पुस्तक समीक्षा
पुस्तक का नाम- तंत्र कथा लेखक - कुमार सुरेश
शासकीय कार्यालयों की आंतरिक विसंगतियों की मुकम्मल व्यंग्य कथा
समीक्षक - ओम वर्मा
व्यंग्य वह वैचारिक निबंध है जिसमें लेखक विसंगतियों, विद्रूपताओं, कुत् सित मानसिकता और समाज व राजनीति में व्याप्त भ्रष्टाचार का पोस्टमार्टम करता है। आज जबकि मूल्यों का निरंतर ह्रास हो रहा है, ऐसे में व्यंग्य की भूमिका और भी महत्वपूर्ण और सार्थक हो जाती है। जब भी बात भ्रष्टाचार की हो रही हो तो सियासतदानों के नित उजागर होते बड़े बड़े घोटाले याद आने लगते हैं और रिश्वत का नाम लेते ही हमारे सामने खाकी वर्दी घूम जाती है। और इसी के साथ याद आते हैं वे सरकारी कार्यालय जहाँ कोई फ़ाइल बिना चाँदी के पहियों के आगे नहीं बढ़ती, हर छोटा अफ़सर अपने से बड़े अफसर की व स्थानीय से लेकर राजधानी के बड़े नेता की चाटुकारिता में लीन है। अपवादस्वरूप कोई ईमानदारी की लकीर पीटना चाहे तो उसे किन यंत्रणाओं व बहिष्कारों का सामना करना पड़ता है, इसी कथा का नाम है ‘तंत्र कथा’।
पुस्तक में कुल अट्ठारह भाग या अध्याय हैं। और हर अध्याय अपने आप में जैसे एक मुकम्मल व्यंग्य या कथा है। पहले अध्याय में वे सरकारी ऑफिस की लोकेशन के बखान से प्रारंभ कर कार्यालय के फ़र्नीचर से लेकर उसका संपूर्ण ‘वास्तुशिल्प’ जिस अंदाज़ में सामने रखते हैं और फिर वरिष्ठ निरीक्षक चंद्रा जी का सौंदर्य भ्रमण पर जाना, मनमर्जी से ऑफिस आने-जाने वाले बड़े बाबू दुबे जी, उप-आयुक्त जोशी जी से उनकी झूमा-झटकी आदि प्रसंग पढ़कर पाठक को उस ‘स्टार्टर’ से ही यह आभास हो जाता है कि उसे एक लाजवाब दावत मिलने वाली है। एक नमूना देखें-
“काँच के इन टुकड़ों की साइज़ और मोटाई अधिकारी की हैसियत के हिसाब से तय होती थी। बड़े अफ़सर की टेबल पर पूरी टेबल की साइज़ का मोटा काँच था। बड़े बाबू की टेबल पर लगभग आधी टेबल को घेरने वाला आयताकार काँच का टुकड़ा था। छोटे बाबुओं की मेज पर चटका या टूटे काँच का छोटा-सा आयताकार टुकड़ा था।”
उप-आयुक्त जोशी जी का आचरण भी किसी कनिष्ठ अधिकारी द्वारा की जा रही चापलूसी का नज़ारा प्रस्तुत करता है। अपर आयुक्त मनमोहन भसीन के दौरे के बहाने डाक-बंगला संस्कृति का रोचक प्रसंग भी है। दौरे पर आए अफ़सर के लिए कैसे कुछ कनिष्ठ अधिकारी चाटुकारिता की सारी हदें पार कर देते हैं, अफ़सर कैसे अपनी निजी यात्रा को सरकारी दौरे में बदल देता है, और अफ़सर की आवभगत और खानपान का सारा बिल किसके गले मढ़ा जाता है, आदि प्रसंगों पर लेखक की क़लम मनोरंजन, फैंटेसी और व्यंग्य की चुटकियों की एक शानदार रेसिपी प्रस्तुत करती है। चापलूसी की ‘नृत्य कला’ राजा के संगीत प्रेम की क्षेपक कथा, सहा. आयुक्त भटनागर की फ़ाइल पर ड्राफ्टिंग की ‘कला’, प्रशासन चलाने की मित्तल सा की विशिष्ट शैली जिसे लेखक ने ‘मित्तल इफ़ेक्ट’ का नाम दिया है, आदि पढ़कर पाठक को लगता है कि यही वह असली सरकारी तंत्र है जिसका वह हिस्सा है। अगर नहीं भी है तो भी जीवन में ऐसा अवसर एक न एक बार ज़रूर आता ही है जब किसी न किसी रूप में उसका इस तंत्र से सामना होता ही है। इसी अध्याय से कुछ व्यंग्य चुटकियों की बानगी देखें-
