Sunday, 3 March 2013


व्यंग्य / पत्रिका, 01.02.13 में प्रकाशित  
                  आम आदमी – एक चिंतन
                                 ओम वर्मा om.varma17@gmail.com
“पापा ये आम आदमी क्या होता है ?” बच्चे ने बाप से यक्ष प्रश्न कर डाला । 
     “आम आदमी ...आम आदमी मतलब कि आम आदमी...।”
     “वही तो पूछ रहा हूँ कि ये आम आदमी का मतलब क्या होता है ?” बेटे का पूरक प्रश्न।
     “आम आदमी मतलब कॉमन मेन।” पिताश्री ने बेटे को तुष्टिकरण करने जैसा जवाब दिया।
     “तो कॉमन मेन का ही मतलब बता दीजिए !” बेटे ने भी बाबा रामदेव द्वारा की जा रही काले की वापसी जैसी असंभव माँग सामने रख दी।
     “कॉमन मेन मतलब वो आदमी जो सीधा-साधा हो…गरीब हो जिसके पास ज्यादा महँगी चीजें जैसे फ्रिज, टीवी वगैरह न हो...”
     “क्या बात करते हो पापा ! टीवी, फ्रिज और मोबाइल तो झुग्गी-झोंपड़ियों तक में है... ।” दूसरा बेटा नितिन गड़करी को बचाने के लिए दिए जा रहे ठोस तर्कों की तरह बीच में हस्तक्षेप करता हुआ बोल पड़ा।
     “नहीं मेरा मतलब वो नहीं... आम आदमी जैसे मज़दूर या किसान। यही सच्चे आम आदमी होते हैं।” पिताश्री की आवाज कुछ कुछ तलत मेहमूद जैसी लरजने लगी थी।
     “मतलब कोई आम आदमी की बात करे या उसके साथ अपना हाथ होने का दावा करे या उसके नाम से अपनी पार्टी बनाए तो क्या वो सिर्फ इनके लिए काम करेगा ?” बेटे ने बिना कोई विकल्प दिए पाँच करोड़ का सवाल पूछ डाला।
     पिताश्री ने अकस्मात कान पर जनेऊ चढ़ाई और हमेशा की तरह मेनफ्रेम से क्विट कर गए...! आम आदमी को लेकर ऐसी बहस कमलेश्वर के सारिका के संपादक बनने से लेकर आज तक जारी हैं। मुद्दा अभी भी जेरे-बहस है कि आम आदमी आखिर है कौन ? क्या सिर्फ मज़दूर या किसान ही आम आदमी हैं ? क्या किसानों के लिए खाद बीज उपलब्ध करवाने वाले या इसके लिए सतत वैज्ञानिक अनुसंधान करने वाले वैज्ञानिक आम आदमी की परिभाषा में नहीं आते ? क्या खेलों में पदकों के लिए पसीना बहाने वाले या सीमाओं पर परिजनों से दूर रहकर जान की बाज़ी लगा देने वाले सैन्यकर्मी इन दलों के लिए अवांछनीय हैं? क्या अपने उद्यमों के माध्यम से देश-विदेश में लाखों लोगों को रोजगार उपलब्ध करवाने वाले टाटा, बिड़ला, अंबानी, नारायण मूर्ति या प्रेमजी के बिना देश के आर्थिक विकास की कल्पना की जा सकती है ? अगर पार्टी के लिए एक करोड़ का चंदा देने की औकात रखने वाला भी आम आदमी है तो फिर देश में कोई भी खास नहीं, हर शख्स आम है।                                                  ***
100, रामनगर एक्स्टेंशन, देवास 455001 (म.प्र.) मो. 9302379199

व्यंग्य/ नईदुनिया, 20.02.13
                     प्याज उवाच       ओम वर्मा
प्याज नाम है मेरा...! प्यार से लोग मुझे कांदा भी कहते हैं। आज तक  मैंने आपसे कभी सीधी बात तो नहीं की पर करना चाहता हूँ। वैसे भी अनसंग मेलोडिज़ आर स्वीटर यानी बिन गाए गीत और भी मधुर होते हैं...वैसे ही मेरी अनकही और अनसुनी कहानी भी शायद कुछ ऐसी ही खट्टी मीठी लगे।
     कश्मीर - भारत की तरह मैं भी आपके भोजन का अविभाज्य अंग हूँ। जिस तरह कश्मीर को भारत से अलग करने की साजिशें आज़ादी के बाद से आज तक जारी हैं, उसी तरह मुझे भी नंदा, भेरा और होरी लंग्गड़ों की थालियों से छीनने की या श्रेष्ठिजनों की भाषा में कहूँ तो मेनू से अलग करने के सुप्रयास पिछले कुछ वर्षों से लगातार जारी हैं। कश्मीर के मामले में कई निर्दोष व अमनपसंद लोग हलाक़ जरूर हुए मगर उसे भारत से जुदा नहीं कर पाए ठीक उसी तरह जमाखोर, कालाबाज़ारिए एवं अपने मात्र एक बयान से मेरा भाव आसमान पर पहुँचा देने का दम रखने वाले बयानवीर मुझे मुद्दा बनाकर सरकारें बदलने में भले ही कामयाब हो जाएँ, मगर आपकी थाली से मेरा स्थान अंगद के पैर की तरह न कोई हिला पाया है न ही कोई हिला ही पाएगा ! हाँ, मैं आज गरीबों व मध्यमवर्गीय लोगों की थाली से पूर्ण सूर्यग्रहण के समय लुप्त हुए प्रकाश कि तरह  दूर जरूर हुआ हूँ, मगर मोक्ष होते ही जैसे सूर्य फिर वैसे ही उसी तेज के साथ दमकना शुरू कर देता है, मैं भी कुछ उसी आन बान और शान से वापस लौटूँगा।
