अंगुलिमाल, वाल्मीकि और
गुण्डा विरोधी अभियान !
ओम
वर्मा
चुनाव सर
पर हैं। ऊपर से आदेश हैं कि गुण्डों के खिलाफ़ सख़्त से सख़्त कार्रवाई की जाए। लिहाज़ा
हर कहीं गुण्डा विरोधी अभियान की धूम मची हुई है। गुण्डा चाहे छोटा हो या बड़ा, चाहे इस
पार्टी
का खास हो या उस पार्टी का, चाहे कल का गुमनाम, परसों का बदनाम
या आज का नाम वाला ही क्यों न हो ... गर्ज़ यह कि हर कोई खौफजदा है। पुलिस कब किसको
पकड़कर उसकी टंटफोर कर दे या कब किसका जुलूस निकालकर नागरिक अभिनंदन करवा दे, खुद नहीं जानती!
हाँ तो ऐसे ही एक सद्भावना मिशन के तहत एक
हाय वोल्टेज अभियान विशेष दर्जा दिए जाने की राजनीति कर रहे उस राज्य में जहाँ के
मुख्यमंत्री अब बाक़ायदा ‘सेकुलर’ घोषित
कर दिए गए हैं और जहाँ कट्टे खिलौनों की जगह ले चुके हैं,
में भी जारी था। यहाँ पुलिस जिस ‘गुण्डे’ को पकड़ कर पूजा करती हुई ले जा रही थी वह बार बार स्वयं को ‘बुद्धं शरणं गच्छामि’ हो जाने की दुहाई दे रहा था।
मगर पुलिस रेकॉर्ड में वह अंगुलिमाल नाम का ऐसा डाकू था जो अपने शिकार को न सिर्फ
लूटता है बल्कि बाद में हत्या करके उनकी ऊँगलियों की माला बनाकर पहन लेता है। उनके
लिए उसका बौद्ध भिक्षु बन जाना बिल्लियों के मूषक भक्षण की सेंचुरी के बाद की जा
रही हज़ यात्रा या किसी समुदाय के निर्दोषों के सामूहिक नरसंहार के कई वर्षों बाद
मनाए जा रहे क्षमापर्व में कोई फ़र्क़ नहीं था।
ऐसे ही एक अभियान में एक अन्य राज्य का
पुलिस दल अपने पूरे लाव लश्कर के साथ मैदान में था। मुखबिर से खबर मिली थी कि
रत्नाकर नाम का एक बदमाश घर में छिपा बैठा है।
“अबे ओ रत्नाकर... बाहर निकल !” उन्होंने ‘रत्नाकर निवास’ नामक पर्ण कुटीर के दरवाजे पर प्रहार
करते हुए दहाड़ लगाई।
“आया हुज़ूर...!” राम नाम की माला जपता हुआ
शुभ्र केशराशि एवं भगवा वस्त्रधारी अधेड़ प्रकट हुआ।
“अबे ढोंगी चल अंदर ! शहर में गुण्डा विरोधी
अभियान चल रहा है। हम तुझे अंदर करने आए हैं।“ दरोगा जी ने भद्रजनों के बीच इन
दिनों प्रयुक्त किए जा रहे कुछ और भी असंसदीय शब्दों का प्रयोग करते हुए कहा।
“पर राम के बंदों, मैं रत्नाकर हूँ जरूर पर मैंने अब मैंने सारे काले धंधे बंद कर दिए हैं।
मैं प्रभु श्रीराम की शरण में चला गया हूँ और उनका चरित्र लिखने में लगा हूँ। मेरा
नाम भी रत्नाकर से बदल कर वाल्मीकि हो गया है।“ कल का दस पाँच सांसदों के दम पर
सरकार गिराने का दम रखने वाले जैसा ‘कठोर’ रत्नाकर इस समय सीबीआई के भूत से खौफ खाए ‘मुलायम’ वाल्मीकि में बदल चुका था।
“तुझे रामजी की शरण में नहीं, कृष्ण मंदिर में
जगह मिलेगी बेट्टा..!” दरोगा जी के एक गणवेशधारी सहयोगी वाल्मीकि...आय मीन रत्नाकर
को ‘उचित तरीके’ से अपने साथ ले जाते
हुए बोला। रास्ते भर वाल्मीकि ‘जंजीर’
फिल्म के शेर खान द्वारा इंस्पेक्टर विजय को सारे काले धंधे बंद कर खुद के
रूपांतरण व कायांतरण किए जाने जैसी दुहाई देता रहा...अपने द्वारा संस्कृत में
प्रभु श्रीराम पर रचे जा रहे ग्रंथ का हवाला देता रहा। मगर वाल्मीकि की एक न चली।
प्रशासन की नज़र में वह रत्नाकर ही था। इधर संकल्प का धनी वाल्मीकि था कि रत्नाकर
वाली पर आना नहीं चाहता था।
लगता है हमें पाप से चाहे घृणा हो न हो
पापियों से जरूर है। क्या आज हम किसी रत्नाकर में वाल्मीकि बनने की और किसी
अंगुलीमाल में भिक्षुक बनने की लेषमात्र संभावना भी नहीं रख छोड़ना चाहेंगे ?
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