Sunday, 26 July 2015



                राजनीति में ठुल्लापन
                                     -ओम वर्मा
माना कि अधिकांश पुलिसकर्मी रिश्वतखोर हैं, निर्ममता से थर्ड डिग्री का प्रयोग करते रहते हैं और बलात्कार आदि में भी वे समय समय पर योगदान देते रहते हैं, फिर भी उन्हें ठुल्ला विशेषण से नवाजने के लिए मेरा मन कतई गवारा नहीं करता।
   आखिर पुलिस वाले भी तो इसी दुनिया के लोग हैं। क्या पुलिस की भरती  किसी और ग्रह पर जाकर की जाती है? क्या वे त्रेतायुग के अयोध्यावासी हैं जहाँ हर नागरिक के सामने प्रभु श्रीराम के आदर्शों का कोई  मॉडल था जिसके होते किसी के भी पथभ्रष्ट होने की संभावना ही नहीं थी? क्या हमारे देश में कोई भी नेता या मंत्री एक पैसे की भी रिश्वत नहीं लेता? जब किसी आईएएस दंपती से लेकर आरटीओ के बाबुओं के पास करोड़ों की बेहिसाब संपत्ति निकल सकती है, जब मंत्री अपने निवास पर टेलीफोन की पचासों लाइनें डलवाकर किसी टीवी चैनल को करोड़ों का लाभ पहुँचा सकता है तो सिर्फ पुलिस से ही शत प्रतिशत ईमानदारी की अपेक्षा क्यों की जाए? क्या हमारे सारे व्यापारी हर खरीदी बिक्री का पक्का बिल देते हैं? हमारे मंत्री बिना टेंडर निकाले करोड़ों की चिक्की खरीद सकते हैं, हमारे कुछ भाई विदेशी बैंकों में अपनी काली कमाई पहुँचा सकते हैं, और उनके मौसेरे भाई उसे वापस लाने की बात कह कर दिल्ली का टिकट कटा सकते हैं तो किसी पुलिस जवान से ही मर्यादित आचरण की उम्मीद क्यों की जाती है? जो नेता अपने पास अमर होने की मणि होते भी किसी मधुमिता का मधु चूस सकता है या अपने पास अमन की मणि होते भी अपने ही घर का अमन खत्म कर देता हो, उसे तो किसी ने आज तक ठुल्ला नहीं कहा! प्रतियोगी परीक्षाओं में योग्य उम्मीदवारों के भविष्य को बर्बाद कर अयोग्य को आगे बढ़ाने वाले ठुल्ले नहीं हैं पर दिल्ली में किसी रेहड़ी वाले से अगर कोई वसूली करता है तो वह उन्हीं के द्वारा, उन्हीं पर राज करने के लिए चुने गए सत्ताधीश की नजरों में ठुल्ला कैसे हो सकता है? दिल्ली में जो मोटरसाइकिलों पर उत्पात मचाते हैं, चलती बस या टैक्सी में किसी मासूम का चीर – हरण करते हैं या जब कोई महिला सरे आम ट्राफिक नियमों का उल्लंघन करे और रोके जाने पर सिपाही की पिटाई करे, ऐसे लोगों में उन्हें कभी ठुल्लापन नजर नहीं आया?
    मेरी इस टिप्पणी में कृपया पुलिस के किसी भी अनुचित आचरण को न्यायोचित ठहराने अथवा उसे महिमामंडित करने का प्रयास न समझें। बात सिर्फ इतनी है कि जब तक कोई उम्मीदवार हजारों- लाखों की रिश्वत देकर पुलिस में भरती होता रहेगा, जब तक किसी भी थानेदार पर ऊपर भेंट-पूजा पहुँचाने का दबाव रहेगा, तब तक किसी भी पुलिसकर्मी से पूरी तरह से सत्यनिष्ठ बने रहने की अपेक्षा रखना व्यर्थ है। एक पुलिसवाला भी तो आखिर उसी संविधान की शपथ लेकर देशभक्ति और जनसेवा प्रारंभ करता है जिसकी शपथ लेकर हमारे राजनेता विधायक, सांसद या मंत्री बनते हैं। जिन राज्यों में जातिवाद का ज्यादा बोलबाला है व राजनेताओं ने भ्रष्टाचार व परिवारवाद की सारी सीमाएँ पार कर दी हैं, उन राज्यों में पुलिस का अमर्यादित आचरण भी हर बार सीमाओं का उल्लंघन करने लगता है। पूरे प्रकरण में पुलिस प्रमुख बी.एस. बस्सी के संयमित आचरण की प्रशंसा की जानी चाहिए। हमेशा की तरह अरविंद सर ने अपनी गलती के लिए एक बार फिर माफी मांग ली है। वे यह भूल रहे हैं कि राजनेता को गलती करने पर माफी मिली या नहीं यह चुनाव परिणामों से ही पता चलता है।           ***
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Sunday, 12 July 2015