     भगवान श्रीराम जब भार्या एवं अनुज के साथ वनवास गए थे तब कंद मूल खाकर भी दिन बिताए थे। मैं भी कंद ही हूँ। मैं लोक जीवन में भी व्याप्त हूँ। लोकोक्तियाँ और मुहावरे मुझसे भरे पड़े हैं। जैसे जब कोई व्यक्ति किसी बात की जरूरत से ज्यादा छिछालेदर या अन्वेषण करे तब कहा जाता है कि, “ज्यादा प्याज़ के मत उतारो”। पहले मालवा अंचल में जब शाम को बच्चे पकड़ापाटी या छुपाछंई  खेलते थे और खेल खत्म होने के बाद जब विसर्जन का समय आता था तब समूह का बड़ा बच्चा मुनादी करने के अंदाज़ में ऐलान करता था –
                    अपना अपना घरे जाव
                    कांदा रोटी खाव
                    नी मिले तो ऊँदरा की पूँछ
                    काटी काटी ने खाव !
    यानी सब बच्चे अब अपने घर जाएँ और प्याज़ रोटी वाला सर्वसुलभ भोजन करें। और वह भी उपलब्ध न हो तो चूहे की पूँछ काट काट कर खाएँ। भाषाशास्त्रियों का कहना है कि कहावतें, मुहावरे या लोकोक्तियाँ जीवनानुभव से ही बने हैं। जाहिर है कि देश में या गावों में कितनी ही गरीबी हो, दो चीजें हर घर में पाई जाती थीं – एक तो प्याज़ और दूसरे चूहे ! हर व्यक्ति प्याज़ रोटी खाकर सुख चैन की ज़िंदगी बसर कर सकता था
     याद करें भारतीय ग्रामीण जीवन और गरीब किसान की दशा का चित्रण करने वाली मेहबूब खान की कालजयी फिल्म मदर इंडिया...। खेत पर काम कर रहे  राजकुमार  को नर्गिस द्वारा भोजन दिए जाने का सीन। खाने का मीनु क्या है ? प्याज़ और रोटी...! मेहबूब खान जैसे प्रतिष्ठित फिल्मकार ने मुझे फिल्म में स्थान देकर गौरवान्वित किया है। गर्मियों में दीन दुखियों की लू उतारने का काम तो मैं सदियों से करता आया हूँ। कभी कभार कुछ विशिष्ट व्यक्तियों की मेहरबानी ऐसी होती है कि मैं सरकारों व बड़ों बड़ों की लू उतार दिया करता हूँ। मेरा काम सिर्फ आपकी क्षुधा को शांत करना और आपके खाने की लज्जत को बढ़ाना है, मगर न जाने क्यों लोग मुझे मुन्नी की तरह बदनाम करने पर तुले रहते हैं। जब आप मुझे काटने जैसा हिंसक कार्य करेंगे तो आपको रोना तो पड़ेगा ही। हे मेरे माधो, घीसू और होरियों ! जिस तरह भगवान राम भी आखिर वनवास खत्म होते ही अयोध्या लौट आए थे, उसी तरह बाज़ार का यह छद्म युद्ध खत्म होते ही मैं भी तुम्हारी थाली में लौट आउँगा। आखिर उम्मीद पर ही तो दुनिया टिकी हुई है। 
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पर्यटन
                  वन का यानी पचमढ़ी
                                                          ओम वर्मा
                                                        om.varma17@gmail.com
चपन में हिंदी का ककहरा सीखते समय पढ़ा था - वन का। वन यानी जंगल। पुस्तक में वन के नाम पर बने थे आठ- दस पेड़ और कुछ पशु-पक्षी। तब से मन के किसी कोने में एक जिप्सी आकार लेने लगा था। जिप्सी यानी खानाबदोश लोग या जातियाँ, या कहें कि यायावर...।
     जैसे – जैसे समय बीतता गया...मैं नौन‌‌- तेल- लकड़ी के गणित में उलझता चला गया। मन में बैठा यायावर कब कहाँ समाधिस्थ हो गया, पता ही न चला। तभी एक शाम को दिल्ली बस चुके उस घनिष्ठ मित्र का फोन आया। मेरे हलो कहने पर उसने कुछ गरिमामय शब्दों का प्रयोग करते हुए लताड़ा-
      “अबे घर पर क्या कर रहा है ?”
