व्यंग्य (नईदुनिया, 27.12.12)
राज और नीति
ओम वर्मा om.varma17@gmail.com
राजनीति में दो तरह के
लोग होते हैं – एक वे जो सिर्फ राज करना चाहते हैं; या स्वयं ऐसा
समझते हैं कि वे सिर्फ राज करने के लिए ही बने हैं और चाहें तो रात के बारह बजे से
राज करना शुरू कर सकते हैं। या फिर “भियाजी
लाओ-देश बचाओ ” के नारे सुन-सुनकर जब उनके कान कार्बाइड से पके फलों की तरह
समय से पहले ही पकने लग जाएँ तो उनको “सती माता की जयजयकार “ के नारों के
बीच पति की मृत्यु शैया पर सती होने को बाध्य कर दी गई ‘सती माता’ की तरह मजबूर होकर
उचित स्थान ग्रहण करना ही पड़ता है। इन लोगों ने अपनी आँखें खुलते ही परिजनों को
सिर्फ लोगों के सलाम स्वीकार करते, गरजते-बरसते या कभी
कभार लोगों या सभाओं को संबोधित करते भी देखा है। राजनीति का ‘राज’ इनके लिए बाँहें
फैलाए खड़ा होता है और नीतियाँ हमेशा इनकी अनुगामिनी होती हैं।
‘राजनीति’ व्याकरण की दृष्टि
से वह समास है जिसका पहला सामासिक पद ‘राज’ कुछ गिने चुने लोग या घराने हथिया चुके हैं। बचा
दूसरा पद ‘नीति’ जिसे कुछ लोगों ने
कुछ ऐसा जकड़ या पकड़ रखा है कि किसी क़ीमत पर छोड़ने को तैयार नहीं हैं। ये लोग
राजनीति में आए या आना चाहेंगे तो सिर्फ नीति के कारण। नीति ही इनका इश्क़ है, नीति ही इनका ईमान है। ये अपने जैसा दूसरों को
भी बनाना चाहते हैं। नीति इनका साध्य है और धरना, घेराव, प्रदर्शन, पुतला-दहन या फिर
सवाल-जवाब इनके साधन। कल गांधी और जेपी बनकर ये लोग पहले वालों की नाक में दम करते
रहे और आज भी उनके कुछ वंशज हैं जो कुछ ऐसी ही छुट्पुट वारदात करते रहते हैं। ऐसे
एक बाबाश्री ने योगाभ्यास से पहले देश का शारीरिक घोटाला उजागर किया, फिर काले धन की वापसी की माँग करके आर्थिक घोटाले की खबर ली। मगर खानदानी लोगों से
पंगा लेने के चक्कर में उन्हें भेस बदलकर गधे के सिर के सींग बनना पड़ा।
राज करते हुए
नीतियों की भोंगली बना कर दादाजी के जमाने में आने वाली चिट्ठियों की तरह दीवार के
किसी छेद में खोंस कर रख देने वालों से भिड़ने एक और बाबा आए। इन बाबा की भी यही
जिद कि ‘सारे घर के बदल डालूँगा ’। उधर ‘राज’ वाले हैं कि टस से मस होने का नाम नही ले रहे और
उधर ‘नीति’ वाले
हैं कि उन्हें लाइन पर लाने के लिए अपनी नीतियों पर ही पुनर्विचार करने पर मजबूर
हो गए है। इधर नीति अनुगामियों से अलग होकर एक चमत्कारी सज्जन ने जब ‘इनकी’ पोल खोली तो ‘उनके’ मन में लड्डू फूटने लगे और इन सज्जन में उन्हें वैतरणी पार करवाने वाली
कामधेनु की अदृष्य पूँछ नज़र आने लगी। मगर कामधेनु यकायक ब्रम्होस मिसाइल में
तब्दील होकर ‘इन’ के बजाय ‘उन’ का भी लक्ष्यभेद करने लगी तो सारे ‘इन’ से लेकर ‘उन’ तक को समझ में नहीं आया कि आखिर ये भिया हैं ‘किनकी’ तरफ?
आने वाला समय ‘राज’ वालों का होगा कि ‘नीति’ वालों का...यही देखेंगे, भुगतेंगे या सहन करेंगे हम
लोग...! ***
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