व्यंग्य
मौसम का बिगड़ा मिजाज़
ओम वर्मा
कथाशिल्पी प्रेमचंद की
कहानी ‘पूस की रात’…!
ठण्ड
से ठिठुरता हलकू और मुन्नी...! मुन्नी हलकू को बार बार कोसती रहती है कि वह
इफ़रात में खर्च न करे ताकि कुछ बचत हो सके
और ‘कम्मल’ (कंबल) खरीदा
जा सके जिससे ‘पोस-माघ’ ढंग से कट
सकें!
आज भले ही हलकू हलकप्रसाद और मुन्नी मुन्नी
मैडम में बदल गई हो मगर कुछ नहीं बदला तो वह है माघ पूस की रातें। कंबल हर घर में
है मगर फिर भी सर्दियाँ हैं कि जान लेवा साबित हो रही हैं। आज मुन्नियाँ हलकुओं को
कोस रही हैं- “इस मुई ठण्ड का क्या करूँ...कहा था कि रजाई भारी बनवाना... बनवा लाए चादरे जैसी...! रूम
हीटर ही ले आते तो कमरा ही थोड़ा गर्म हो जाता...! अब इन मुन्नियों को कौन समझाए कि
यदि रूम हीटर चलाए गए तो बाद में बिजली का बिल देख कर दिमाग पर जो गर्मी चढ़ेगी उसे
उतारने के लिए या तो केजरीवाल को धरने पर या संजय निरूपम को भूख हड़ताल पर बैठाना
पड़ेगा।
मौसम विज्ञानी दाड़ी बढ़ाकर अंधत्व निवारण
शिविर से ऑपरेशन करवा कर लौटे रोगी या दक्षिण के अभिनेता से नेता बने राजनेता की
तरह काला चश्मा लगा कर सूट टाई पर भी शॉल लपेटे छिपते फिर रहे हैं। एक श्रीमान अलाव
तापते गरम हाथों, यानी रँगे
हाथों पकड़ा ही गए। कल तक जो ग्लोबल वार्मिंग के नाम से डरा डरा कर मुंबई जैसे
तटवर्ती शहरों के डूब जाने का खतरा बता रहे थे वे आज ग्लोबल कूलिंग की बात करते
फिर रहे हैं।
अपने राम को न तो वैज्ञानिकों की बात समझ
में आती है और न ही ज्योतिषियों की। ज्वलंत विषयों पर दोनों वर्गों के लोग जो
भविष्यवाणी करते हैं,वह प्रायः फेल
हो जाती है। बाद में ये अपनी गणनाओं की त्रुटि का कारण बताने लगते हैं या फिर
“हमारा मतलब यह नहीं था...” जैसी बेमतलब की लीपापोती करने लग जाते है।
लाख टके की बात यह है कि आखिर इस जमा देने
वाले जाड़े से निज़ात मिले तो कैसे? कुछ ‘फायर ब्राण्ड’ बयानवीर अपने बयानों से सियासी आग भले
ही लगा दें, मगर भौतिक रूप से गर्मी उत्पन्न नहीं कर सकते!
इसी तरह कल तक जो मुझे राह रोक रोक कर पूछा करते थे कि अगले चुनाव में ऊँट किस
करवट बैठेगा, वे आज पूछते हैं कि नए टोपे बाज़ार में आए या
नहीं, या ये स्वेटर कहाँ से लिया, या
यह कि आखिर ये ठण्ड कब खत्म होगी यार...! हिन्दी की प्रसिद्ध कहानी ‘उसने कहा था’ का वह दृश्य रह रह कर कौंध जाता है
जिसमें लहनासिंह के साथी ठण्ड से परेशान हैं और चाहते हैं कि ‘जंग’ हो ताकि कुछ गर्मी आए।
इन दिनों जिसे देखो वही कुछ ठिगना नज़र आ रहा
है। क्या लोगों की औसत ऊँचाई एक दो इंच कम हो गई है। ध्यान से देखने पर समझ में
आता है कि हर शख्स सिकुड़कर गुड़ी-मुड़ी होकर चल रहा है। मिलते ही तपाक से हाथ मिलाने
वाला शख्स देखते ही मुँह फेर रहा है कि कहीं गलती से जेब की गर्मी छोडकर हाथ बाहर
न निकालना पड़ जाएँ। गलती से अगर उन्हें हाथ मिलाना भी पड़े तो सामने वाले से एक
बत्ती कनेक्शन वाले की तरह ज्यादा से ज्यादा एनर्जी खींचने की कोशिश करने लगते
हैं। इधर चौराहे पर जो आग जल रही है वह कोई विरोध प्रदर्शन या पुतला दहन नहीं है। यह
तो ठण्ड भगाने का इंतजाम है। जिन्हें मैं प्रदर्शनकारी समझ बैठा था वे और दो पुलिस
के जवान अलाव ताप रहे हैं।
मोदी के पक्ष में चाहे लहर हो या न हो, शीत के पक्ष में लहर है यह सभी एकमत से
स्वीकार रहे हैं। भोपाल के यूनियन कार्बाइड में जैसे किसी की गलती से ‘मिक’ गैस के टेंक का वॉल्व खुल गया था, वैसे ही शायद ऊपर वाले के दरबार में कोई मौसम का स्विच चेंजओवर करना
भूलकर आराम से बीड़ी पीने चला गया है। नीचे वाले मरें तो मरें, उसकी बला से!
सुबह हो गई है...दरवाजे पर पेपर फेंकने की
आवाज आ चुकी है। कोई भी पेपर उठा कर लाने को तैयार नहीं है। रज़ाई कौन छोड़े! आज
संडे है। किसकी हिम्मत जो मुझे जल्दी उठा सके। घर के अस्सी वर्षीय वरिष्ठ नागरिक
अखबार के बिना छटपटाने लगते हैं, और शॉल, टोपे, मोजे के जिरहबख्तर में क़ैद होकर जाकर उठा
लाते हैं। श्रीमतीजी कुढ़मुढ़ा रही हैं कि ‘बाई’ आज भी आती दिखाई नहीं देती।
सुबह सुबह
स्कूलों में बच्चे मुँह से वाष्प छोडकर ध्रूमपान की नकल करने लगते हैं।
क...क...किरण बोलने वाले इस शख्स को आप शाहरुख खान समझने की भूल न करें। दरअसल
ठण्ड के मारे इसके दाँत किटकिटा रहे हैं। पारा जितना नीचे होने लगता है, ‘भियाजी’ की लाल रंग की ‘दवा’ का डोज़ भी
उसी अनुपात में बढ़ जाता है। ठण्ड से अपने अपने ढंग से सबकी जंग जारी है। ***
संपर्क
: 100, रामनगर एक्सटेंशन, देवास 455001
मेल ID om.varma17@gmail.com
No comments:
Post a Comment