाइल पकड़ाने में ही अपने मातृत्व सुख को तलाशने वाली आधुनिक माताओं पर बहुत सशक्त व्यंग्य है ‘मॉम है कि मानती नहीं’। इसे पढ़कर मेरे मुँह से बरबस ही निकल गया-
“बच्चों से माँ छीन ली, दिया हाथ में पैड।
नहीं जानती मॉम अब, क्या गुड है क्या बैड॥”
नेताओं के मन में एन चुनाव के समय उमड़ता दलित प्रेम (दलित प्रेम का पाठ), शहरों में बाज़ारों में बढ़ता अतिक्रमण (रोमांच पैदा करते दर्रे), देश की हर प्राचीन कथा में विज्ञान की सर्वोच्चता तलाशने की सनक (रिलेटिंग मॉडर्न इंडिया विद प्राचीन भारत) जैसे आम विषयों पर लिखे गए व्यंग्यों में भी लेखक द्वारा अपनी बात कह जाने का कौशल और उनका सरोकार स्पष्ट दिखाई देता है। हमारे यहाँ सबसे आसान काम है बिन माँगे राय देना’। अगर कोई बीमार पड़े तो हालचाल पूछने वाले इतनी तरह तरह के उपचार बताने लगते हैं कि लगने लगता है कि चिकित्सा विज्ञान की किताबें फिर से लिखी जानी चाहिए। परसाई जी के टाँग टूटने वाले व्यंग्य की याद दिलाता उनका यह व्यंग्य ‘मुझे दिल का दौरा क्यों पड़ा...’ ऐसे ही तमाम रायचंदों को उजागर करता है। ‘महिला संगीत में बॉलीवुड’ व्यंग्य का विषय भले ही नया न हो, मगर इसे भी लेखक ने अपनी विशिष्ट शैली से रोचक बना दिया है। अपनी टीआरपी बढ़ाने के चक्कर में टीवी चैनल वाले कैसे कैसे प्रपंच रचने लगते हैं, यह व्यंग्य ‘बाढ़ का कवरेज : कवरेज की बाढ़’ में देखा जा सकता है।
“रफ्ता रफ्ता दोस्ताना इंसानों से सामानों में शिफ्ट होता जा रहा है। किसी पुराने दोस्त के मिलने से चेहरे पर चमक आए न आ, स्किन फ़्रेंडली साबुन से घिसने से ज़रूर आ जाती है।” यह चुटकी लेखक ने बाज़ार के बदलते स्वरूप को लेकर लिखे आए व्यंग्य ‘सब कुछ फ़्रेंडली है यहाँ फ़्रेंड के सिवा’ में ली है। वैसे तो संकलन के सभी व्यंग्य कुछ न कुछ नई ज़मीन तोड़ते नज़र आते हैं मगर जब ‘जान जब हलक में फँसी हो...’ जैसा व्यंग्य पढ़ता हूँ तो मुझे कहना पड़ेगा कि ऐसी रचना शांति भाई ही लिख सकते हैं। इस व्यंग्य में उस मिडिल क्लास आदमी की मनोदशा का वर्णन है जिसे किसी काम से बड़े ‘साब’ के घर जाना पड़ता है और वहाँ उसका सामना होता है ख़ूँख़्वार किस्म के ‘पेट’ यानी पाले गए कुत्तों से। इस व्यंग्य के कुछ पंच देखें-
“वे मुझसे हिंदी में और बाल्टो को अँगरेजी में निर्देश दे रहे थे...लोअर क्लास बाबू से संपर्क भाषा और कुत्ते से संपर्क भाषा में फ़र्क़ ज़रूरी है...उन्हें यकीन था कि उनका कहा, और वो भी अँगरेजी में कहा, वो टालेगा नहीं...साँप के काटे का मंतर अवेलेबल है, कुत्तों के केस में ये सुविधा उपलब्ध नहीं है...मेजबान करप्शन की कमाई में धँसा हुआ हो तो मेहमान के धँसने लायक सोफ़े लगवा ही लेता है...!” ख़ूँख़्वार कुत्तों के ख़ौफ़ का वर्णन इतना जीवंत है कि मुझे फ़िल्म ‘प्यार किए जा’ का वह दृश्य याद आ जाता है जिसमें महमूद ओमप्रकाश को अपनी हॉरर फ़िल्म की कहानी सुनाते हैं।