      “छुट्टी का दिन है, मजे में सोया हूँ...! तू कहाँ है ?”
      “अबे मैं इस समय पचमढ़ी में जंगल में मंगल यानी स्वर्ग का मजा लूट रहा हूँ। तीन दिन का प्रोग्राम  है  और ऐसे शानदार जंगल, पहाड़, वाटरफाल मैंने आज तक नहीं देखे। तूने पचमढ़ी देखा कि नहीं...?”
     “नहीं देखा यार...!
     “अच्छा हुआ जो नहीं देखा...! यहाँ पर इतनी ट्रेकिंग है कि तेरे जैसा बुड्ढा आदमी...।“
    “अबे बुड्ढा होगा तेरा बाप...!” मैंने गुस्से में फोन रख दिया। तुरंत नेट पर पचमढ़ी के जंगल, पहाड़ियों और होटलों की जानकारी ली। पत्नी व बिटिया के साथ उपलब्ध तिथि पर आने-जाने के टिकट व होटल बुक करवाए। 
      निर्धारित तिथि पर हम पचमढ़ी में थे। भोपल से 185 कि.मी. की दूरी पर होशंगाबाद जिले का पिपरिया रेल्वे स्टेशन। यहाँ से 54 कि,मी. दूर सतपूड़ा पर्वतमाला की गोद में बसा है पचमढ़ी। हरियाली का पर्याय है पचमढ़ी। समुद्र सतह से 1100 मीटर ऊँचा। लगभग 13 वर्ग कि.मी. क्षेत्र में फैला। कई पहाड़ियाँ, झरने, कुछेक गुफाएँ और व वन का की सार्थकता का अहसास कराने वाला गहन, बल्कि गहनतम जंगल।
     कभी पढ़ा था कि गर्मियों में म.प्र. की राजधानी हुआ करता थी पचमढ़ी। हालांकि पिछले कई वर्षों से यह परंपरा बंद है। हम एक गाइड की सेवा प्राप्त कर भ्रमण का कार्यक्रम तय करते हैं। गाइड के अनुसार यदि आप सचमुच घूमना चाहते हैं, सारे प्राकृतिक दृश्य- सनराइज, सनसेट, वाटरफाल, सारे मंदिर, प्रियदर्शिनी पॉइंट... वगैरह देखना है तो कम से कम एक सप्ताह का समय चाहिए।  मगर  तीन  दिन  बाद  रिटर्न रिज़र्वेशन होने के कारण हमने गाइड की अपील ठीक वैसे ही ठुकरा दी जैसे कभी कभी दो खास देशों की टीमों के बीच हो रहे क्रिकेट मैच में साफ-साफ दिखाई देते हुए भी कोई विशेष अंपायर एलबीडब्ल्यू देने के लिए ऊँगली नहीं उठाता।
     एक थे कैप्टन जेम्स फॉर्सिथ। बंगाल के अश्वारोही दस्ते के मुखिया और पहाड़ों पर  घूमने  के शौकीन। 1857 में ये सज्जन अपने घुड़सवार दस्ते के साथ खोज बैठे पचमढ़ी। इनके खोजे इस शिखर का श्रीमती इंदिरा गांधी के विजिट के बाद से नाम रखा गया प्रियदर्शिनी पॉइंट। सच देखा जाए तो पचमढ़ी का मजा वे ही लूट सकते हैं जिन्हें ट्रेकिंग यानी पर्वातारोहण का शौक हो और जो बीपी, मधुमेह, हृदय रोग या अस्थमा से मुक्त हों। क्योंकि किसी भी स्पॉट पर 200 से 500 मीटर तक की ढलान या चढ़ाई मामूली बात है। और डचेस फॉल... जहाँ 800 मीटर तक उतार-चढ़ाव वाले दुर्गम पहाड़ी रास्ते पर जाना और आना...!
