Wednesday 19 December 2012



व्यंग्य , (पत्रिका, 19/12/12)
                 मन में लड्डू फूटा
                            ओम वर्मा   om.varma17@gmail.com
त्नी ने चाय का कप हाथ में देते हुए कहा,
      “तुम देश के प्रधानमंत्री क्यों नहीं बन जाते...
      तुम्हारा दिमाग तो नहीं खराब हो गया?” मेरे हाथ से कप गिरते गिरते बचा। चाय तो खैर छलक ही गई थी।
      “अजीब बात है ! किसी को पीएम बनने के योग्य समझना या बताना क्या पागलपन या दिमाग खाराब होने वाली बात है ?” पत्नी के सुषमा स्वराजी स्वरूप का उमा भारतीकरण होने लगा।
       “नहीं, मेरा मतलब है कि मुझमें कहाँ हैं पीएम बनने के गुण...! मेरी तो घर में ही कोई नहीं सुनता…”
      “कोई बात नहीं...बिना कहे सुने भी काम चल सकता है...!”
      “अरे, मेरा मतलब है कि मैं अपने अड़ोस-पड़ोस वालों तक से अपने विवाद या मनमुटाव नहीं सुलझा पाया...।” मैंने चाय का लंबा सिप लिया। चाय बहुत अच्छी लगी।
    “अरे तुम तो पूरी तरह से क्वालीफाय करते जा रहे हो।“ यह सुनकर मेरे मन में लड्डू फूटा !
    “देखो मैंने तुम्हे लॉन्च करने की पूरी तैयारी कर ली है। एक अंग्रेजी अखबार  पैड न्यूज़ के बदले तुम्हें अपने अग्रलेख में पीएम के योग्य बताने के लिए तैयार है। इन दिनों लीक़ से हटकर बयान देने वाले या बयानों से धमाका करते रहने वाले राजा सा. को भी टच करके देख लेंगे। हो सकता है कि वो भी तुमको प्रमोट करके कम से कम नरेंद्रभाई से तो बढ़त दिला ही दें !” पत्नी, पत्नी न रही, किंग मेकर या कहें कि चेयरपर्सन बनने चली थीं।
        मेरे मन में दूसरा लड्डू फूटने लगा था। मैं उस युग की पैदाइश हूँ जिसमें पीएम यानी सिर्फ नेहरू ही होता था...। फिर कॉलेज में आया तो पीएम यानी इंदिरा गांधी जिन्हें बाद में इंडिया के पर्याय के रूप में भी परिचालित किया जाने लगा था...। मगर उसके बाद तो इतने पीएम बन चुके हैं या बनने के सपने देख चुके हैं या पीएम इन वेटिंग के रूप में वेटिंग हॉल में विराजित हैं कि हॉल छोटा पड़ने लगा है। मेरी पत्नी भी मुझे वहाँ देखना चाहती है तो क्या गलत है?
     मैं खुद को पीएम रेस का दावेदार घोषित करता हूँ।
          ***     100, रामनगर एक्सटेंशन , देवास 455001           

No comments:

Post a Comment