Thursday, 10 January 2013


व्यंग्य (पत्रिका, 01.01.13)
              शुभकामनाओं के बहाने !

                     ओम वर्मा om.varma17@gmail.com
मैंने उसे और उसने मुझे, दी नव वर्ष की शुभकामनाएँ ; हालांकि हम दोनों वर्ष भर एक दूसरे के कभी काम न आए !
     बहरहाल, देश की सारी अबोध बालिकाओं से लेकर वयस्क महिलाओं तक को मेरी नव वर्ष की शुभकामना ; प्रभु करे न हो कभी उनका बलात्कारी गेंग से कहीं भी सामना ! किसी प्रदेश की छह करोड़ जनता जिसे तीन बार मान चुकी हो अपना सिरमौर ; उसे कोई नव वर्ष में नहीं कहे बंदर, राक्षस या आदमखोर ! नए वर्ष में सब्सिडी वाले गैस सिलेंडरों की संख्या में हो जाए पर्याप्त वृद्धि ; मेरी सरकार को देना प्रभु ऐसी सद्बुद्धि ! नहीं हो अब किसी कन्या भ्रूण का गर्भ में ही    अंत ; नहीं  पैदा हो फिर कोई व्याभिचारी संत ! नहीं लगाए फर्रुखाबाद में अब कोई किसी के आने पर रोक ; नहीं बन सके इंडिया गेट कभी तहरीर चौक ! नहीं चढ़े होरी के सर पर कोई नया उधार ; देश की अर्थ व्यवस्था में कुछ ऐसा हो सुधार ! नए वर्ष में टूट जाए पापाजी का मौन ; वे पहचान सकें कलमाड़ी और राजा है कौन ! नहीं डुबाए सास का नाम कोई दामाद ; भ्रष्टाचार की जड़ों में नहीं लगे और खाद ! नहीं करे कोई नई - पुरानी पत्नी में भेद ; नहीं कर पाए कोई कसाब  सुरक्षा  व्यवस्था  में  छेद ! नहीं  लगे पेट्रोल डीज़ल की कीमतों में फिर  आग ; नहीं छीन सके गरीबों के मुँह का निवाला एफडीआई रूपी काग ! संसद के सत्र चलें बिना व्यवधान ; करना कुछ ऐसा करुणानिधान ! नहीं करे फिर कोई किसान आत्मोत्सर्ग ; तभी होगा नए वर्ष में देश मेरा स्वर्ग ! फेस बुक पर पोस्ट करने पर नहीं हो फिर से किसी लड़की की गिरफ्तारी ; तभी समझूँगा खत्म हुई नव वर्ष में सांप्रदायिकता की बीमारी ! बाबा रामदेव की काले धन की माँग नहीं रहे अधूरी ; सब मिलकर करें इसे नव वर्ष में पूरी। नहीं तड़पे कोई रोहित पाने को बाप का नाम ; नर होकर नारायण को कोई अब और न करे बदनाम ! सभी भूले भटके लक्ष्मण लौट आएं अपने राजा राम के द्वार ; ताकि दलबदल के कारण नहीं हो फिर से किसी के करियर का बण्टाधार ! नहीं खले कमी कभी सचिन की नए साल ; कोई नया सचिन आए और दिखाए वो कमाल ! फिर कोई भाई यदि करे गलती इस साल ; आए फिर कोई शर्मिष्ठा बन कर उसकी ढाल ! नहीं जाए व्यर्थ दामिनी की वो क़ुर्बानी ; नए साल में मर जाए उनकी आँख का पानी ! यदि नहीं मिलेगा पहली जनवरी को मुझे खून की स्याही से छपा अखबार ; तभी बनवाऊँगा तुम्हारे लिए
गत और तोरण का बंदनवार !
    और अंत में यही कि नहीं फिसले बार बार फिर नेताओं की जुबान ; नए वर्ष में सभी नेताओं को ऐसी सद्बुद्धि देना श्रीभगवान !
                        *** 
 100, रामनगर एक्स्टेंशन, देवास ,455001(म.प्र)     