      “इस स्थान का नाम आखिर पचमढ़ी कैसे पड़ा ?, पूछने पर गाइड ने अपने अंदाज़ में तुरंत फरमाया –
     “साब, ऐसा है कि पाण्डव लोग जब वनवास पर थे तो एक वर्ष का अज्ञातवास इधर पचमढ़ी में ही गुज़ारा होता था साब ! इसमें छिप के रहने को उन्होंने पाँच गुफाएँ बनाई थीं। गुफाएँ यानी मढ़ी। ये है हिस्ट्री और पुराण की बात। और आर्कियोलोजी वाले केते हैं के साहेब ये 9-10 वीं सदी के बीच बनाई गई हैं...।“
     गुफाएँ देखकर वास्तव में अहसास हुआ कि पाण्डवों ने यहाँ या जहाँ भी वनवास काटा था, कितना टफटाइम रहा होगा ! यहीं पाण्डवों ने नागराज वसु की पुत्री से विवाह भी किया था। (यह जानकारी नहीं मिल पाई कि वसुकन्या भी द्रोपदी वाली स्थिति में थी या उसने पाँच में से किसी एक भाई का ही वरण किया था।) गुफाओं में भ्रमण करते समय मैं स्वयं को धनुर्धारी अर्जुन और पत्नी को द्रोपदी  समझने  लगा !  मगर  तुरंत ही स्वयं की हैसियत पाँच में से एक वाली लगी तो मेरा मन यथार्थ के धरातल पर लौट आया। बहरहाल, गुफाओं से नीचे बने पाण्डव उद्यान और आसपास की पहाड़ियों को देखना एक स्पिरिचुअल  एक्स्टेसी   यानी आध्यात्मिक  चरम आनंद की फीलिंग से भर  देता है।  
     शिव के मंदिरों के लिए भी जाना जाता है पचमढ़ी। एक मंदिर है नागद्वार में। नागपंचमी पर यहाँ विशाल मेला लगता है और महाराष्ट्र के लाखों श्रद्धालु  दर्शन करने यहाँ आते हैं। धूपगढ़ नामक चोटी से नागद्वार की 18 किमी की दुर्गम स्थल की यात्रा करना पड़ती है। ऐसा ही एक जटाशंकर मंदिर है जहाँ पहले सिर्फ रस्सियों के सहारे जाया जा सकता था। सन् 1930 के बाद वहाँ सिमेंट की सीढ़ी बना दी गई।
     ऐसा ही दुर्गम स्थान है चौरागढ़। यह स्थान इतना सुंदर है कि जो भी यहाँ पहली बार आता है, दूसरी बार आने का संकल्प अवश्य लेता है। दो अन्य मंदिर बड़े महादेवगुप्त महादेव भी हैं। पहाड़ियों के बीच बने इन शिव मंदिरों के पास ही एक गहरी खोह है जिसे हांडी खोह कहते हैं जहाँ ऊपर से देखने पर बड़े बड़े वृक्ष भी बौने प्रतीत होते हैं। 300 फीट गहरी खोह खड़ी चट्टान की ढलानदार बनावट और जल की कलकल ध्वनि से मंत्रमुग्ध कर देती है। हांडी नामक अंग्रेज ने यहाँ कूदकर आत्महत्या की थी। उसी के नाम पर इसका नाम खांडी खोह पड़ा।

     इन्हीं पहाड़ियों से गुजरकर 1250 सीढ़ियाँ चढ़कर चौरागढ़ की पहाड़ी पर स्थित शिव मंदिर पहुँचा जा सकता है। यहाँ श्रद्धालु भगवान शिव को फूल के साथ एक किलो से  लेकर  एक  क्विंटल  तक  वज़न के त्रिशूल भी चढ़ाते हैं। इसी मार्ग पर बड़े महादेव विराजित हैं जिनकी गुफा 25 फीट चौड़ी और 60 फीट लंबी है। गुफा में छतों से सतत टपकता जल मानों भगवान शिव का जलाभिषेक करता है। सामने ही एक पवित्र कुण्ड है जिसे भस्मासुर कुण्ड कहते हैं। भस्मासुर की कथा यहाँ के तीन धार्मिक स्थल- चौरागढ़, जटाशंकर, और महादेव गुफा से जुड़ी है।
     बड़े महादेव से करीब 400 मीटर दूर एक सँकरी सी गुफा है। गाइड के अनुसार यह गुप्त महादेव का निवास स्थल है। इस गुफा में एक बार में ज्यादा से ज्यादा आठ व्यक्ति प्रवेश कर सकते हैं। टॉर्च साथ न लाए हों तो वहीं किराए की भी मिलती है। अंदर रोशनी के नाम पर मात्र एक टिमटिमाता, लुपझुप करता बल्ब ही है। वापसी में राजेंद्रगिरि नामक स्पॉट से सूर्यास्त का अद्भुत दृश्य देखा जा सकता है।