“जिस तरह हर नदी का एक समुद्र होता है, उसी तरह हर जिला ऑफिस का एक हेड ऑफिस होता है। नदियों से समुद्र की तरफ लगातार पानी बहता रहता है और समुद्र में गिरकर विलीन हो जाता है। जिला कार्यालयों से हेड ऑफिस की तरफ लगातार जानकारियाँ जाती रहती हैं और हेड ऑफिस में आकर गायब हो जाती हैं।“
शांति समिति की बैठक में समिति के सदस्य तमाम वे लोग हैं जिनकी आपराधिक प्रवृत्ति रही है। और शांति के बारे में लेखक का विश्वास है कि “यह आम विश्वास था कि शहर में शांति नाम की जो सुंदर मोहतरमा निवास करती है उसकी इज्जत इन्हीं महापुरुषों के हाथ में है और ये जब चाहें उसे लूट सकते हैं। जब बैठक आरंभ हुई तब शांति देवी, शांति के प्रतीक सफ़ेद लिबास में बैठक में एक किनारे पर बैठी देखी गई।”
पहले बैठक में ही शांति भंग होने लगती है। अपर कलेक्टर से मामला नहीं सँभलता तो कलेक्टर के इशारे पर पटवारी से नायाब तहसीलदार बने सोनेलाल संभालते हैं। जैसे ही वे प्लेटों में रखा भारी नाश्ता सर्व करने का इशारा करते हैं, सभी के मुँह बंद हो जाते हैं। अगले भाग में चलता है सूअर पकड़ो अभियान जिसके चलते एक प्राणी एक धार्मिक स्थल पर प्रवेश कर जाता है जिससे शहर में दंगा भड़क जाता है जिससे कर्फ़्यू लगाना पड़ता है। कर्फ़्यू में जनता चाहे परेशान होती रहे, अधिकारियों की मौज चलती रहती है। सुबह सुबह शौच करने को या कर लें तो नाश्ते-पानी को तरसते पुलिस व सुरक्षा बल के जवान अपना गुस्सा निरीह जनता पर निकालने लगते हैं। जोशी जी पंद्रह दिनों के कर्फ़्यू में एक नर्स से अपना टाँका भिड़ाने में सफल हो जाते हैं। लेखक शायद पाठक के मन में यह नेरेटिव सेट करना चाहते हैं कि चाहे दंगा हो रहा हो या शांतिकाल हो, तंत्र के सारे किरदार अपनी हरकतों से कहीं बाज़ नहीं आते। हर व्यवस्था में वे अपने लिए स्पेस बना ही लेते हैं। डाक बंगलों में कई बार किसी वीआईपी का आगमन होता है या मंत्री जी कयाम करते हैं तो साथ में चाटुकारों की एक बड़ी फौज भी होती है। इनके खाने-पीने पर जो खर्च होता है आख़िर वह कौन वहन करता है? आठवाँ अध्याय इसी बात का खुलासा करता है जिसमें एक से एक तगड़े पंच हैं।
फिर प्रवेश होता है मुख्यालय के ‘ताकतवर’ चरित्र - कमलेश बाबू और विभागाध्यक्ष कार्यालय में स्थापना शाखा में पदस्थ सहायक आयुक्त- दीपक आहूजा जो कॉलेज की लेक्चररशिप छोड़कर लोकसेवा आयोग की परीक्षा के माध्यम से सहायक आयुक्त बनना इसलिए पसंद करते हैं कि भले ही वेतन कम हो, ऊपरी कमाई ज़्यादा है। शिक्षक का बच्चे आदर से सम्मान करते हैं जबकि प्रशासक का भय से सम्मान करते हैं जो उनकी नज़र में सही है। शिक्षक बनकर बच्चों के साथ समय बिताने के बजाय प्रशासक बनकर आईएएस के साथ समय बिताना ज़्यादा बेहतर समझते हैं। लेखक का कैमरा जातीयता के जहर पर व्यंग्य की फ़्लेश चमकाता है।
