Sunday 8 May 2011

दाम्पत्य -कुछ दोहे

  दाम्पत्य -कुछ दोहे

 हो सितार विश्वास का, नेहों का मिजराव।
 बजता है तब ताल में, दांपत्य का राग॥
        तिनके चुनकर नेह के, विश्वासों की डोर।
        यूँ जीवन चादर बुनो, फटे ओर ना छोर॥
 दो बरतन होते जहाँ, होता है टकराव।
 गाँठ नहीं बाँधें कभी, यदि जो हुआ दुराव॥
        मैं न हुई रत्नावली, ना तुम तुलसीदास।
        कभी बनूँगी प्रेरणा, मुझको है विश्वास॥
 ना तुम हो अब जानकी, ना मैं हूँ श्रीराम।
 मायावी  मारीच  पर, दोनों  कसें लगाम॥
         बार-बार कहकर गई, सबका  रखूँ  खयाल।
         तन से थी वह मायके, मन से थी ससुराल॥
 बिस्तर, बैठक या किचन, सब में तुम मौजूद।
 हर  कोने में  गंध-सी, रखती  सदा  वजूद॥
          साड़ी पहने जब दिखी, बिटिया पहली बार।
          लगा तुम्हारी रूह ने, लिया पुनः अवतार॥
 करे काम वह सात दिन, क्या मंगल क्या पीर।
 कोई दिन अवकाश का, पा न सकी तकदीर॥
           सोया चादर तानकर, मैं तो हर रविवार।
           उस दिन भी हर चीज थी, टाइम पर तैयार॥
          (* मिजराव - सितार बजाने का छल्ला।)

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