Sunday, 16 December 2018

व्यंग्य - टार्गेट नब्बे परसेंट !



व्यंग्य
                    टार्गेट – नब्बे परसेंट!
                                                                                           ओम वर्मा
रीक्षा में एक महत्वाकांक्षी विद्यार्थी का और चुनाव में एक दल विशेष का एक समुदाय विशेष के मतदान को लेकर एक ही टार्गेट रहता है- नब्बे परसेंट!

ऐसे विद्यार्थी घर घर बिखरे पड़े हैं। वह आपका सोनू, मोनू या पिंकी, रिंकी कोई भी हो सकता है। वह नब्बे परसेंट लाना चाहता है। उसे इस बार नब्बे परसेंट लाना ही है। इसके लिए जी तोड़ मेहनत तो कर रहा है गाहे-बगाहे मंदिरो-दरगाहों के चक्कर भी लगा लेता है। हायर सेकेंडरी फ़ेल बाप की इज्जत का सवाल जो है। हालाँकि अगर वह नब्बे परसेंट ले भी आया तो भी आश्वस्त नहीं है कि उसे आगे किसी बड़ी जगह प्रवेश मिल ही जाएगा। वह जिस रेस में शामिल है वहाँ कुछ ऐसे खिलाड़ी भी होते हैं जो कुछ क़ानूनी बैसाखियों के सहारे वहाँ पहले ही पहुँच सकते हैं जहाँ नब्बे वाला आसानी से पहुँच ही नहीं पा रहा है।

यह दूसरा नब्बे परसेंट का मामला थोड़ा भिन्न है। यह चल तो पिछले सत्तर सालों से रहा है मगर अब थोड़ा खुलकर सामने आ गया है। यहाँ सरदार को अपने कबीले का अस्तित्व बचाए रखने के लिए नब्बे परसेंट की दरकार है। न पिछत्तीस न नवासी! पूरे नब्बे। किसी विद्यार्थी को सभी विषयों में अच्छा करने पर ही नब्बे का जादुई आँकड़ा प्राप्त हो सकता है। जबकि इन्हें तो सिर्फ़ एक विषय में ही नब्बे परसेंट चाहिए। बाकी सारे विषय गए तेल लेने! पहले वाले प्रकरण में दुर्भाग्य से कुछ प्रत्याशी नब्बे परसेंट न लाने को ही जीवन की सबसे बड़ी हार मान लेते हैं और हताशा में मैदाने-जंग से पलायन ही कर जाते हैं। मगर दूसरे प्रकरण में नब्बे परसेंट प्राप्तांक यानी उनके लिए एक समुदाय विशेष के प्राप्तांक भर हैं, इससे ज़्यादा कुछ नहीं। उन्हें विश्वास है कि इस समुदाय विशेष के नब्बे परसेंट लोगों ने यदि वोटिंग कर दिया तो वह उनके ही पक्ष में होगा। यानी अगले पाँच साल उन्हें काम करना है या आराम, यह अब एक समुदाय विशेष की कृपा पर ही निर्भर होगा। अन्य समुदाय वाले इसका जो भी मतलब निकालना चाहें, निकालें। इधर मतदान में उनका वांछित नब्बे यदि नहीं प्राप्त हुआ तो अगले दस साल परीक्षा में न बैठने जैसी घोषणाएँ भी की जा सकती हैं। लेकिन जैसे वाहनों के रजिस्ट्रेशन में होता है कि दस साल के टैक्स को पंद्रह सालों तक के लिए वैध मान लिया जाता है, वैसे ही जनता भी दस साल दूर रहने की घोषणा करने वाले के महान त्याग को देखते हुए उसे पाँच साल का ग्रेस पीरियड देकर पूरे पंद्रह साल के लिए आराम भी दे सकती है।

मेरी  चिंता यह है कि अगर वे जीत गए तो नब्बे फीसदी में मुझे गिनेंगे या नहीं?
                                                             ***