कमलेश बाबू जब रिश्वत लेते हुए पकड़े जाते हैं जिसके बाद सभी लोग जिस तरह की प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं वह हमारे वर्तमान समय की बहुत बड़ी सच्चाई है। तमाम प्रतिक्रियाओं के बाद लेखक निष्कर्ष निकालते हैं कि- “कुल मिलाकर इस उपयोगी विचार विमर्श से यह आम निष्कर्ष निकला कि आज के महँगाई के जमाने में सरकारी कर्मचारी का पैसे लेना एक व्यावसायिक ज़रूरत है। लेकिन इस काम को बहुत सावधानी से करना चाहिए और लेनदेन की सुरक्षित नई तकनीकों की खोज हमेशा करते रहना चाहिए।” कमलेश बाबू ने ग़लत किया यह कोई नहीं कहता।
फ़िल्म ‘पति, पत्नी और वो’ तो सभी ने देखी होगी। याद करें फ़िल्म के उत्तरार्ध का वह दृश्य जिसमें विद्या सिन्हा को पति संजीवकुमार व रंजीता के प्रेम प्रसंग की जानकारी मिल जाती है और तीनों का एक फ़्रेम में आमना सामना होता है। तब संजीवकुमार की जो हालत होती है, वही हालत उप-आयुक्त जोशी जी की हो जाती है जब वे अस्पताल में भर्ती हैं, पत्नी सेवा कर रही है और उनकी ‘वो’ यानी मिस रागिनी उनसे मिलने आती है और छाती से लिपटकर विलाप करने लगती है। लेखक के शब्दों में- “(अस्पताल के) कमरे के भीतर जोशी जी की हालत उस पेड़ के सरीखी हो गई थी जिसके ऊपर लिपटकर अमरबेल रस चूस रही हो और नीचे जमीन पर खड़ी बकरियाँ पट्टियाँ नोच रही हों। मिस रागिनी गले से लिपटी हुई थी। पत्नी गुस्से और हताशा में भरी सामने खड़ी थी।” बारहवें भाग में यह ‘कॉमिक रिलीफ़’ वाला दृश्य है। इसे पढ़कर पाठक अपनी हँसी रोक नहीं पाता। हालाँकि दृश्य लेखक ने महज हास्य उत्पन्न करने के लिए नहीं रचा है। पूरे दृश्य में जोशी जैसे व्यक्तियों का चारित्रिक भटकाव जिसका कारण पत्नी द्वारा बरती गई उपेक्षा है, बाद में अपने अधिकार के लिए उसी पत्नी का ‘चण्डी’ बन जाना, और दूसरी औरत जो यह जानते हुए भी कि वह हवा को गले लगाए हुए है, प्रेमजाल के भँवर में डूबना या निकलने के लिए छटपटाना...ये सब पाठक को आसपास की घटनाएँ लगती हैं। इसी में दूसरे प्रसंग में सरकारी अस्पताल में डॉक्टरों की कार्य-प्रणाली पर भी जबर्दस्त चुटकी ली गई है। गीता मैडम के प्रकरण में हम यूनियन वालों का बात का बतंगड़ बनाकर अपनी मनचाही माँग मनवाना यूनियन के नेताओं का चरित्र भी उजागर करता है। भाग तेरह में ‘आनेस्टाइटिस’ बीमारी (ईमानदार कर्मचारी की ईमानदारी के जुनून के लिए व्यंजना में प्रयुक्त होने वाला शब्द) के बहाने विनय प्रकाश जैसे अधिकारियों का व्यक्तित्व सामने आता है जो चाटुकारिता व भ्रष्टाचार से इस तंत्र में तादाम्य नहीं बिता पाने के कारण वीआरएस लेने के बारे में सोचने लगते हैं।
जिला केंद्रीय सहकारी बैंक के चुनाव का प्रकरण भी बहुत दिलचस्प है। प्रतापसिंह और कामता प्रसाद के बीच चुनावी मुक़ाबला है। प्रतापसिंह सीएम से कहकर जोशी जी को चुनाव अधिकारी बनवा देता है। फिर जोशी जी मतदाता सूची के प्रकाशन से लेकर अध्यक्ष के चुनाव लिए पर्ची उठवाने में कैसी हेराफेरी की जाती है आदि सभी ‘कलाओं’ में अपनी प्रवीणता दिखाकर प्रतापसिंह को अध्यक्ष निर्वाचित करवा देते हैं। यह अध्याय संक्षेप में एक झलक दिखाता है कि कैसे प्रशासन के जिम्मेदार अधिकारी कई बार राजनेताओं से गठजोड़ कर कैसे परिणामों को अपने अनुरूप बनाने की क्षमता रखते हैं। अब यहाँ कामता प्रसाद उप-आयुक्त जोशी जी को ठिकाने लगाने की ठान लेते हैं। यहाँ काँटे से काँटा निकालने की नीति पर चला जाता है।