     और अब बात वाटरफॉल्स की ! एक दिन में सारे जल-प्रपात देखना संभव नहीं है। पहले दिन दो फॉल्स देखे जा सकते हैं। पहला झरना सिल्वर फॉल पहाड़ों पर दूर से ही देखा जा सकता है। यही आगे जाकर बन जाता है जमुना-प्रपात जिसे मधुमक्खियों की बहुतायत के कारण बी फॉल नाम भी दिया गया है। इसकी खूबसूरती बयान करने के लिए मैं अपने शब्द सामर्थ्य को बड़ा क्षुद्र पाता हूँ। यहीं सबसे ज्यादा पर्यटक आते हैं। गाइड बड़े फख्र से बताते हैं कि यहाँ व कुछ अन्य स्पॉट्स  पर  शाहरुख  खान  की फिल्म अशोका की शूटिंग हुई थी। पचमढ़ी का

मुख्य जल स्रोत भी यही है। करीब 150 फीट की ऊँचाई से गिरती जलधारा को कितना भी देखो, जी नहीं भरता और धारा के नीचे नहाने का लोभ भी कोई संवरण नहीं कर पाता। दुर्गम पहाड़ी पथ पर पैदल चलने की कुछ थकान गिरती जलधारा को देखकर और कुछ उसमें  नहाने के बाद कम हो जाती है।
       तीसरे दिन जाते हैं धूपगढ़ और डचेस फॉल। पचमढ़ी से लगभग 12 किमी दूर है धूपगढ़। 4429 फीट ऊँचा धूपगढ़ पचमढ़ी का ही नहीं बल्कि पूरे म.प्र. का सर्वोच्च शिखर है। यहाँ बादल नीचे तैरते दिखाई देते हैं। इस कारण यहाँ सूर्य पहाड़ों के पीछे नहीं छुपता बल्कि ऐसा लगता है मानों बादलों से ही लुकाछिपी खेल रहा है। चारों और धुँध की चादर मन मोह लेती है।
      और अब चलते हैं पचमढ़ी के सबसे दुर्गम स्पॉट -डचेस फॉल”। यह स्पॉट सिर्फ ट्रेकिंग और एडवेंचर पसंद करने वालों के लिए ही है। इसके लिए बेहद कठिन और घुमावदार रास्तों से होकर गुज़रना पड़ता है। फॉल का मार्ग शुरू होने के करीब आधा किमी पहले रुककर हमें पैदल जाना होता है। फिर जंगल की सात-आठ सौ मीटर लंबी उतार-चढ़ाव वाले पथरीले मार्ग की यात्रा। फिर जबर्दस्त ढलान। आगे बढ़ने से पहले बोर्ड पर लिखी चेतावनी पढ़ता हूँ- “वृद्धजन तथा मधुमेह, बीपी, अस्थमा, व हृदय रोगी न जाएँ। मधुमेह, अस्थमा, व हृदय रोग मुझे नहीं है। बीपी की एक सामान्य गोली रोज ले लेता हूँ और वृद्ध शब्द पढ़ते ही मुझे मित्र को किया चैलेंज “बुद्धा होगा तेरा बाप...” याद आ जाता है। मैं चल पड़ता हूँ डचेस फॉल के लिए ! मगर जाते समय वर्षों पूर्व स्वर्गवासी हो चुकी नानी याद आने लगती  है,  और  वापसी  में  नानी  की भी नानी याद आ जाती है। घर लौटकर तीन दिन तक गुल्ले भरा जाने के कारण दर्द के मारे मेरी चाल कुछ ऐसी हो जाती है मानों काया का रोबोटीकरण हो गया है।
       यत्र-तत्र पहाड़ियों के लाल बरुआ पत्थर, शैलाश्रय और शैल चित्रकारी देख मन में आदिम युग की तस्वीर रंग भरने लगती है। 500‌ - 800 ई. के बीच की न मिटने वाली चित्रकारी... जिसमें किसी में स्त्री पुरुष को गिरफ्तार करते हुए दिखाई गई है तो किसी में भैंसा, तेंदुआ और कुत्ते के चित्र हैं। शुद्ध प्राकृतिक  रंग...जस के तस...! किसी किसी के बारे में पुरातत्व वालों का दावा कि वह 10,000 वर्ष पूर्व की है। सफेद और लाल रंग से दीवारों पर उकेरे गए योद्धाओं के चित्र...!
     अब चलें चर्च में। प्रोटेस्टेंट व कैथोलिक चर्च। ईसा मसीह व माँ मरियम की शानदार मूर्तियाँ। शानदार ग्लास पेंटिंग्स। इसे सिर्फ चर्च व्यस्थापक की अनुमति से ही देखा जा सकता है। और यह है पचमढ़ी झील जहाँ कई युगल पैडल बोटिंग करते देखे जा सकते हैं।
     अतिशयोक्ति नहीं होगी, अगर मैं कहूँ कि पचमढ़ी का हेंगओवर अभी भी नहीं उतर रहा है। प्रकृति कभी मानवी रूप लेकर मेरे सामने आ जाए तो पूछूँगा कि तूने पचमढ़ी में ही इतनी सारी सुंदरता एक साथ क्यों उड़ेल दी ?                  