Friday, 7 December 2018

व्यंग्य - एक चुनाव कथा


                                    एक चुनाव कथा!
                                                                                                                    ओम वर्मा 
तदान के अगले दिन।  
विवाह योग्य लड़का परिवार के साथ कन्या दर्शन टूर पर पहुँचा। लड़का भी सुंदर, लड़की भी सुंदर। दोनों एमबीए और दोनों की बड़ी बड़ी कंपनियों में पोस्टिंग। हालाँकि दोनों ज्योतिष और कुंडली मिलान में कोई विश्वास नहीं रखते थे फिर भी दोनों के माँ-बाप ने  अपने अपने ज्योतिषियों से कुंडलियों के मेल करवाकर अपनी लघु से लेकर और दीर्घ’, सभी तरह की शंकाओं का समाधान भी करवा लिया था। दोनों परिवार तो खुश थे ही, देखने वालों का भी इस जुमले में विश्वास पुख्ता होने लगा था कि जोड़ियाँ तो स्वर्ग में ही बनती हैं। पूरे सौहार्दपूर्ण वातावरण में प्रीतिभोज और औपचारिक विचार-विमर्श संपन्न होता है। इसके बाद, जैसा कि आजकल रिवाज है, लड़का लड़की दोनों को एकांत में छत पर वन-टु-वन विचार विमर्श यानी वास्तविक स्वयंवर के लिए भेज दिया जाता है। कुछ परंपरागत सवाल-जवाब के बाद लड़के की नज़र लड़की के बाएँ हाथ की तर्जनी पर पड़ती है तो पूछता है -
     “ये उँगली पर ऊपर काला काला क्या है? क्या कोई चोट लगी है?”
     “ये अमिट स्याही का निशान है। कल मतदान किया था ना!” लड़की ने गर्व से अपनी उँगली दिखाई। लगे हाथ प्रतिप्रश्न कर डाला, “कल तो आपके यहाँ भी मतदान था, आपकी उँगली भी तो रँगी होगी? “
     “हाँ, हमारे शहर में भी कल ही वोटिंग थी। मगर मैं तो नहीं गया। इन-फ़ेक्ट हमारे यहाँ से तो कल कोई भी नहीं गया। सभी की छुट्टी थी इसलिए नेटफ़्लिक्स से दो फ़िल्में देख डालीं। वी हेड अ लॉट ऑव(of) फ़न यू नो! हमने तो पिछले इलेक्शन में भी वोट नहीं डाला था। न तो मुझे लाइन में खड़े होना पसंद है और न ही ये नेता। सब साले #@&% हैं!” लड़का भी उँगली उठाकर दिखाता है, बेदाग उँगली!
     लड़की यकायक शोले की वाचाल बसंती से कोशिश की मूक नायिका आरती में बदल जाती है। नायक-नायिका की यह एकल वार्ता आगरा में विफल हुई अटल-मुशर्रफ़ की एकल वार्ता की तरह फेल हो जाती है। लड़का हॉल में और लड़की सीधे अपने कमरे में चली जाती है।    
     लड़की के माता पिता रोकने की रस्म करना चाहते हैं। बेटी की सहमति लेने उसके कमरे में जाते हैं।
     “सॉरी पापा! मैं यह रिश्ता नहीं कर सकती!”
     “क्या कह रही हो बेटी? लड़के में ऐसी क्या कमी है?” माँ तो भौंचक रह जाती है, पिता धैर्यपूर्वक आगे पूछते हैं, “लड़का सुंदर है, तुम्हारे बराबर पढ़ा-लिखा है...”
     “नहीं पापा”, बिटिया ने पूरा प्रसंग समझाते हुए कहती है, “जिन्हें अपने मत का मूल्य नहीं मालूम, और जो मतदान से ज़्यादा मनोरंजन ज़रूरी समझते हों, मैं उन्हें जिम्मेदार नागरिक नहीं मान सकती। और जो देश के प्रति ज़िम्मेदारी नहीं समझता, उसे मैं अपना जीवनसाथी कैसे बना सकती हूँ?”
     और पापा इनकार करने के लिए शब्दों का मेल बैठाने लगे!
                                         ***