‘हम एम्पियंस प्रॉक्सी के चैंपियन’ व्यंग्य में खेलों में चल रही राजनीति पर प्रहार है तो ‘किस्सा कोताह में इस बार रन अगेंस्ट जुकाम’ में नेताओं द्वारा बात बात में दौड़ आयोजित करने पर तंज़ है। ‘मौसम हर समय बेईमान है’ में अंधविश्वास व टोने टोटकों करने वालों के साथ साथ मौसम की ग़लत साबित होती भविष्यवाणियों पर भी व्यंग्य है। ‘मिल जाए तो मिट्टी है, खो जाए तो...’ में उन्होंने एक दृश्य प्रस्तुत किया है कि आप कहीं बाहर हों तो मोबाइल चार्ज न कर पाने की स्थिति में कैसे पंगु हो जाते हैं। ‘पहलवान की टेरेटरी में मेंढकी का ब्याह’ में फिर समाज में व्याप्त अंधविश्वास को विषय बनाया गया है। ‘फ़ेड एंड टेपर : बालों में नया क्रेज’ शीर्षक व्यंग्य में नई आधुनिक व पुरानी पद्धति के केशविन्यास के बहाने जनरेशन गैप पर व्यंग्य है। जनरेशन गैप की इसी समस्या पर अगली रचना ‘पोथी पढ़ि पढ़ि : ढाई से तीन होते अक्षर’ में फिर एक उत्कृष्ट व्यंग्य देखने को मिलता है जब नई पीढ़ी के नौजवान को उन्हें डेटिंग के बारे में समझाना पड़ता है। अगले व्यंग्य ‘बस यूँ ही बैठे-ठाले…’ संग्रह के अन्य व्यंग्यों जैसी बात नहीं बन पाई है। लेकिन इसके बाद आता है ‘प्रवासी मजदूरों का यो यो बीप टेस्ट’ जो एक बेहद कारुणिक व्यंग्य है। मेरी निजी राय है कि करुणा उपजाने वाला व्यंग्य अधिक श्रेष्ठ होता है।
तुकबंदी करके कविता में नाम कमाने वाले कवियों कि एक अलग जमात है और उनका श्रोता वर्ग भी अलग है। वैवाहिक निमंत्रण पत्रिकाओं की तो वे जान होते हैं। ‘जलूल जलूल आना’ टाइप की तुकबंदी रचकर वे निमंत्रण पत्रिका को सभी परिजनों के लिए ‘पठनीय’ बना देते हैं। इन पर एक अच्छी हास्य रचना है-‘विनम्र भावबोध की मनुहारवादी कविताएँ’। ‘पता है हमें- आसान है भारत में व्यवसाय करना’ और ‘साँप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे’ शीर्षक के व्यंग्यों में उन्होंने तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार को उजागर किया है। यह व्यंग्य भी इस विषय पर अन्य कई व्यंग्यकारों द्वारा लिखे गए व्यंग्यों से हटकर है व इसमें नया विचार सामने आता है।
आजकल छोटे-छोटे पारिवारिक आयोजन भी इवेंट में बदल गए हैं। ऐसे में कोई आपको पार्टी में बुलाए और ड्रेसकोड भी निर्धारित कर दे तो आपको कैसा लगेगा? ज़ाहिर है कि मेजबान को आपके आतिथ्य से कोई सरोकार नहीं है। अगर आप में जरा भी स्वाभिमान शेष है तो आप ऐसे आयोजन में जाने से इनकार कर देंगे। (व्यंग्य – ‘मेहमानी, जो सशर्त हो गई है।’)
आजकल वैवाहिक संबंधों में एक नई रस्म चली है ‘प्री-वेड शूट’। इस फूहड़पन का पोस्टमार्टम करता व्यंग्य है-‘मुँह-दिखाई की रस्म का ग्लोबल हो जाना’। अगला व्यंग्य है ‘ये तुम्हारा सुरूर...’, जिसका पहला वाक्य ‘वे रचनाकुमारी को नहीं जानते’ संग्रह का शीर्षक भी है। इसमें भी बड़े सहज ढंग से, लेकिन गहरा व्यंग्य करते हुए लेखक ने अपनी बात कही है। किसी ग़रीब या आम आदमी की बेटी यदि बर्बरता की शिकार हो जाए तो कुछ लोगों के लिए वह रोज़मर्रा की घटना है। उसके लिए आँसू बहाना उनके लिए समय गँवाना है। ‘जब बागड़ ही खेत खाने लगे...’ से पंच देखिए- “सियासत का पहला उसूल है, को कहना है करना नहीं। जो करना है वो होना नहीं। जो होना है वो दिखना नहीं। जो दिखना है वो कहना नहीं। जो कहना है वो करना नहीं। इसे अँगरेजी में गुगली कहते हैं।” दंगें होने पर जननायकों के पास एक ही उपाय बच जाता है- अपील करना। और तमाम अपीलें अब अपना असर खो चुकी हैं। (व्यंग्य-‘अपीलें हैं, अपीलों का क्या!’) फ़ैशन की इस अंधी दौड़ में महिलाओं के पहनावे से आँचल कैसे गायब होता जा रहा है, इस पर एक बहुत उत्कृष्ट व्यंग्य रचना है-‘आँचल : एक श्रद्धांजलि’।
