Friday, 31 March 2023
जी हुज़ूरी के शोर में खोया दूसरा सार्थक क्षण
-ओम वर्मा
इलाहाबाद हाईकोर्ट का 1975 में इंदिरा गांधी के रायबरेली में चुने जाने पर राजनारायण की याचिका पर फैसला आया जिसमें उनका निर्वाचन अवैध घोषित कर दिया गया था। तब चाटुकारों ने इंदिरा गांधी को ‘वे बनी रहें’ के उद्घोष के साथ ऐसी वैचारिक हिंसा का दौर चला दिया था कि उन्हें एक पल के लिए भी फैसले पर शांति से चिंतन-मनन करने का मौका ही नहीं दिया। नतीजा यह हुआ कि संविधान में संशोधन करके फैसले को ही निष्प्रभावी करवा दिया गया। तब दैनिक नईदुनिया के प्रख्यात संपादक राजेंद्र माथुर ने अपने पत्र में एक ऐतिहासिक लेख लिखा था। ‘जी-हुज़ूरी के शोर में खोया एक सार्थक क्षण’ शीर्षक से लिखे गए इस लेख की स्मृति मेरे मस्तिष्क में बार-बार कौंध रही है।
माथुर जी के लेख का सार यह था कि कोर्ट के फैसले के बाद चाटुकारों ने इंदिरा गांधी को पल भर के लिए भी यह सोचने का अवसर नहीं दिया कि अब पद छोड़ने में ही भलाई है। वह क्षण जिसका उपयोग वे शांतिपूर्वक कोर्ट के फैसले को मानने में कर सकती थीं, वह जी-हुज़ूरियों के शोर में खो गया था। आज राजेंद्र माथुर होते तो निश्चित ही ऐसा ही लेख सूरत की कोर्ट के फैसले को लेकर राहुल गांधी के आचरण पर भी लिखते। उन्हें दो साल की सज़ा उनके मोदी सरनेम को लेकर दिए गए अपमानजनक बयान के कारण दी गई है। उन्हें माफ़ी मांगने का अवसर भी दिया गया। मगर सलाहकारों ने शायद दिमाग में यह धारणा स्थापित कर दी थी कि माफ़ी माँगकर वे जनता की नज़रों में अपराधी मान लिए जाएँगे या यह कि माफ़ी का मुद्दा उन्हें आगामी चुनावों में भारी पड़ सकता है। इन सलाहकारों ने राहुल गांधी के सोच समझ को कुछ ऐसा अवरुद्ध कर दिया कि वे इस फैसले के बाद ख़ुद को शहीद हुए प्यादे से वज़ीर बन चुका मोहरा समझ कर टेढ़ी चाल चल निकले और मगर यहाँ भी उनकी सुई फिर अडानी-अडानी पर ही अटक रही है। हो सकता है कि अगर वे अभियोजन के दौरान पश्चाताप का भाव दिखाते तो शायद माननीय न्यायालय सज़ा की अवधि कुछ कम रख सकता था। मगर जैसा कि बताया गया है, राहुल गांधी माफ़ी माँगकर अपने गांधी ब्रांड का ‘अवमूल्यन’ करवाना नहीं चाहते थे। सच तो यह है कि ‘मोदी सरनेम’ प्रकरण में राहुल गांधी ने वैसे ही मात खाई है जैसी उन्होंने ‘चौकीदार चोर है!’ प्रकरण में खाई थी। तब उन्होंने अदालत में तो माफ़ी माँगी ही थी, मतदाताओं ने भी राहुल को और अंततः कांग्रेस को अपना फैसला सुना दिया था। आज जो लोग कांग्रेस को एक सशक्त प्रतिपक्ष की भूमिका (या सत्ता में) देखना चाहते हैं, वे वरिष्ठ कांग्रेसियों को परिवार के मोह में विलुप्त होने की कगार पर पहुँचाते देख दुखी होने से अधिक और क्या कर सकते हैं।
