Thursday, 25 October 2012


   व्यंग्य (नईदुनिया, 25/10/12)       
                                   फर्रुखाबाद का अघोषित वन-वे 
                                                             ओम वर्मा  
                                                                       

 नका  दावा है कि हमारे यहाँ आकर तो देखिए, जा नहीं पाओगे । कुछ लोग इस सीधी सादी बात पर 'हत्या की धमकी' की धारा में वाद लगाने की बात कर रहे हैं तो कुछ इसे महज गीदड़ भपकी मान रहे हैं । कुछ इसे ऐसे वरिष्ठ सत्ताधारी की बौखलाहट मान रहे हैं जो खुद तो किसी से कुछ भी पूछ सकता है या बोल सकता है, मगर आपकी किसी भी बात का जवाब देना जिसके उसूओं के ख़िलाफ़ है । पता नहीं लोग क्यों हर बात में कुछ 'बोफोर्स' ढूढ़ने की कोशिश करने लगते हैं और क्यों उनको दाल में पड़ा हर पदार्थ 'काला' ही नज़र  आता है । हर वक़्त काँटे ही काँटे क्यों देखे जाएं  ... एक बार फूल का जिक्र भी तो हो । मरुभूमि पर भी मेघ खोजा जा सकता है ।
               कुछ जगहों व कुछ लोगों में इतना आकर्षण होता है कि वहाँ गए व्यक्ति की वापस लौटने की कभी इच्छा ही नहीं होती । जैसे अँगरेज एक बार जब भारत आए तो उन्हें यहाँ की आबो-हवा और यहाँ की जनता कुछ ऐसी रास आई कि उन्हें वापस लौटने की याद ही नहीं आई । हो सकता है कि कुछ ऐसी ही खासियत फर्रुखाबाद की मिट्टी में भी हो ।वहाँ के तो आलू भी बड़े प्रसिद्ध हैं । और आलू स्वयं सामाजिक समरसता का ज्वलंत उदाहरण है । किसी में भी मिलने को तैयार । या फिर यह भी हो सकता है कि फर्रुखाबाद की शानो-शौकत देखकर कोई 'सड़क छाप' व्यक्ति वहीँ रचने बसने के लिए मजबूर हो जाए । 
               वे आलाकमान के लिए जान देने को तैयार बैठे हैं । धर्मों के अनुसार  जान लेना या देना दोनों ही कर्म हिंसा के पैमाने पर एक समान हैं । मैं आत्महत्या करूं तो ब्रह्महत्या और यदि हत्या करूं तो भी ब्रह्महत्या । शायद उनका भी कुछ ऐसा ही नेक विचार हो । हो सकता है कि उनके व्यक्तित्व और उनकी वाणी में कुछ ऐसा सम्मोहन हो कि वहाँ जाकर हम भी वहीँ किसी'विकलांग' व्यक्ति का भला करने लग जाएं !
             कहीं जाकर वापस न आना तो एक प्राचीन परंपरा है । कृष्ण जब द्वारका गए तो वहीँ के होकर रह गए । इन हज़रत का भी शायद कुछ ऐसा ही आशय हो कि उनका फर्रुखाबाद ऐसी पाक़ जगह है जहाँ जाने वाले को अपने मूल स्थान, दोस्त-अहबाब व माया मोह के बंधनों से मुक्ति मिल जाएगी या दिला दी जाएगी और ऐसे में उसकी वापसी की क्या जरूरत ! फर्रुखाबाद आखिर को शहर ही है, कोई राजनीतिक दल तो नहीं जहाँ आयाराम जी जब चाहें आएं और गयाराम जी जब और जहाँ चाहें चले जाएं ! फर्रुखाबाद के सारे रास्ते अघोषित रूप से 'वन-वे' हैं जहाँ सिर्फ अपनी मर्ज़ी से पहुँचा तो जा सकता है मगर वापसी का कोड  सिर्फ 'उनके ' पास है । 
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Monday, 22 October 2012

  व्यंग्य/ पत्रिका (22/10/12) 
                                               
                                        सलमान जी के पक्ष में 
  
                                                                                      ओम वर्मा                            ये हमारे केजरीवाल जी को आखिर हुआ क्या है ? पंगा और वो भी क़ानून मंत्री से ! क़ानून जिनकी रग रग में है, जिन्होंने क़ानून की ऊँगली  पकड़कर चलना सीखा, और जो बॉस के लिए जान देने का जज्बा रखते हों...उनकी टोपी उछालकर आपने अच्छा नहीं किया अरविंद भाई ! पूरा का पूरा आइएसी एक मासूम व निरपराध के हाथ धोकर पीछे पड़ गया है ! सलमान जी, उनकी बेगम साहिबा या उनके ट्रस्ट ने जो  काम करके दिखाया है वह वाकई 'उत्तर आधुनिक' सोच वाला काम है । हमारे समाज में मृतक की स्मृति में कोई प्याऊ खुलवाता है तो कहीं अन्नदान करने का रिवाज़ है । उन्होंने किसी को मरणोपरांत 'हियरिंग एड' दिलवाया है तो क्या गुनाह किया ? इसे उनके द्वारा मृतक के पिंडदान या श्राद्धपक्ष में दिए जाने वाले 'ब्राह्मंण भोज' की तरह ही लिया जाना चाहिए !   
                             अब वक़्त आ गया है कि इन घोटाले और जाँच  के मुद्दों को महँगाई के मूल्य सूचकांक की तरह घोटालों के मूल्य सूचकांक से जोड़ें । यानी घोटालों का मूल्यांकन पर्सेंटाइल पद्धति से किया जाना चाहिए । जैसे भारतीय इतिहास के कोयला खदान घोटाले को जो कि पत्रकार संतोष भारतीय के अनुसार छब्बीस लाख करोड़ का बैठता है, उसे एक स्टैण्डर्ड या 100 प्रतिशत मूल्य  का माना जाए । बाकी सारे घोटालों का प्रतिशत इसे आधार मान कर जोड़ा जाए । यानी परसेंटेज़ के बजाय हम पर्सेंटाइल की भाषा में बात करें । जाहिर है कि 71 लाख का घपला पर्सेंटाइल की इस स्केल पर अपनी औकात ढूढता नज़र आएगा । इतने कम पर्सेंटाइल पर सलमान खुर्शीद या मोहतरमा लुईस को भारतीय राजनीति के प्रतिष्ठित 'घोटाला महाविद्यालय' में प्रवेश हरगिज़ नहीं दिया जा सकता ।
                            हैदराबाद के निजाम जहाँ खड़े हो जाते हैं, अमीरी की ऊपर से नीचे की तरफ जाने वाली लाइन वहीँ से शुरू होती है । कुछ ऐसे ही फ़ॉर्मेट  में यदि घोटालों का सूचीकरण किया जाए तो सलमान दंपति या उनका ट्रस्ट इत्यादि- इत्यादि तक ही सिमटकर रह जाएगा । हमारे बेनी बाबू ने कितने सहज ढंग से यह बात कही है कि सलमान जी लाखों का घोटाला कर ही नहीं सकते ...कभी करोड़ों में करते तो कुछ सोचा भी जा सकता था । रबर की तरह ढीली ढाली या घुमाने फिराने वाली बात न कहकर इस्पात मंत्री जी ने इस्पात की तरह ठोस इशारा किया है कि खबरों के जिन हिस्सों पर पचास लाख से  तीन साल में तीन सौ करोड़ बनाने वाले दामाद जी का हक़ बनता है, वहाँ आप 71 लाख वालों पर क्यों फुटेज़ बर्बाद कर रहे हैं ?    

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