Saturday 29 December 2012

शीत लहर-एक शब्द चित्र - मौसम का बिगड़ा मिज़ाज


व्यंग्य                                                                                        

     शीत लहर-एक शब्द चित्र
             
               
          मौसम का बिगड़ा मिज़ाज
थाशिल्पी प्रेमचंद की कहानी- पूस की रात...!
     ठण्ड से ठिठुरता हल्कू...और ताने मारती मुन्नी...! बार बार कोसती रहती है कि वह इफरात में खर्च न करे ताकि कुछ बचत हो सके और कम्मल खरीदा जा सके ताकि पूस-माघ ढंग से कट सकें।  
     अब परिस्थितियाँ बदल चुकी हैं। कंबल हर घर में है। मगर फिर भी ये सर्दियाँ जानलेवा साबित हो रही हैं। मुन्नियाँ हल्कुओं को कोस रही हैं- “ठण्ड भगाने के लिए कुछ करो...कहा था कि रजाई भारी बनवाना...बनवा लाए चादरे जैसी...! रूम हीटर ही ले आते तो कमरा ही थोड़ा गर्म हो जाता !”
     अब इन मुन्नियों को कौन समझाए कि ठण्ड भगाने के लिए यदि रूम हीटर चलाए गए  तो  बाद  में  बिजली  का बिल देखकर दिमाग पर जो गर्मी चढ़ेगी, उसे उतारने के लिए किस्तों पर एयर कंडीशनर बेचने वाली दुकान ढूढ़ना पड़ेगी।
     आखिर मौसम का मिज़ाज इतना बिगड़ा हुआ क्यों है? क्यों न इन वैज्ञानिक महोदय से ही पूछ लिया जाए।  अरे  ये  क्या ! इन्होंने  तो  अपना हुलिया ही बदल डाला है। फ्रैंच कट दाड़ी गायब है...अंधत्व निवारण शिविर से थोक में ऑपरेशन करवा कर लौटे रोगी की तरह काला चश्मा लगा रखा है और सूट टाई पर शाल
 लपेटे घूम रहे हैं। लेकिन जनाब भले ही लाख पर्दों में छुप जाइएगा...नज़र आइएगा ...नज़र आइएगा...! तो आखिर अलाव तापते रँगे हाथों पकड़े ही गए !
     “कहिए जनाब ! ये शीत लहर आखिर कब तक चलती रहेगी ?”
     “ दरअसल ये ग्लोबल कूलिंग हो रहा है !”
     “लेकिन कल तक तो आप ग्लोबल वार्मिंग के नाम से डरा रहे थे और मुंबई जैसे तटवर्ती शहरों का डूबने का खतरा बता रहे थे...!”
     “मेरा मतलब यह नहीं था...वास्तव में मीडिया ने हमारे बयानों को गलत ढंग से प्रस्तुत किया था !” मेरे देखते ही देखते एक अच्छे खासे मनुष्य का गिरगिटीकरण होने लगा।
     अपने राम को न तो वैज्ञानिकों की बात समझ में आती है, और न ही ज्योतिषियों की। ज्वलंत विषयों पर दोनों वर्गों के लोग जो भविष्यवाणी करते हैं, वह प्रायः फेल हो जाती है। बाद में ये अपनी गणनाओं की त्रुटि का कारण बताने लगते हैं या फिर “हमारा मतलब यह नहीं था...” जैसी बेमतलब की लीपापोती करने लग जाते हैं।
     लाख टके की बात तो यह है कि आखिर इस जमा देने वाले जाड़े से निजात मिले तो कैसे ? अपने बयानों से आग लगाती रहने वाली फायर ब्राण्ड नेत्रियों और ऐसे ही कुछ अन्य बयानवीरों से मैंने पूछा तो उन्होंने मंजूर किया कि वे वैचारिक आग तो लगा सकते हैं मगर भौतिक रूप से गर्माहट नहीं उत्पन्न कर सकते !
  आज समाज में बहस, चिंता, या सफर में अपरिचितों के बीच बातचीत के मुद्दे बदल चुके हैं। कल तक जो लोग राह चलते को रोक कर पूछ लेते थे “भाई नया घोटाला कब सामने आ रहा है”, आज पूछते हैं कि “नए टोपे दुकानों पर आए या नहीं, या “ये स्वेटर कहाँ से लिया, या “आखिर ये ठण्ड कब खत्म होगी यार…?” हिंदी की प्रसिद्ध कहानी उसने कहा था मुझे याद आने लगती है—लहनासिंह के साथी ठण्ड से इतने परेशान हो गए हैं कि चाहते हैं कि जंग हो ताकि कुछ गर्मी ही आए !