कुछ लोग खुद को अति विनम्र दिखाने के लोभ में ‘मेरे लायक काम हो तो बताना’ अपना तकियाकलाम बना लेते हैं। वास्तव में जब आपको उनसे काम पड़ जाए तो वे किसी भी बहाने से कन्नी काट लेते हैं। (व्यंग्य-‘मेरे लायक कोई काम हो तो ज़रूर बताना’।)
शादी के रिसेप्शनों में यह बहुत आम बात हो गई है कि कई मेहमान खा-पीकर किसी को लिफाफे पकड़ाकर इसलिए चले जाते हैं कि उनके बहुत इंतज़ार करने के बाद भी वर वधू मंच पर आसीन ही नहीं हो पाते हैं। कारण भी आजकल सब बिना पूछे ही जान जाते हैं कि दुल्हन (कभी कभी दूल्हा भी) अभी ब्यूटी पार्लर से नहीं आ पाई है। राजनीतिक दलों में एक दूसरे के महापुरुषों को छीन लेने की होड़ मची हुई है। “कुछ महापुरुषों के सर में तो आसमान से टकराकर गुम्बे निकाल आए हैं। फिर भी आसमान फोड़ देने की होड सी मची है।” (व्यंग्य- ‘जश्न के लिए तैयार देश’।)
कुछ पंच व्यंग्य ‘आँसुओं की भी एक फितरत होती है’ से देखें- “आँसुओं की भी एक फितरत होती है, जब इंसान अपने स्वयं के पीता है तो वे खारे लगते हैं, जब दूसरों के पीता है तो फीके लगते हैं, जब दूसरों के एंजॉय करता है तो मीठे लगते हैं...कुदरत नदी में पानी लाती है, वे मजलूमों की आँख में लाते हैं। मीठे आँसू पीने का चस्का जो है उनको।”
‘चीन में लोकतन्त्र : ये मुँह और मसूर की दाल’ व्यंग्य भारतीय राजनीति का चेहरा उजागर करने वाला व्यंग्य है। ‘किस्सा कोताह में इस बार ख़ैराती अस्पताल’ व्यंग्य में भाषा व शैली का नया प्रयोग तो है ही, साथ ही यह बड़ा कारुणिक भी बन पड़ा है। ‘शिकार होकर खुश है शिकार’ में बाज़ारवाद पर बढ़िया व्यंग्य है। क्लीन चिट के गोरखधंधे पर बहुत ही कसा हुआ व्यंग्य है ’क्लीन चिट’। ‘ईकॉनोसेव मोड में खातून-ए-अव्वल’ व्यंग्य में इमरान खान की पत्नी के आईना प्रेम के बहाने स्त्रियों की अति श्रृंगारप्रियता पर एक ‘घर घर की कहानी’ कहने वाला व्यंग्य है। ‘बैल और खच्चर संवाद’ विकास के नाम पर उजड़ते आशियानों की व्यथा कहता है। इसमें बैल का खच्चर से कहा संवाद देखें- “हाँ, चरनोई की ज़मीन पर एक पाँच सितारा रिसोर्ट बन गया है। हम तो वहाँ घुस नहीं पाते लेकिन सुनते हैं कि चौपायों के कल्याण की योजनाएँ बनाने के सेमिनार, वर्कशॉप, चिंतन, बैठकें सब वहीं होती हैं।”
कुछ लोगों में यह प्रवृत्ति होती है कि ठेले गुमटी वाले से दो-चार रु. की चीज खरीदने में भी भाव-ताव तो करते ही हैं, साथ में तोल में भी नमती ही लेने और बाद में मुफ़्त का धनिया-मिर्ची माँगना अपना जन्मसिद्ध अधिकार, अपनी शान समझते हैं। यही लोग किसी बड़े मॉल में स्वयं ठेलागाड़ी धकाते हुए सामान लेकर लाइन में लगकर अँगरेजी बोलने वाली काउंटर गर्ल को बिना मोल-भाव के भारी बिल चुकाकर उसकी कृत्रिम मुस्कान पर थैंक्यू बोलकर बाहर निकलते समय ऐसा महसूस करते हैं मानों वे एक दिन के लिए रिलायंस ग्रुप के अध्यक्ष बन गए हैं। ऐसे लोगों की चुटकी लेता अंतिम व्यंग्य है ‘जिनके लिए सब्जी खरीदना एक कला है!’
शांति भाई के पास विषयों की विविधता है। कुछ नया करने व बेहतर करने की लालसा उनकी हर रचना में दिखाई देती है। यह संकलन उन्हें मिले तमाम मान-सम्मान व पुरस्कारों को जस्टिफ़ाई करता प्रतीत होता है।
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