           ***  

नईदुनिया, 03.03.13 में प्रकाशित 

पर्यटन
                  वन का यानी पचमढ़ी
                                                          ओम वर्मा
                                                        om.varma17@gmail.com
चपन में हिंदी का ककहरा सीखते समय पढ़ा था - वन का। वन यानी जंगल। पुस्तक में वन के नाम पर बने थे आठ- दस पेड़ और कुछ पशु-पक्षी। तब से मन के किसी कोने में एक जिप्सी आकार लेने लगा था। जिप्सी यानी खानाबदोश लोग या जातियाँ, या कहें कि यायावर...।
     जैसे – जैसे समय बीतता गया...मैं नौन‌‌- तेल- लकड़ी के गणित में उलझता चला गया। मन में बैठा यायावर कब कहाँ समाधिस्थ हो गया, पता ही न चला। तभी एक शाम को दिल्ली बस चुके उस घनिष्ठ मित्र का फोन आया। मेरे हलो कहने पर उसने कुछ गरिमामय शब्दों का प्रयोग करते हुए लताड़ा-
      “अबे घर पर क्या कर रहा है ?”
      “छुट्टी का दिन है, मजे में सोया हूँ...! तू कहाँ है ?”
      “अबे मैं इस समय पचमढ़ी में जंगल में मंगल यानी स्वर्ग का मजा लूट रहा हूँ। तीन दिन का प्रोग्राम  है  और ऐसे शानदार जंगल, पहाड़, वाटरफाल मैंने आज तक नहीं देखे। तूने पचमढ़ी देखा कि नहीं...?”
     “नहीं देखा यार...!
     “अच्छा हुआ जो नहीं देखा...! यहाँ पर इतनी ट्रेकिंग है कि तेरे जैसा बुड्ढा आदमी...।“
    “अबे बुड्ढा होगा तेरा बाप...!” मैंने गुस्से में फोन रख दिया। तुरंत नेट पर पचमढ़ी के जंगल, पहाड़ियों और होटलों की जानकारी ली। पत्नी व बिटिया के साथ उपलब्ध तिथि पर आने-जाने के टिकट व होटल बुक करवाए। 
      निर्धारित तिथि पर हम पचमढ़ी में थे। भोपल से 185 कि.मी. की दूरी पर होशंगाबाद जिले का पिपरिया रेल्वे स्टेशन। यहाँ से 54 कि,मी. दूर सतपूड़ा पर्वतमाला की गोद में बसा है पचमढ़ी। हरियाली का पर्याय है पचमढ़ी। समुद्र सतह से 1100 मीटर ऊँचा। लगभग 13 वर्ग कि.मी. क्षेत्र में फैला। कई पहाड़ियाँ, झरने, कुछेक गुफाएँ और व वन का की सार्थकता का अहसास कराने वाला गहन, बल्कि गहनतम जंगल।
     कभी पढ़ा था कि गर्मियों में म.प्र. की राजधानी हुआ करता थी पचमढ़ी। हालांकि पिछले कई वर्षों से यह परंपरा बंद है। हम एक गाइड की सेवा प्राप्त कर भ्रमण का कार्यक्रम तय करते हैं। गाइड के अनुसार यदि आप सचमुच घूमना चाहते हैं, सारे प्राकृतिक दृश्य- सनराइज, सनसेट, वाटरफाल, सारे मंदिर, प्रियदर्शिनी पॉइंट... वगैरह देखना है तो कम से कम एक सप्ताह का समय चाहिए।  मगर  तीन  दिन  बाद  रिटर्न रिज़र्वेशन होने के कारण हमने गाइड की अपील ठीक वैसे ही ठुकरा दी जैसे कभी कभी दो खास देशों की टीमों के बीच हो रहे क्रिकेट मैच में साफ-साफ दिखाई देते हुए भी कोई विशेष अंपायर एलबीडब्ल्यू देने के लिए ऊँगली नहीं उठाता।
     एक थे कैप्टन जेम्स फॉर्सिथ। बंगाल के अश्वारोही दस्ते के मुखिया और पहाड़ों पर  घूमने  के शौकीन। 1857 में ये सज्जन अपने घुड़सवार दस्ते के साथ खोज बैठे पचमढ़ी। इनके खोजे इस शिखर का श्रीमती इंदिरा गांधी के विजिट के बाद से नाम रखा गया प्रियदर्शिनी पॉइंट। सच देखा जाए तो पचमढ़ी का मजा वे ही लूट सकते हैं जिन्हें ट्रेकिंग यानी पर्वातारोहण का शौक हो और जो बीपी, मधुमेह, हृदय रोग या अस्थमा से मुक्त हों। क्योंकि किसी भी स्पॉट पर 200 से 500 मीटर तक की ढलान या चढ़ाई मामूली बात है। और डचेस फॉल... जहाँ 800 मीटर तक उतार-चढ़ाव वाले दुर्गम पहाड़ी रास्ते पर जाना और आना...!
