Monday, 10 July 2017


 व्यंग्य
      जीएसटी और पुरानी कर प्रणाली में वही अंतर है जो... 
                                                                                                                        ओम वर्मा
स्कूली शिक्षा के दिनों में गणित विषय मुझे कुछ ऐसे ही परेशान किया करता था जैसे आज बीजेपी वालों को पंद्रह लाख का जुमला और कांग्रेस तथा आप वालों को जीएसटी का मुद्दा परेशान कर रहा है।
    
     यही गणित की कमज़ोरी आज फिर मेरी परेशानी का सबब तब बनी जब मैंने यह जानने की कोशिश की कि जीएसटी क़ानून आख़िर क्या बला है?  एक टीवी चैनल जीएसटी के इतने फ़ायदे गिना रहा था कि सुनकर लगा कि सारे विरोध करने वालों को आधी रात में ही बंद करवा दूँ और तब तक न छोड़ूँ जब तक कि वे यह घोषणा न कर दें कि “हम जीएसटी बिल का समर्थन करते हैं।“ उधर एक दूसरा चैनल जीएसटी को बकवास, ग़रीबों की जान लेने वाला और देश की अर्थव्यवस्था को डुबाने वाला काला क़ानून बता रहा था।
    
     मगर मुझे तब समझ में आया जब एक सीए मित्र ने मुझसे मेरी ही भाषा में बात की। बातचीत से मुझे यह इल्हाम हुआ कि जीएसटी और पुरानी कर प्रणाली में वही अंतर है जो किसी व्यंग्यकार के इंटरनेट के पहले के और बाद के दौर में है। पहले हम रफ कॉपी में लिखते, फिर कई काँट- छाँट के बाद फेर करते, कवरिंग लेटर लिखते, नाम-पता लिखे व टिकट लगे लिफाफे के साथ दूसरे टिकट लगे लिफाफे में बंद कर अखबार का नाम-पता लिखकर डाक के डिब्बे में डालते थे। इसके बाद डाक कर्मचारी द्वारा डिब्बा खोलकर उसे निकालना, मुहर लगाना और थैली में बंद करना जहाँ से और दो- चार हाथों से गुजर कर एक बार फिर पीठ पर धौल यानी मुहर लगवाना और फिर सरकारी कासिद के हाथों अखबार के दफ्तर में। वहाँ फिर लिफाफा खोलने वाला कोई और, फिर संपादक द्वारा पढ़ना और पसंद आया तो कंपोजज़िटर पास जो शब्दों को कागज से उतारकर फॉन्ट में बदलता, और पसंद न आने पर एक अन्य टेबल पर जहाँ कवरिंग लेटर की जगहअभिवादन व खेद सहित की सेस टेक्सनुमा पर्ची के साथ लौट के बुद्धू घर को आए की तरह आठ-दस दिन या महीने भर बाद शून्य पर आउट हुए बल्लेबाज़ की तरह वापस लेखक के पास।
    
     और आज  सीधे लेपटॉप पर टाइप करो, फिर एक बटन दबाते ही साहित्य संपादक की टेबल पर लगे कंप्यूटर के इनबॉक्स में। संपादक को पसंद आई तो एक बटन दबाकर पीडीएफ़ बनाकर मशीन पर। अगले दिन अखबार में। यानी लेखक और पाठक के बीच में पहले जहाँ दस एजेंसियाँ और बीसियों हाथ थे वहीं आज सिर्फ संबंधित संपादक और प्रिंटिंग मशीन है। बीच के सारे हाथ यानी कर खत्म! यही है जीएसटी!
   
     तभी अनोखीलाल जी जिन पर सदा देश की समस्त चिंताओं का बोझ रहता है, झुँझलाते हुए आ टपके। मैं समझ गया कि वे या तो जीएसटी पर अपना ज्ञान बाँटने आए हैं या मेरे ज्ञान की परीक्षा लेने आए हैं। आते ही शून्यकाल की तरह बिना सूचना और भूमिका के प्रश्न उछाला,“जीएसटी तुम्हारी कुछ समझ में आया मियाँ?”

     “बिलकुल आया”, कहकर मैंने भी उन्हें उनके ढंग से समझाने का प्रायास किया, “जीएसटी और पुरानी कर प्रणाली में वही अंतर है जो आपके और आपके बेटे के विवाह में है। आपकी शादी के लिए आपके माता-पिता ने चार-पाँच लड़कियाँ देखी तब एक पसंद की, उधर लड़की वालों को कई जगह से मनाही के बाद आपके यहाँ हामी सुनने को मिली... फिर पहले सवा रुपए नारियल में रोकने की रस्म हुई...फिर कुछ दिन बाद सगाई हुई... फिर दहेज लेनदेन और पिरावनी की बात,  कुछ महीने बाद शादी... जिसमें बरात जो तीन दिन वहाँ ठहरी... फिर, कुँवर कलेवा,  लग्न-फेरे, फूफाजी का रूठना मनाना, बिदाई में वधू का फूट फूटकर रोना...बाद में गोना... और दूसरी ओर आपके बेटे की शादी जिसमें लड़के-लड़की के बीच कुछ दिन खिचड़ी पकी और दोनों के घरवालों ने विरोध किया तो सीधे रजिस्ट्रार के सामने शादी करके अपना घर बसा लिया। शादी वह भी थी और शादी यह भी है।"    

     हम दोनों तो संतुष्ट हैं। आपका क्या ख़याल है ?     
                                                     ***


