Saturday 8 March 2014


 व्यंग्य                                        जनवाणी, मेरठ, 
                                             08.03.14  
                  जूते की अभिलाषा
                          ओम वर्मा
                                    om.varma17@gmail.com
त्ता केंद्र के प्रति विरोध प्रकट करने की परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है। राजमहलों में राजा के प्रति रानियों के गरिमामय विरोध के लिए कोपभवन तक का प्रावधान रखना पड़ता था। गांधीजी इसे असहयोग और सत्याग्रह से प्रारंभ कर अनशन तक लाए जिसे बाद में निर्वाचित मुख्यमंत्री समर्थन देने वालों के खिलाफ ही धरने के नाम से आजमाने लग गए! लेकिन कई बार ये उपकरण फेल होते भी देखे गए तथा अखबारों की तलवार से भी तेज मानी जाने वाली कलम की स्याही भी फीकी पड़ने लगी। लिहाजा फास्ट फूड के जमाने में विरोध प्रदर्शन का तरीका भी कैसे अछूता रह सकता था? अब नेक काम के लिए लोगों ने जूते का प्रयोग शुरू कर उसे सम्मानजनक स्थान पर बैठा दिया है।                       
     लिहाज़ा अब समय आ गया है कि प्रजातांत्रिक देशों के राजनीतिक दल अपने चुनावी घोषणा पत्र, अपनी कार्य पद्धति या अपने अभ्यास सत्रों में विरोध प्रकट करने की इस नई तकनीक पर चिंतन मनन करें। अब यह स्पष्ट घोषणा होनी चाहिए कि सत्ता में आने पर उनका दल या उम्मीदवार कम से कम कितने जूते फेंके जाने या खाने के बाद ही किसी की बात सुनेगा! यह भी स्पष्ट हो कि क्या सिर्फ जूता दिखाना भर पर्याप्त होगा आखिर उनके कानों पर कम से कम कितने जूते खाने के बाद जूँ रेंगना प्रारंभ करेगी? यह भी हो सकता है कि कल से जूता फेकने वाले की ही बात हर हाल में मान ली जाए या फिर जूता फेंकने वाले की हर हाल में अच्छी तरह से खबर ले ली जाए! वैसे प्रहारक पर विभिन्न कानूनी धाराओं के तहत कार्रवाई भी की जा सकती है। जैसे बिल प्रस्तुत न करने वाले विद्रोही पर उन्हें मंदिर या मस्जिद से चुराए जाने का आरोप लगाया जा सकता है। प्रहारक संप्रदाय का हो और लक्ष्य संप्रदाय का, तो सांप्रदायिकता फैलाने का आरोप, और हमारे देश में जैसा कि अक्सर होता आया है, प्रहारक सवर्ण हो और लक्ष्य दलित वर्ग का, तो दलित उत्पीड़न का प्रकरण! जूता यदि प्लास्टिक का था, तो पर्यावरण एक्टिविस्ट आगे आ सकते हैं कि इससे पर्यावरण का क्षरण हुआ है, या कि जूते का मटेरियल ईको फ्रैंडली नहीं है। चमड़े के जूते हों तो पेटा वाले जीव उत्पीड़न का मामला बनाकर मैदान में कूद सकते हैं।
     आशावादी अँधेरे में भी उजाले की किरण  खोज़ लेता है। तो क्यों न जूता फेंकने वालों में से सही निशाना लगा पाने वाले को चुनकर आगामी ओलिंपिक खेलों के लिए निशानेबाजी की तैयारी के लिए चुन लिया जाए! आने वाले चुनाव में सभा या प्रेस वार्ता में उम्मीदवार राजनीतिक लाभ लेने  के लिए पेड़ न्यूज़ की तर्ज़ पर अपने ही आदमियों से भी यह काम करवा सकते हैं। बहरहाल इतना तो तय है कि जॉर्ज बुश और ज़रदारी से लेकर भूपिंदरसिंह हुड्डा तक, जूतों को अस्त्र बनाने का कार्य यदि इसी रफ्तार से चलता रहा तो हो सकता है कि भविष्य में चौथा विश्व युद्ध जूतों से ही लड़ा जाए! बाहुबलियों के परिवारों में शस्त्र पूजन की तर्ज़ पर जूता पूजन भी शुरू हो सकता है! ओपिनियन पोल जैसी विवादास्पद प्रक्रिया का स्थान जूता ले सकता है। जितने जूते, उतने लाइक्स या अनलाइक्स’! एक जूता यानी दस सीट की बढ़त या दस का नुकसान! वैसे जूते की अभिलाषा तो मात्र इतनी है कि वह न तो सम्राटों के पैरों की शोभा बढ़ाना चाहता है, वह किसी बड़े शॉपिंग माल के शो केस में बैठ कर अपने भाग्य पर इठलाना भी नहीं चाहता ...उसकी अभिलाषा तो मात्र इतनी है कि उसे उसके मुँह पर मार दिया जाए जो देश को खाने या बेचने की राह पर चल पड़ा हो!
                                               ***
100, रामनगर एक्सटेंशन, देवास 455001 (म.प्र.)        

1 comment:

  1. अच्छा व्यंग्य है आज के हालातों पर. जूता जब तक पैर में होता है तब उसकी शान नहीं होत किन्तु वह पैर से निकल कर जब सिर पर पड़ता है तो खुदकी शान में इजाफा करता है और जिसके सिर पर पड़ता है उसकी शान को नेस्तनाबूत. वाकई उसकी अभिलाषा गैर बाजिब नहीं. बधाई. डॉ. हरिकृष्ण बड़ोदिया , रतलाम (म.प्र. )

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