कांग्रेस फैसले पर ‘ओम शांति लोकतंत्र’ ट्वीट तो करती है, राहुल गांधी महात्मा गांधी के ‘सत्य’ को अपना साध्य व ‘अहिंसा’ को अपना लक्ष्य बताकर ख़ुद को सच्चा गांधीमार्गी साबित करना चाहते हैं लेकिन यह गांधीगिरी तब कहीं नहीं दिखाई देती जब वे देश की जनता द्वारा चुने गए पीएम मोदी पर अमर्यादित भाषा में निजी आक्रमण करने लगते हैं। आज कांग्रेस की रणनीतिकारों और राहुल गांधी के तमाम सलाहकारों को बहुत गंभीरता से बहुत शांत-चित से विचार करने की ज़रूरत है। मगर ये तमाम लोग अपनी एक चाल में राहुल गांधी या कांग्रेस को दो कदम आगे ले जाते हैं तो दूसरी चाल में तीन कदम पीछे ले आते हैं। लाख टके की बात यह है कि फैसला कोर्ट का है न कि सरकार का, जिसके ख़िलाफ़ ऊपर की कोर्ट में तो जाया जा सकता है, काले कपड़े पहन लेने या मार्च निकाल देने से कुछ हासिल नहीं हो सकता। क्या वे यह नहीं जानते कि किसी भी सांसद, वि धायक या विधान परिषद के सदस्य को अगर किसी प्रकरण में दो वर्ष या अधिक की सज़ा सुना दी जाए तो उसकी सदस्यता तत्काल प्रभाव से समाप्त हो जाती है। ऐसे में सांसद प्रमोद तिवारी के बयान को देवकांत बरुआ के बयान की श्रेणी का बयान ही माना जा रहा है जिन्होंने यह कहने में कोई संकोच नहीं किया कि सज़ा पर गांधी परिवार के लिए अलग कानून हो। इस बयान ने कांग्रेस के ग्राफ़ को नीचे लाने का काम ही किया है।
जो कांग्रेस पवन खेड़ा के केस में तत्काल जमानत के लिए दौड़ पड़ी थी, वह राहुल गांधी के प्रकरण में फैसले का इंतज़ार क्यों करती रही, यह विचारणीय प्रश्न है। हो सकता है कि इसके पीछे रणनीति यह हो कि अब जबकि राहुल गांधी पूरी तरह से ‘निष्प्रभावी’ साबित हो चुके हैं तो क्यों न प्रियंका वाड्रा पर दाँव आजमाया जाए। वे यह भूल जाते हैं कि प्रियंका का पिछले चुनाव में ‘लड़की हूँ, लड़ सकती हूँ’ वाला नारा कोई करिश्मा नहीं दिखा सका है और फैसले के बाद उनका नया नारा है ‘नरेंद्र मोदी कायर है!’, और इससे कांग्रेस जनमत को अपनी ओर मोड़ने में सफल होगी, इसमें संदेह करने के पर्याप्त कारण हैं, जो जनता जानती भी है।
अभी तो कुछ राज्यों में कांग्रेस को बीजेपी से अधिक क्षेत्रीय दलों से चुनौतियाँ मिल रही हैं। आज ममता बेनर्जी, नीतीशकुमार, अरविंद केजरीवाल और के.सी.एस.राव जैसे नेता राहुल गांधी की संसद से सदस्यता समाप्त होने पर यह सोचकर खुश हो रहे होंगे कि विपक्षी एकता में नेतृत्त्व का एक दावेदार कम हो गया है। इसी भावना के तहत विपक्षी एकता की ओर कदम भी बढ़ चले हैं। लेकिन राजनीति के ये सारे चतुर खिलाड़ी जानते हैं कि कब कांग्रेस का साथ देना है और कब हाथ झटक देना है ताकि बिल्ली के भाग से अगर चौबीस में छींका टूट जाए तो अधिक से अधिक मलाई खाई जा सके।
लाख टके की बात यह है कि अगर राहुल गांधी अपीलल करके फैसला न बदलवा सके तो इस आठ साल की निर्वासन अवधि में कितने निखरकर सामने आते हैं यह देखना दिलचस्प होगा। अगर वाणी पर संयम रखें तो प्रियंका वाड्रा के लिए एक सशक्त नेत्री की तरह उभरने के अवसर भी सामने हैं।
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