     सुबह जिसे देखो वही कुछ कम हाइट वाला नज़र आता है। क्या लोगों की औसत ऊँचाई एक-दो इंच कम हो गई है ? जी नहीं। ध्यान से देखने पर समझ में आता है कि हर शख्स सिकुड़कर गुड़ी-मुड़ी होकर चल रहा है। मिलते ही तपाक से हाथ मिलाने वाला शख्स देखकर मुँह फेर रहा है कि कहीं गलती से जेब की गर्मी छोड़कर हाथ बाहर न निकालना पड़ जाए। गलती से अगर उन्हें हाथ मिलाना भी पड़ जाए तो बहुत देर तक हाथ छोड़ते ही नहीं, मानो उष्मा के परिवहन के सिद्धांत को आज ही सिद्ध करना चाहते हों।
     चौराहे पर देखता हूँ कि पुतलेनुमा किसी वस्तु पर आग लगाई जा रही है। शायद कोई विरोध प्रदर्शन है। मगर तुरंत ही मेरी सारी गलतफहमी दूर हो जाती है। देखता हूँ कि न तो कोई नारेबाज़ी हो रही है और न कहीं कोई झण्डा या बैनर दिखाई देता है। यह तो ठण्ड भगाने का इंतजाम है। जिन्हें मैं प्रदर्शनकारी समझे बैठा था वे और खाकी वर्दी पर चादर लपेटे दो पुलिस के जवान मिलकर हाथ सेंकने का उपक्रम करने लगते हैं।
     धर्म, जाति, और छोटे मोटे स्वार्थों के पीछे उलझ पड़ने वाले लोग या समूह फिलहाल कम से कम इस बात पर तो एकमत हैं कि अमेरिका जैसा देश चाहे मंदी की गिरफ्त में हो, हम इस समय ठण्डी की गिरफ्त में हैं। मुझे लगता है कि जैसे भोपाल के यूनियन कार्बाइड में किसी की गलती से मिक गैस के टैंक का वॉल्व खुल गया था, वैसा ही शायद ऊपर वाले के दरबार में कोई मौसम का स्विच चेंजओवर करना भूलकर गर्ल फ्रैण्ड से मोबाइल पर गप्पें लगाने चला गया है। नीचे वाले मरें तो मरें उसकी बला से !
     घर के कबाड़खाने से झाड़-पोंछकर अँगीठी ढूढ़ निकाली गई है। आखिरी समय में खोटा सिक्का ही तो काम आता है। लकड़ी के कोयले की टाल ढूढ़ ली गई है। शाम को टीवी के सामने इकट्ठे होने के बजाय अलाव के आसपास पंचायत जुड़ने लगी है।
     सुबह हो गई है। दरवाजे पर पेपर फेंकने की आवाज आ चुकी है। कोई भी भागकर पेपर झपटने को तैयार नहीं है। रजाई कौन छोड़े ! आज संडे है। किसकी हिम्मत जो आठ से पहले मुझे उठा सके। घर के वरिष्ठ नागरिक यानी पिताश्री अखबार के बगैर छटपटाने लगते हैं और शाल, टोपे और मौजों के जिरह बख्तर से लेस होकर अखबार उठाने चल देते हैं। बच्चे खुश हैं कि स्कूल का समय बढ़ा दिया गया है। श्रीमती जी कुढ़मुढ़ा रही हैं कि बाई आज भी आती दिखाई नहीं देती।
     सुबह सुबह स्कूलों में बच्चे मुँह से वाष्प छोड़कर धूम्रपान की नकल करने लगते हैं। क...क...किरण बोलने वाले इस शख्स को आप शाहरुख खान समझने की भूल न करें। दरअसल ठण्ड के मारे इसके दाँत किटकिटा रहे हैं। भियाजी बड़े खुश और गणित के पक्के हैं। पारा प्रतिदिन जितना नीचे जाने लगता है, उससे निपटने के लिए वे अंगूर की बेटी से उतनी ही निकटता बढ़ाने लगते हैं। ठण्ड से सबकी अपने अपने ढंग से जंग जारी है।       
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