Monday, 3 June 2024
व्यंग्य - और पंछी उड़ गया। नईदुनिया 03.06.2024
पंछी ने गरदन को दसों दिशाओं में घुमाया, फिर एक लंबी साँस ली और उड़ गया, एक लंबी उड़ान के लिए।
अपनी गरदन तो वह कई दिनों से घुमाता आ रहा था। जिस पेड़ पर उसका बसेरा था उसके टूटते पत्तों को थामने की नाक़ामयाब कोशिश करता, फिर हसरत भरी नज़रों से पास के हरे भरे पेड़ को निहारने लगता और एक ठंडी साँस लेकर फिर अपनी गरदन को मोड़कर अपने धड़ में छिपा लेता। मगर आज उसने पेड़ को अंतिम बार ठीक उसी तरह देखा जैसे अपना गेह छोड़ने से पहले कभी राजकुमार सिद्धार्थ ने पत्नी यशोधरा और पुत्र राहुल को निहारा था।
पंछी महोदय सुजाता से खीर पाना तो चाहते थे मगर उन्हें सिद्धार्थ जितनी लंबी तपस्या गवारा नहीं थी। अब उस पाखी को यह आभास भी हो चला था कि यह सूखता पेड़ उनके लिए बोधि वृक्ष साबित नहीं हो सकता। चतुर प्राणी यह भी जानता था कि इस पेड़ के नीचे कई सिद्धार्थ तपस्या कर चुके हैं और उन्हें बुद्धत्व प्राप्त होना तो दूर रहा, वे अपनी रियासत के राजकुमार भी नहीं रहे। न पलंग पर बैठने के रहे न खाट पर लेटने के। सुजाता हर बार खीर का पात्र उन्हें दिखाकर टुँगाती हुई निकल जाती।
बहरहाल, हमारे इस बेचैन पंछी ने नए पेड़ पर लैंड किया है। पेड़ पर पहले से मौजूद अन्य पंछियों ने ट्विटियाकर उनका स्वागत भी किया है। हालाँकि पेड़ पर बरसों से बसेरा कर रहे कुछ पुराने पंछियों ने इस चहचहाहट में अपनी चोंच नहीं खोली। किसी ने लोकलाज के मारे खोली भी तो, मगर जरा सी ही खोली। मगर फिर उन्हें भी आख़िर में मुख्य क़व्वाल द्वारा गाई जाने वाली पंक्ति को पीछे बैठकर दोहराते रहने और तालियाँ बजाने रहने वाले साथियों की तरह कलरव में शामिल होकर ‘मिले सुर मेरा तुम्हारा’ गाना ही पड़ा।
पूरे अहाते में इन दो बड़े पेड़ों के अलावा कुछ छोटे मोटे और पेड़ भी हैं। पंछी तो सभी पर बैठे हैं, किसी पर कम किसी पर ज़्यादा। और ज़ाहिर है कि ‘कहीं खुशी, कहीं ग़म’ वाला माहौल है। कुछ पीढ़ियों से एक ही पेड़ पर जमें हैं तो कुछ अधिक हरा पेड़ देखते ही फुर्र से उड़कर वहाँ अपना घोसला बना लेने की कला में माहिर हैं। कुछ ऐसे भी हैं जो दूसरे के घोसलों में अंडे दे आते हैं और अपने बच्चे दूसरों के घोसलों में फलते फूलते देख फूले नहीं समाते। मगर अब यह अहाते का दुर्भाग्य है कि आजकल ‘जंगल समाचार’ में चर्चा, नाम और बार बार उल्लेख उन पंछियों का होने लगा है जिन्हें किसी मौसमविज्ञानी की तरह पतझड़ की भनक पहले से लग जाती है और वे किसी उपयुक्त हरे भरे पेड़ की तलाश शुरू कर देते हैं। अहाते का दुर्भाग्य यह भी है कि ऐसी प्रजातियाँ अब तेज़ी से बढ़ती जा रही हैं। लेकिन यह भी तय है कि सयाने पंछियों के बीच अहाते की जब भी बात चलेगी या अहाते का जब भी इतिहास लिखा जाएगा, तो उन पंछियों का नाम सबसे ऊपर होगा जिन्होंने एक ही पेड़ पर अपना पूरा जीवन बिताया है, या जिन्होंने उसे हरा भरा बनाए रखने में अपने प्राणों की आहुति भी दे दी है।
पंछी आते जाते रहेंगे, उनमें से कुछ अपने ठिकाने बदलते भी रहेंगे, मगर अहाते के हित में यही होगा कि यह जो कलरव है, जो चहचहाट है, वह शोर में न बदले। अहाता अगर पेड़ों से भरा रहेगा और पेड़ों में हरापन बना रहेगा तो पंछी अपने आप आ बसेंगे। पंछी हों या इंसान, कुछ ही होते हैं इतने खुद्दार जो ‘जीना यहाँ, मरना यहाँ, इसके सिवा जाना कहाँ’ में ही विश्वास रखते हैं।
यह तो बेचारा पंछी ही जानता है कि उसे अपना ठिकाना बदलते समय दिल पर कितना बड़ा पत्थर रखना पड़ता है!
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