व्यंग्य , पत्रिका (28/12/12)
लकीर पर चिंतन
साँप निकल चुका था। चिंतन जारी था। सबके हाथों में बड़ी बड़ी लाठियाँ थीं। इतने धुरंधरों के होते साँप
आखिर बच कर कैसे निकल गया। जवाब देना मुश्किल हो रहा था। माहौल कुछ ऐसा था कि
सामूहिक बलात्कार पर बहस में भाग लेते समय भी जिनकी मुस्कराहट गायब नहीं होती थी
आज उन्होंने भी गंभीरता औढ़ रखी थी। एक राज्य में तीसरी बार उनकी हार हुई थी और
परंपरानुसार बिखरे दूध पर रोया जा रहा था। साँप की छोड़ी गई लकीर पर लाठियाँ
भांजी जा रही थीं। हार का ठीकरा फोड़ने के लिए सही सिर तलाशा जा रहा था।
“मैंने
उसको बंदर कहा था पर शायद लोगों ने उसे हनुमान समझ लिया।” एक
चिंतक ने कहा।
“मैंने
तो उसे राक्षस कहा था पर ये लोग उसे राक्षस मानने को तैयार ही नहीं हो रहे हैं।”
दूसरे चिंतक ने दूर की कौड़ी पेश की।
“मैडम
ने पहले ही उसको आदमखोर बता दिया था, पर
शायद लोगों ने माखनचोर सुन लिया होगा।” सिर्फ अपने अद्भुत
बयानों के कारण चर्चा में बने रहने वाले एक अन्य आधार स्तंभ ने यहाँ भी वफादारी
प्रदर्शन का मौका नहीं छोड़ा।
“हम भी
उसके मुकाबले के लिए अपने युवराज को लाए थे...कहीं ऐसा तो नहीं कि अपने युवराज
की एक्सेप्टिबिलिटी उनके मुकाबले पब्लिक में कम हो ?” एक कम चर्चित पार्टीमेन ने दबी जुबान से
थोड़ी हिम्मत करके अंधों की बस्ती में ‘आईने ले लो’ जैसी
आवाज निकालने की कोशिश की।
“ये
कौन बद्तमीज़ घुस आया है..!” एक भियाजी किस्म के कार्यकर्ता
ने हाँक लगाई। इतने में बाकी लोगों ने युवराज की स्वीकार्यता पर शंका उठाने वाले ‘विद्रोही’ को अस्वीकार करते हुए टांगा-टोली
कर सीधा वानप्रस्थ आश्रम दिखा दिया।
“नहीं, हमारी हार का असली कारण ‘थ्री डी’ टेक्नॉलाजी है जिसके न होने से जहाँ हमारे युवराज एक बार में एक ही जगह
दिखते थे वहीं वो किशन कन्हैया की तरह रास लीला में एक दो नहीं पूरे छब्बीस
स्थानों पर गोपियों को अपने अपने साथ
नज़र आते थे।“
हार
का ठीकरा फोड़ने के लिए सर की तलाश पूरी हुई। छ्ह करोड़ लोग आखिर क्या चाहते थे, इस बारे में कभी बाद में
सोचेंगे।
***
100, रामनगर एक्सटेंशन, देवास 455001(म.प्र.)
मो.
09302379199
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Saturday, 29 December 2012
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