Monday 10 July 2017

व्यंग्य- एटीएम, प्लास्टिक के पेड़ और रोबोटिक पुलिस (सुबह सवेरे,04.07.17 में)

 व्यंग्य
      एटीएम, प्लास्टिक के पेड़ और रोबोटिक पुलिस
                                                                                                             ओम वर्मा
चौराहे पर लाल सिग्नल होने पर मैंने अपना स्कूटर रोका। तभी मेरे पास एक और स्कूटर रुका और उस पर बैठे यात्री से मेरी आँखें चार हुई। उसने मुस्कराकर अभिवादन किया, तो मुझे ध्यान आया कि वह बैठा नहीं बल्कि बैठीहै। मैंने अभिवादन का प्रत्युत्तर तो दे दिया मगर मन उस निर्मल स्मित में उलझकर रह गया। रूपसी ने शायद मेरे चेहरे के असमंजस के भाव पढ़ लिए थे इसलिए पूछ बैठी, “बहुत दिन में दिखे सर, आजकल आते नहीं आप?”
     ज़ाहिर है कि वह तो मुझे पहचान गईं थी। मगर मुझ पर तो उम्र को जैसे आज ही असर दिखाना था। दिमाग़ पर ज़ोर डालने की तमाम तरह की एक्युप्रेसर प्रक्रियाएँ कर लीं मगर सब फ़ैल हो गईं। उसकी आवाज और अंदाज़ से यह तो समझ में आ ही गया था कि वह मेरे संपर्क क्षेत्र की ही है। जब मैंने उसे एक दो बार कनखियों से देखा तो उसने ताड़ लिया और असमंजस दूर करते हुए कहा, “कई दिनों से शायद आपका बैंक में आना नहीं हुआ, इसलिए पूछा।“
     ओह, अब समझ में आया। तभी ग्रीन सिग्नल हुआ और वह फुर्र से उड़ गई। मैंने चाहा कि अभी बैंक में जाऊँ और पूरे स्टाफ और शाखा प्रबंधक के पास जाकर चीखूँ, चिल्लाऊँ और उस प्लास्टिक के टुकड़े के पुर्जे पुर्जे कर फेंक दूँ और बताऊँ कि ऐसी टेक्नॉलॉजी भी किस काम की जिसकी वजह से आदमी आदमी के लिए अजनबी होकर रह जाए! पैसे निकालने, जमा करने और पासबुक में एंट्री करवाने के लिए मशीनें बाहर ही लगी हैं। कहीं बाहर पैसा भेजना हो तो मोबाइल है। अब सिर्फ नई पासबुक बनवाना हो या कर्ज़ लेना हो तो ही बैंक में कदम रखें वरना उन्होंने हमको पराया करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। एक वो दिन भी थे जब हम महीने एक दो बार पैसे निकालने, एकाध बार जमा करने, वर्षारंभ में शुभकामना देने के बहाने कैलेंडर- डायरी जुगाड़ने, नए नोटों कि गड्डी लेने और कभी छुट्टे कराने के लिए बैंक परिसर को रौंद दिया करते थे। इस बहाने कई बैंककर्मियों व ग्राहकों के बीच दोस्ती से लेकर शादी-ब्याह संबंध तक हुए हैं।  
     आधुनिकता और तरक्की की इस अंधी दौड़ में हम जीवात्मा के महत्व को कुछ ऐसे भूले हैं कि पहले हमने एक चौराहे पर प्लास्टिक के पेड़ लगाकर उसे जगमग किया फिर दूसरे चौराहे पर रोबोट को ट्राफिक का सूबेदार बना दिया। पेड़ के तने पर माशूका के नाम के साथ आई लव यू लिखकर जो मज़ा और उपलबद्धि हमने पाई है वह करोड़ों रुपए खर्च कर ताजमहल बनवाकर शाहजहाँ को भी नहीं मिली होगी। मन्नतों के धागे इन पेड़ों पर नहीं बाँधे जा सकते और कोई भूत भी इन पर वास करके अपने भूत होने के वीआईपी स्टेटस के कचरे करवाना नहीं चाहेगा। अब चूँकि प्लास्टिक के पेड़ों पर पत्थर मारने से फल या माली की गालियाँ तो मिलने से रही, लिहाजा एक और जहाँ कुछ पेड़ उदास चल रहे हैं वहीं  कुछ पत्थरबाज़ गलत जगह पर गलत उद्देश्य के लिए पत्थरबाज़ी करने पहुँच गए हैं।     
     रही सही कसर दूसरे चौराहे पर रोबोटिक पुलिसमेन ने पूरी कर दी है। मूँछ, डंडे और अपनी विशिष्ट शब्दावली से जो इमेज मानवी पुलिस ने बनाई है क्या उसकी बराबरी कोई रोबोट कर सकेगा? रोके जाने पर भी रईसजादों द्वारा कट मारकर निकल जाने का रोमांच और बिना पेपर्स या बिना हेलमेट के पकड़े जाने पर भियाजी से मोबाइल पर समझवाने का हमारा जन्मसिद्ध अधिकार क्या रोबोट के आगे चल सकेगा। फिर भी पकड़े जाने पर गांधी जी की तस्वीर और उर्जित पटेल का संदेश बाँटने का सुख क्या रोबोट के साथ मिल सकेगा? लगता है इस नए दौर को इन्सानों के बीच बढ़ता भाईचारा ज़्यादा नहीं सुहा रहा है।
                                                    ***
      


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