संयोग से कामता प्रसाद के पास जोशी जी के विरुद्ध जमीन घोटाले से जुड़ा एक बड़ा मुद्दा हाथ लग जाता है। जैसा कि राजनीति में आम रिवाज है, यहाँ जोशी जी भी एक बाबा की शरण में चले जाते हैं। आज जबकि बाबाओं की शरण में राजनेता अपने चुनाव जीतने के लिए पाँच क्विंटल मिर्ची का हवन-यज्ञ करवा सकते हैं तो उप-आयुक्त जोशी जैसा घोटाले में फँसा अधिकारी जब बाबा की शरण में जाकर चार सौ रुपए का प्रसाद और मंदिर निर्माण के नाम पर चंदा देता है तो क्या आश्चर्य! जिस तरह मिर्ची का यज्ञ काम नहीं आता वैसे ही उपन्यास के बाबा भी भभूत भी जोशी जी को नहीं बचा पाती। इस प्रकार में सोलहवें भाग में हम देखते हैं कि कामता प्रसाद ‘जोशी हटाओ अभियान’ में सफल हो जाते हैं और जोशी का प्रभार सहा. आयुक्त मित्रा को मिल जाता है।
निलंबित होने पर जोशी जी को मुख्यालय में पदस्थ कर दिया जाता है। अब आते हैं सत्रहवें भाग में। मेरा दावा है कि आप अगर सरकारी नौकरी में चाहे सचिव से लेकर चपरासी तक किसी भी पद पर रहे हों, यह अध्याय आपको अपने सामने घटित हुई और देखी भाली घटना ही लगेगा। जोशी जी के साथी दीपक आहूजा को दूर फेंक दिया जाता है और वे अवसादग्रस्त होकर शराब में डूबकर मुक्ति पा जाता है। इधर प्रतापसिंह के मंत्री बनने की अफवाह ज़ोर पकड़ने लगती है जिस कारण मुख्यालय में सभी फुर्सत में घूम रहे जोशी जी का आदर सम्मान करते रहते हैं। मगर मंत्रिमंडल के पुनर्गठन में प्रतापसिंह स्थान नहीं पाते तो जोशी जी लोगों को बोझ लगने लगते हैं। चुनाव होने पर प्रतापसिंह जब विधायक भी नहीं रहते तो मुख्यालय में उनकी हैसियत गली के कुत्ते सी हो जाती है। सबसे बड़ी दुर्गति उन्हें अपनी सेवानिवृत्ति वाले दिन देखने को मिलती है जब उसी कार्यालय से कमिश्नर पदौन्नत होकर मंत्रालय में प्रमुख सचिव बन जाते हैं। उगते सूरज को सलाम करने की नीति के तहत कमिश्नर साहब को भारी-भरकम भेंट दी जाती है और सेवानिवृत हो रहे जोशी जी को नारियल और गीता का गुटका पकड़ा दिया जाता है। यहाँ तक कि उन्हें अंत में बोलने भी नहीं दिया जाता।
अंतिम अध्याय तो जैसे बार बार पढ़ा जाने लायक दस्तावेज़ की तरह सामने आता है। इसमें कुछ ऐसे फेंटेसियाँ हैं कि पाठक लेखक की शैली का मुरीद हो जाता है।
अपनी शैली और व्यंग्य के तीखे पंचों की वजह से लेखक नैसर्गिक व्यंग्यकार नजर आता है। कुछ दृश्य जैसे गंजेड़ी बाबा प्रसंग, गीता मेडम का बेहोश होने का नाटक करना आदि ज्ञान चतुर्वेदी जी के ‘बारामासी’ की याद दिलाते हैं। उपन्यास की शैली अंत तक बाँधे रखने वाली है। रिटायरमेंट के बाद अपने ही साथियों से मिलने वाली घोर उपेक्षा जोशी जी को बार बार आगंतुक से हर बात “व्हेन आई वाज डिप्टी कमिश्नर...” से शुरू करने को बाध्य कर देती है। लेखक की भाषा कभी हँसाती भी है और चिकोटी भी काटती है। अंत तो बहुत जानदार व कलात्मक या कहना चाहिए कि प्रतीकात्मक है जिसमें पैदल जा रहे जोशी जी को उनका ही कभी अधीनस्थ रहे व वर्तमान में उप आयुक्त बन गए अधिकारी की गाड़ी कीचड़ उड़ाती चली जाती है।
बेशक 'तंत्र कथा' एक स्मरणीय व संग्रहणीय कृति है।
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