      “इस स्थान का नाम आखिर पचमढ़ी कैसे पड़ा ?, पूछने पर गाइड ने अपने अंदाज़ में तुरंत फरमाया –
     “साब, ऐसा है कि पाण्डव लोग जब वनवास पर थे तो एक वर्ष का अज्ञातवास इधर पचमढ़ी में ही गुज़ारा होता था साब ! इसमें छिप के रहने को उन्होंने पाँच गुफाएँ बनाई थीं। गुफाएँ यानी मढ़ी। ये है हिस्ट्री और पुराण की बात। और आर्कियोलोजी वाले केते हैं के साहेब ये 9-10 वीं सदी के बीच बनाई गई हैं...।“
     गुफाएँ देखकर वास्तव में अहसास हुआ कि पाण्डवों ने यहाँ या जहाँ भी वनवास काटा था, कितना टफटाइम रहा होगा ! यहीं पाण्डवों ने नागराज वसु की
पुत्री से विवाह भी किया था। (यह जानकारी नहीं मिल पाई कि वसुकन्या भी द्रोपदी वाली स्थिति में थी या उसने पाँच में से किसी एक भाई का ही वरण किया था।) गुफाओं में भ्रमण करते समय मैं स्वयं को धनुर्धारी अर्जुन और पत्नी को द्रोपदी  समझने  लगा !  मगर  तुरंत ही स्वयं की हैसियत पाँच में से एक वाली लगी तो मेरा मन यथार्थ के धरातल पर लौट आया। बहरहाल, गुफाओं से नीचे बने पाण्डव उद्यान और आसपास की पहाड़ियों को देखना एक स्पिरिचुअल  एक्स्टेसी   यानी आध्यात्मिक  चरम आनंद की फीलिंग से भर  देता है।  
     शिव के मंदिरों के लिए भी जाना जाता है पचमढ़ी। एक मंदिर है नागद्वार में। नागपंचमी पर यहाँ विशाल मेला लगता है और महाराष्ट्र के लाखों श्रद्धालु  दर्शन करने यहाँ आते हैं। धूपगढ़ नामक चोटी से नागद्वार की 18 किमी की दुर्गम स्थल की यात्रा करना पड़ती है। ऐसा ही एक जटाशंकर मंदिर है जहाँ पहले सिर्फ रस्सियों के सहारे जाया जा सकता था। सन् 1930 के बाद वहाँ सिमेंट की सीढ़ी बना दी गई।
     ऐसा ही दुर्गम स्थान है चौरागढ़। यह स्थान इतना सुंदर है कि जो भी यहाँ पहली बार आता है, दूसरी बार आने का संकल्प अवश्य लेता है। दो अन्य मंदिर बड़े महादेवगुप्त महादेव भी हैं। पहाड़ियों के बीच बने इन शिव मंदिरों के पास ही एक गहरी खोह है जिसे हांडी खोह कहते हैं जहाँ ऊपर से देखने पर बड़े बड़े वृक्ष भी बौने प्रतीत होते हैं। 300 फीट गहरी खोह खड़ी चट्टान की ढलानदार बनावट और जल की कलकल ध्वनि से मंत्रमुग्ध कर देती है। हांडी नामक अंग्रेज ने यहाँ कूदकर आत्महत्या की थी। उसी के नाम पर इसका नाम खांडी खोह पड़ा।

     इन्हीं पहाड़ियों से गुजरकर 1250 सीढ़ियाँ चढ़कर चौरागढ़ की पहाड़ी पर स्थित शिव मंदिर पहुँचा जा सकता है। यहाँ श्रद्धालु भगवान शिव को फूल के साथ एक किलो से  लेकर  एक  क्विंटल  तक  वज़न के त्रिशूल भी चढ़ाते हैं। इसी मार्ग पर बड़े महादेव विराजित हैं जिनकी गुफा 25 फीट चौड़ी और 60 फीट लंबी है। गुफा में छतों से सतत टपकता जल मानों भगवान शिव का जलाभिषेक करता है। सामने ही एक पवित्र कुण्ड है जिसे भस्मासुर कुण्ड कहते हैं। भस्मासुर की कथा यहाँ के तीन धार्मिक स्थल- चौरागढ़, जटाशंकर, और महादेव गुफा से जुड़ी है।
     बड़े महादेव से करीब 400 मीटर दूर एक सँकरी सी गुफा है। गाइड के अनुसार यह गुप्त महादेव का निवास स्थल है। इस गुफा में एक बार में ज्यादा से ज्यादा आठ व्यक्ति प्रवेश कर सकते हैं। टॉर्च साथ न लाए हों तो वहीं किराए की भी मिलती है। अंदर रोशनी के नाम पर मात्र एक टिमटिमाता, लुपझुप करता बल्ब ही है। वापसी में राजेंद्रगिरि नामक स्पॉट से सूर्यास्त का अद्भुत दृश्य देखा जा सकता है।
