व्यंग्य
जीएसटी और पुरानी कर प्रणाली में वही अंतर है जो...
स्कूली शिक्षा के दिनों में गणित विषय मुझे कुछ ऐसे ही परेशान किया करता था जैसे आज बीजेपी वालों को पंद्रह लाख का ‘जुमला’ और कांग्रेस तथा ‘आप’ वालों को जीएसटी का मुद्दा परेशान कर रहा है।
यही गणित की कमज़ोरी आज फिर मेरी परेशानी का सबब तब बनी जब मैंने यह जानने की कोशिश की कि जीएसटी क़ानून आख़िर क्या बला है? एक टीवी चैनल जीएसटी के इतने फ़ायदे गिना रहा था कि सुनकर लगा कि सारे विरोध करने वालों को आधी रात में ही बंद करवा दूँ और तब तक न छोड़ूँ जब तक कि वे यह घोषणा न कर दें कि “हम जीएसटी बिल का समर्थन करते हैं।“ उधर एक दूसरा चैनल जीएसटी को बकवास, ग़रीबों की जान लेने वाला और देश की अर्थव्यवस्था को डुबाने वाला काला क़ानून बता रहा था।
मगर मुझे तब समझ में आया जब एक सीए मित्र ने मुझसे मेरी ही भाषा में बात की। बातचीत से मुझे यह इल्हाम हुआ कि जीएसटी और पुरानी कर प्रणाली में वही अंतर है जो किसी व्यंग्यकार के इंटरनेट के पहले के और बाद के दौर में है। पहले हम रफ कॉपी में लिखते, फिर कई काँट- छाँट के बाद फेर करते, कवरिंग लेटर लिखते, नाम-पता लिखे व टिकट लगे लिफाफे के साथ दूसरे टिकट लगे लिफाफे में बंद कर अखबार का नाम-पता लिखकर डाक के डिब्बे में डालते थे। इसके बाद डाक कर्मचारी द्वारा डिब्बा खोलकर उसे निकालना, मुहर लगाना और थैली में बंद करना जहाँ से और दो- चार हाथों से गुजर कर एक बार फिर पीठ पर धौल यानी मुहर लगवाना और फिर सरकारी कासिद के हाथों अखबार के दफ्तर में। वहाँ फिर लिफाफा खोलने वाला कोई और, फिर संपादक द्वारा पढ़ना और पसंद आया तो कंपोजज़िटर पास जो शब्दों को कागज से उतारकर फॉन्ट में बदलता, और पसंद न आने पर एक अन्य टेबल पर जहाँ कवरिंग लेटर की जगह‘अभिवादन व खेद सहित’ की ‘सेस’ टेक्सनुमा पर्ची के साथ ‘लौट के बुद्धू घर को आए’ की तरह आठ-दस दिन या महीने भर बाद शून्य पर आउट हुए बल्लेबाज़ की तरह वापस लेखक के पास।
और आज सीधे लेपटॉप पर टाइप करो, फिर एक बटन दबाते ही साहित्य संपादक की टेबल पर लगे कंप्यूटर के इनबॉक्स में। संपादक को पसंद आई तो एक बटन दबाकर पीडीएफ़ बनाकर मशीन पर। अगले दिन अखबार में। यानी लेखक और पाठक के बीच में पहले जहाँ दस एजेंसियाँ और बीसियों हाथ थे वहीं आज सिर्फ संबंधित संपादक और प्रिंटिंग मशीन है। बीच के सारे हाथ यानी ‘कर’ खत्म! यही है जीएसटी!
तभी अनोखीलाल जी जिन पर सदा देश की समस्त चिंताओं का बोझ रहता है, झुँझलाते हुए आ टपके। मैं समझ गया कि वे या तो जीएसटी पर अपना ज्ञान बाँटने आए हैं या मेरे ज्ञान की परीक्षा लेने आए हैं। आते ही शून्यकाल की तरह बिना सूचना और भूमिका के प्रश्न उछाला,“जीएसटी तुम्हारी कुछ समझ में आया मियाँ?”
“बिलकुल आया”, कहकर मैंने भी उन्हें उनके ढंग से समझाने का प्रायास किया, “जीएसटी और पुरानी कर प्रणाली में वही अंतर है जो आपके और आपके बेटे के विवाह में है। आपकी शादी के लिए आपके माता-पिता ने चार-पाँच लड़कियाँ देखी तब एक पसंद की, उधर लड़की वालों को कई जगह से मनाही के बाद आपके यहाँ हामी सुनने को मिली... फिर पहले सवा रुपए नारियल में ‘रोकने’ की रस्म हुई...फिर कुछ दिन बाद सगाई हुई... फिर दहेज लेनदेन और ‘पिरावनी’ की बात, कुछ महीने बाद शादी... जिसमें बरात जो तीन दिन वहाँ ठहरी... फिर, कुँवर कलेवा, लग्न-फेरे, फूफाजी का रूठना मनाना, बिदाई में वधू का फूट फूटकर रोना...बाद में गोना... और दूसरी ओर आपके बेटे की शादी जिसमें लड़के-लड़की के बीच कुछ दिन खिचड़ी पकी और दोनों के घरवालों ने विरोध किया तो सीधे रजिस्ट्रार के सामने शादी करके अपना घर बसा लिया। शादी वह भी थी और शादी यह भी है।"
हम दोनों तो संतुष्ट हैं। आपका क्या ख़याल है ?
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