व्यंग्य
जरूरत है एक बज़टावतार की !
ओम वर्मा
भारतीय अर्थ-व्यवस्था के फ़लक पर एक बिंदु है ‘सरकारी बज़ट’। दूसरा बिंदु है ‘आम आदमी’। और तीसरा लास्ट बट नॉट द लीस्ट तथा अति विशिष्ट बिंदु है – ‘वित्त मंत्री’। भारतीय अर्थ व्यवस्था के फ़लक पर इन तीन बिन्दुओं के मिलन से जो रचना बनती है और वह है- ‘घाटे का त्रिकोण’। और इनके आंतरिक कोणों का योग कभी भी लाभ और समृद्धि के दो समकोणों के योग की बराबरी नहीं कर पाया है।
हाँ, यह बजट का सत्र यदि किसी के लिए खुशगवार साबित होता है तो वे हैं हमारे त्वरित टिप्पणी विशेषज्ञ, कार्टूनिस्ट, और टीवी चैनलों के सूत्रधार! और यदि कोई त्रिशंकु बन कर रह जाता है तो वह है हमारे प्रेमचंद का होरी और हमारे शिवपालगंज का शनीचर! हमारे यहाँ जन्में अर्थशास्त्री विदेशी छात्रों के लिए किताबें लिख सकते हैं, सालों तक रिज़र्व बैंक सम्हालने से लेकर लाल किले पर झण्डा फहराने का काम कर सकते हैं, तीस-बत्तीस रु. रोज में गरीबों को सुख से रहने का फरमान जारी कर सकते हैं, लेकिन बजट का घाटा कभी पूरा नहीं कर सके। होरी के सर पर कर्ज़ कल भी था तो आज भी है... लंगड़ फैसले की नकल के लिए कल भी अदालतों के चक्कर लगाता था और आज भी लगाता है। उधर शिवाजी पार्क में नानी पालखीवाला का बजट पर भाषण सुनने के लिए साल दर साल ज्यों ज्यों भीड़ बढ़ती गई थी त्यों त्यों बजट का घाटा और अमीरी गरीबी का फासला बढ़ता गया था।
जिस प्रकार मंचीय चुटकुलेबाजी, तुकबंदी और ज़ुल्फों के पेचो-खम के वर्णन में उम्र गुजार देने वाले ‘कवियों’ को समकालीन कविता और सिर्फ सुंदरियों के चित्र बनाने वाले को एक अमूर्त चित्र कभी समझ में नहीं आता, उसी प्रकार अपने राम को भी वित्तमंत्रियों का बजट भाषण आज तक कभी समझ में नहीं आया। मैंने एक त्वरित टिप्पणीकार अर्थशास्त्री से पूछा, “बजट आपकी राय में कैसा है?”
प्रतिक्रिया उनके मुखारविंद से इस्तीफा देने को उद्यत केजरीवाल की तरह तैयार बैठी थी। वे बोले, “बजट में डेफ़िसिट इतने से इतने परसेंट हो गया है, इससे इतने परसेंट इंफ्लेशन होगा और विकास की दर इतनी हो जाएगी... सेंसेक्स इतना गिर जाएगा...एनआरआई अपना निवेश...”
“शास्त्रीजी, आप सिर्फ यह बताइए कि इससे महँगाई और आम आदमी की जेब पर क्या फर्क पड़ेगा?” मैं अर्नब गोस्वामी का कांग्रेस उपाध्यक्ष से लिए गए अद्भुत इंटरव्यू की तरह सामने वाले की बालू में से तेल निकालने का प्रयास करने लगा।
“यह बजट थोड़ा अच्छा है और थोड़ा खराब!” एक डिप्लोमेटिक जवाब प्राप्त हुआ।
“एक बात कुछ बोलिए, अच्छा है या खराब?” मैंने चील के घोसले में माँस तलाशना चाहा।
“यार हम इतने सालों से त्वरित टिप्पणी कर रहे हैं, पर हमारी खुद समझ में नहीं आया कि हम बजट की तारीफ कर रहे हैं या आलोचना…”, चश्मा चढ़ाते हुए वे बोले, “आज तुम्हें क्या समझाएँ? चलो हटो! मुझे बजट पर परिचर्चा में भाग लेने के लिए स्टुडियो जाना है।“
तो आखिर बजट कैसा है? मैंने सड़क किनारे गड्ढा खोद रहे एक आदिवासी मजदूर से पूछा, “क्यों मामा, सरकार ने मोबाइल और शिक्षा ऋण के ब्याज पर छूट दी है… बीड़ी सिगरेट पर टैक्स नहीं बढ़ाए हैं ...”
“तमारी बात म्हारे कांई समझ में नी आवे, ठेकेदार से पूछी लो...” उसने आधी पीकर पहले बुझाई जा चुकी बीड़ी फिर से सुलगाई और अपने स्मार्ट फोन पर एफएम पर गाना सुनने लगा। मुझे बजट पर एक भी प्रतिक्रिया तीसरे मोर्चे की रीति - नीति से कोई कम उलझी हुई नहीं लगी।
संकट हल नहीं हुआ तो मन बैरागी हो उठा और प्रभु स्मरण कर बैठा। हे दीनबंधु! हे दीनानाथ!! जैसे तुमने रावण को मारने के लिए अवतार लिया, जैसे कंस का सँहार किया, वैसे ही गरीब जनता के लिए एक बार वित्तमंत्री का बजटावतार ले लो प्रभु! अब गीता वाला वचन निभाने का समय आ ही गया समझो !
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100, रामनगर एक्सटेंशन, देवास 455001
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