व्यंग्य- एटीएम, प्लास्टिक के पेड़ और रोबोटिक पुलिस (सुबह सवेरे,04.07.17 में)

 व्यंग्य
      एटीएम, प्लास्टिक के पेड़ और रोबोटिक पुलिस
                                                                                                             ओम वर्मा
चौराहे पर लाल सिग्नल होने पर मैंने अपना स्कूटर रोका। तभी मेरे पास एक और स्कूटर रुका और उस पर बैठे यात्री से मेरी आँखें चार हुई। उसने मुस्कराकर अभिवादन किया, तो मुझे ध्यान आया कि वह बैठा नहीं बल्कि बैठीहै। मैंने अभिवादन का प्रत्युत्तर तो दे दिया मगर मन उस निर्मल स्मित में उलझकर रह गया। रूपसी ने शायद मेरे चेहरे के असमंजस के भाव पढ़ लिए थे इसलिए पूछ बैठी, “बहुत दिन में दिखे सर, आजकल आते नहीं आप?”
     ज़ाहिर है कि वह तो मुझे पहचान गईं थी। मगर मुझ पर तो उम्र को जैसे आज ही असर दिखाना था। दिमाग़ पर ज़ोर डालने की तमाम तरह की एक्युप्रेसर प्रक्रियाएँ कर लीं मगर सब फ़ैल हो गईं। उसकी आवाज और अंदाज़ से यह तो समझ में आ ही गया था कि वह मेरे संपर्क क्षेत्र की ही है। जब मैंने उसे एक दो बार कनखियों से देखा तो उसने ताड़ लिया और असमंजस दूर करते हुए कहा, “कई दिनों से शायद आपका बैंक में आना नहीं हुआ, इसलिए पूछा।“
     ओह, अब समझ में आया। तभी ग्रीन सिग्नल हुआ और वह फुर्र से उड़ गई। मैंने चाहा कि अभी बैंक में जाऊँ और पूरे स्टाफ और शाखा प्रबंधक के पास जाकर चीखूँ, चिल्लाऊँ और उस प्लास्टिक के टुकड़े के पुर्जे पुर्जे कर फेंक दूँ और बताऊँ कि ऐसी टेक्नॉलॉजी भी किस काम की जिसकी वजह से आदमी आदमी के लिए अजनबी होकर रह जाए! पैसे निकालने, जमा करने और पासबुक में एंट्री करवाने के लिए मशीनें बाहर ही लगी हैं। कहीं बाहर पैसा भेजना हो तो मोबाइल है। अब सिर्फ नई पासबुक बनवाना हो या कर्ज़ लेना हो तो ही बैंक में कदम रखें वरना उन्होंने हमको पराया करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। एक वो दिन भी थे जब हम महीने एक दो बार पैसे निकालने, एकाध बार जमा करने, वर्षारंभ में शुभकामना देने के बहाने कैलेंडर- डायरी जुगाड़ने, नए नोटों कि गड्डी लेने और कभी छुट्टे कराने के लिए बैंक परिसर को रौंद दिया करते थे। इस बहाने कई बैंककर्मियों व ग्राहकों के बीच दोस्ती से लेकर शादी-ब्याह संबंध तक हुए हैं।  
     आधुनिकता और तरक्की की इस अंधी दौड़ में हम जीवात्मा के महत्व को कुछ ऐसे भूले हैं कि पहले हमने एक चौराहे पर प्लास्टिक के पेड़ लगाकर उसे जगमग किया फिर दूसरे चौराहे पर रोबोट को ट्राफिक का सूबेदार बना दिया। पेड़ के तने पर माशूका के नाम के साथ आई लव यू लिखकर जो मज़ा और उपलबद्धि हमने पाई है वह करोड़ों रुपए खर्च कर ताजमहल बनवाकर शाहजहाँ को भी नहीं मिली होगी। मन्नतों के धागे इन पेड़ों पर नहीं बाँधे जा सकते और कोई भूत भी इन पर वास करके अपने भूत होने के वीआईपी स्टेटस के कचरे करवाना नहीं चाहेगा। अब चूँकि प्लास्टिक के पेड़ों पर पत्थर मारने से फल या माली की गालियाँ तो मिलने से रही, लिहाजा एक और जहाँ कुछ पेड़ उदास चल रहे हैं वहीं  कुछ पत्थरबाज़ गलत जगह पर गलत उद्देश्य के लिए पत्थरबाज़ी करने पहुँच गए हैं।     
     रही सही कसर दूसरे चौराहे पर रोबोटिक पुलिसमेन ने पूरी कर दी है। मूँछ, डंडे और अपनी विशिष्ट शब्दावली से जो इमेज मानवी पुलिस ने बनाई है क्या उसकी बराबरी कोई रोबोट कर सकेगा? रोके जाने पर भी रईसजादों द्वारा कट मारकर निकल जाने का रोमांच और बिना पेपर्स या बिना हेलमेट के पकड़े जाने पर भियाजी से मोबाइल पर समझवाने का हमारा जन्मसिद्ध अधिकार क्या रोबोट के आगे चल सकेगा। फिर भी पकड़े जाने पर गांधी जी की तस्वीर और उर्जित पटेल का संदेश बाँटने का सुख क्या रोबोट के साथ मिल सकेगा? लगता है इस नए दौर को इन्सानों के बीच बढ़ता भाईचारा ज़्यादा नहीं सुहा रहा है।
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