     और अब बात वाटरफॉल्स की ! एक दिन में सारे जल-प्रपात देखना संभव नहीं है। पहले दिन दो फॉल्स देखे जा सकते हैं। पहला झरना सिल्वर फॉल पहाड़ों पर दूर से ही देखा जा सकता है। यही आगे जाकर बन जाता है जमुना-प्रपात जिसे मधुमक्खियों की बहुतायत के कारण बी फॉल नाम भी दिया गया है। इसकी खूबसूरती बयान करने के लिए मैं अपने शब्द सामर्थ्य को बड़ा क्षुद्र पाता हूँ। यहीं सबसे ज्यादा पर्यटक आते हैं। गाइड बड़े फख्र से बताते हैं कि यहाँ व कुछ अन्य स्पॉट्स  पर  शाहरुख  खान  की फिल्म अशोका की शूटिंग हुई थी। पचमढ़ी का
मुख्य जल स्रोत भी यही है। करीब 150 फीट की ऊँचाई से गिरती जलधारा को कितना भी देखो, जी नहीं भरता और धारा के नीचे नहाने का लोभ भी कोई संवरण नहीं कर पाता। दुर्गम पहाड़ी पथ पर पैदल चलने की कुछ थकान गिरती जलधारा को देखकर और कुछ उसमें  नहाने के बाद कम हो जाती है।
       तीसरे दिन जाते हैं धूपगढ़ और डचेस फॉल। पचमढ़ी से लगभग 12 किमी दूर है धूपगढ़। 4429 फीट ऊँचा धूपगढ़ पचमढ़ी का ही नहीं बल्कि पूरे म.प्र. का सर्वोच्च शिखर है। यहाँ बादल नीचे तैरते दिखाई देते हैं। इस कारण यहाँ सूर्य पहाड़ों के पीछे नहीं छुपता बल्कि ऐसा लगता है मानों बादलों से ही लुकाछिपी खेल रहा है। चारों और धुँध की चादर मन मोह लेती है।
      और अब चलते हैं पचमढ़ी के सबसे दुर्गम स्पॉट -डचेस फॉल”। यह स्पॉट सिर्फ ट्रेकिंग और एडवेंचर पसंद करने वालों के लिए ही है। इसके लिए बेहद कठिन और घुमावदार रास्तों से होकर गुज़रना पड़ता है। फॉल का मार्ग शुरू होने के करीब आधा किमी पहले रुककर हमें पैदल जाना होता है। फिर जंगल की सात-आठ सौ मीटर लंबी उतार-चढ़ाव वाले पथरीले मार्ग की यात्रा। फिर जबर्दस्त ढलान। आगे बढ़ने से पहले बोर्ड पर लिखी चेतावनी पढ़ता हूँ- “वृद्धजन तथा मधुमेह, बीपी, अस्थमा, व हृदय रोगी न जाएँ। मधुमेह, अस्थमा, व हृदय रोग मुझे नहीं है। बीपी की एक सामान्य गोली रोज ले लेता हूँ और वृद्ध शब्द पढ़ते ही मुझे मित्र को किया चैलेंज “बुद्धा होगा तेरा बाप...” याद आ जाता है। मैं चल पड़ता हूँ डचेस फॉल के लिए ! मगर जाते समय वर्षों पूर्व स्वर्गवासी हो चुकी नानी याद आने लगती  है,  और  वापसी  में  नानी  की भी नानी याद आ जाती है। घर लौटकर तीन दिन तक गुल्ले भरा जाने के कारण दर्द के मारे मेरी चाल कुछ ऐसी हो जाती है मानों काया का रोबोटीकरण हो गया है।
       यत्र-तत्र पहाड़ियों के लाल बरुआ पत्थर, शैलाश्रय और शैल चित्रकारी देख मन में आदिम युग की तस्वीर रंग भरने लगती है। 500‌ - 800 ई. के बीच की न मिटने वाली चित्रकारी... जिसमें किसी में स्त्री पुरुष को गिरफ्तार करते हुए दिखाई गई है तो किसी में भैंसा, तेंदुआ और कुत्ते के चित्र हैं। शुद्ध प्राकृतिक  रंग...जस के तस...! किसी किसी के बारे में पुरातत्व वालों का दावा कि वह 10,000 वर्ष पूर्व की है। सफेद और लाल रंग से दीवारों पर उकेरे गए योद्धाओं के चित्र...!
     अब चलें चर्च में। प्रोटेस्टेंट व कैथोलिक चर्च। ईसा मसीह व माँ मरियम की शानदार मूर्तियाँ। शानदार ग्लास पेंटिंग्स। इसे सिर्फ चर्च व्यस्थापक की अनुमति से ही देखा जा सकता है। और यह है पचमढ़ी झील जहाँ कई युगल पैडल बोटिंग करते देखे जा सकते हैं।
     अतिशयोक्ति नहीं होगी, अगर मैं कहूँ कि पचमढ़ी का हेंगओवर अभी भी नहीं उतर रहा है। प्रकृति कभी मानवी रूप लेकर मेरे सामने आ जाए तो पूछूँगा कि तूने पचमढ़ी में ही इतनी सारी सुंदरता एक साथ क्यों उड़ेल दी ?                  
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