व्यंग्य (नईदुनिया, 27.12.12)  
                       राज और नीति

                                                              ओम वर्मा          om.varma17@gmail.com
राजनीति में दो तरह के लोग होते हैं – एक वे जो सिर्फ राज करना चाहते हैं; या स्वयं  ऐसा समझते हैं कि वे सिर्फ राज करने के लिए ही बने हैं और चाहें तो रात के बारह बजे से राज करना शुरू कर सकते हैं। या फिर  “भियाजी लाओ-देश बचाओ ” के नारे सुन-सुनकर जब उनके कान कार्बाइड से पके फलों की तरह समय से पहले ही पकने लग जाएँ तो उनको “सती माता की जयजयकार “ के नारों के बीच पति की मृत्यु शैया पर सती होने को बाध्य कर दी गई सती माता की तरह मजबूर होकर उचित स्थान ग्रहण करना ही पड़ता है। इन लोगों ने अपनी आँखें खुलते ही परिजनों को सिर्फ लोगों के सलाम स्वीकार करते, गरजते-बरसते या कभी कभार लोगों या सभाओं को संबोधित करते भी देखा है। राजनीति का राज इनके लिए बाँहें फैलाए खड़ा होता है और नीतियाँ हमेशा इनकी अनुगामिनी होती हैं।
        राजनीति व्याकरण की दृष्टि से वह समास है जिसका पहला सामासिक पद राज कुछ गिने चुने लोग या घराने हथिया चुके हैं। बचा दूसरा पद नीति जिसे कुछ लोगों ने कुछ ऐसा जकड़ या पकड़ रखा है कि किसी क़ीमत पर छोड़ने को तैयार नहीं हैं। ये लोग राजनीति में आए या आना चाहेंगे तो सिर्फ नीति के कारण। नीति ही इनका इश्क़ है, नीति ही इनका ईमान है। ये अपने जैसा दूसरों को भी बनाना चाहते हैं। नीति इनका साध्य है और धरना, घेराव, प्रदर्शन, पुतला-दहन या फिर सवाल-जवाब इनके साधन। कल गांधी और जेपी बनकर ये लोग पहले वालों की नाक में दम करते रहे और आज भी उनके कुछ वंशज हैं जो कुछ ऐसी ही छुट्पुट वारदात करते रहते हैं। ऐसे एक बाबाश्री ने योगाभ्यास से पहले देश का शारीरिक घोटाला उजागर किया, फिर काले धन की वापसी की माँग करके  आर्थिक घोटाले की खबर ली। मगर खानदानी लोगों से पंगा लेने के चक्कर में उन्हें भेस बदलकर गधे के सिर के सींग बनना पड़ा।
           राज करते हुए नीतियों की भोंगली बना कर दादाजी के जमाने में आने वाली चिट्ठियों की तरह दीवार के किसी छेद में खोंस कर रख देने वालों से भिड़ने एक और बाबा आए। इन बाबा की भी यही जिद कि सारे घर के बदल डालूँगा । उधर राज वाले हैं कि टस से मस होने का नाम नही ले रहे और उधर नीति वाले हैं कि उन्हें लाइन पर लाने के लिए अपनी नीतियों पर ही पुनर्विचार करने पर मजबूर हो गए है। इधर नीति अनुगामियों से अलग होकर एक चमत्कारी सज्जन ने जब इनकी पोल खोली तो उनके मन में लड्डू फूटने लगे और इन सज्जन में उन्हें वैतरणी पार करवाने वाली कामधेनु की अदृष्य पूँछ नज़र आने लगी। मगर कामधेनु यकायक ब्रम्होस मिसाइल में तब्दील होकर इन के बजाय उन का भी लक्ष्यभेद करने लगी तो सारे इन से लेकर उन तक को समझ में नहीं आया कि आखिर ये भिया हैं किनकी तरफ?
               आने वाला समय राज वालों का होगा कि नीति वालों का...यही देखेंगे, भुगतेंगे या सहन करेंगे हम लोग...!                                                                                                                                                                ***