नेता और पत्रकार – वत्रकार
                                                ओम वर्मा
किसी भी गाँव या कस्बे से लेकर देश की राजधानी तक, समाज से लेकर सरकार तक कहीं भी चले जाएँ, आप पाएंगे कि नेता अपने आप में पूरी किताब है और पत्रकार उसका उपसंहार या परिशिष्ट! कहीं भी, कभी भी, दोनों में अग्रगामी अगर कोई है तो वह नेता है अनुगामी अगर कोई है तो वह है पत्रकार! शब्दकोश तक में नेता पहले है और पत्रकार बाद में। नेता हँसता है तो खबर, रोए तो खबर। और मंच या सदन में सोता दिख जाए तो पहले ब्रेकिंग न्यूज़, फिर पूरा सोशल मीडिया सूरदास द्वारा श्रीकृष्ण के पालना शयन को लेकर किए गए वात्सल्य गान की तरह उनके शयन दृश्य का गुणगान करने लग जाता है। टीवी चैनल पर आशुतोष का रोना इसलिए चर्चित हुआ कि वे नेता थे। हालांकि वे नेता बनने के पहले आदमी थे और कुछ कुछ पत्रकार भी थे। मगर तब उन पर कोई चर्चा नहीं होती थी। युग की धाराओं को समय समय पर नेताओं ने ही बदला है पत्रकारों ने नहीं। पत्रकार सिर्फ बदली हुई धारा का अपने अपने ढंग से विश्लेषण किया करते हैं। नेता ने इमरजेंसी लगाई तो पत्रकारों ने उस पर किताबें लिखकर चांदी काटी। नेता ने सूट पहना तो लाखों का और उतार कर धर दिया तो करोड़ों का! पत्रकारों की बीवियों ने देखा-देखी कर अपने पतियों के उतरे कोट की कीमत जाननी चाही तो कुछ थाली भगौनों से ज्यादा कुछ नहीं मिला। कई पत्रकारों ने पत्रकारिता छोड़कर नेतागिरी का पेशा अपनाया है पर कभी किसी नेता ने आज तक नेतागिरी छोड़कर पत्रकारिता शुरू नहीं की। एक नेता कितना ही छोटा या बड़ा हो उसके जन्मदिन पर जब उसके छुटभैये पूरे पूरे पृष्ठ के विज्ञापन देते हैं तब अखबारों की बैलेंस शीट के कॉलम हरे भरे होने लगते हैं।
    जिन आंदोलनों से सरकारें बनी या गिरी हैं वे जेपी और अन्ना हज़ारे जैसे नेता ने चलाए थे, किसी पत्रकार ने नहीं। अगर नेता नहीं होंगे तो हार-फूल, झंडे-डंडे, बैनर-वैनर, पुतले-वुतले, रैली-वैली और फीते-वीते सब धरे रह जाएंगे। यानी इनसे जुड़े सारे उद्योग धंधे बंद! खबरिया चैनलों की चौपालें राम के वनवास के बाद अयोध्या की गलियों की तरह सूनी हो जाएंगी। गली-मोहल्लों में गणेशोत्सव से लगाकर दुर्गोत्सव तक आरती और बड़े बड़े शिलान्यासों से लेकर पान की दुकानों के उदघाटन कौन करेगा? ये सब काम क्या पत्रकारों के बस के हैं?
    इन दिनों नेता जीवन के सभी क्षेत्रों, इन ऑल वाक्स ऑफ लाइफ (In all walks of life) बराबरी का दखल रखने लगा है। “जो आएगा वह जाएगा” जैसे अमूल्य ज्ञान को समझाने में कृष्ण को भी पूरे अट्ठारह अध्याय लग गए, उस गूढ़ ज्ञान के सूत्रवाक्य को प्रस्तुत करने में नेताजी को अट्ठारह सेकंड भी नहीं लगते है। प्रेस कांफ्रेंस पत्रकारों के लिए की जाती है जिसमें कभी कभी कोई असंतुष्ट शख्स नेता पर जूता भी फेंक देता है। क्या कभी किसी पत्रकार को यह सम्मान प्राप्त हुआ है? हम बचपन से अपनी स्कूली शिक्षा में नेताओं पर निबंध लिखते आए हैं। आज तक किसी सरकारी या प्रायवेट स्कूल में किसी पत्रकार पर निबंध लिखवाया गया? चौराहों पर नेताओं की मूर्तियाँ लगती हैं या पत्रकारों की?
    सारे चिंतन से यह निष्कर्ष सामने आता है कि उन्होंने अनजाने ही सही, बहस मुबाहिसे के लिए न सिर्फ एक ज्वलंत विषय, एक जबर्दस्त मुद्दा हमें दिया है बल्कि एक बहुत कड़वा सच भी उद्घाटित किया है कि वाकई पत्रकार वत्रकार नेता से बड़ा न तो कभी था और न ही आगे होगा! यह बात उन्होंने जिस भी आशय या संदर्भ में कही हो हमें उसका खुले हृदय से स्वागत करना चाहिए!
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