Monday, 23 June 2014
Saturday, 7 June 2014
- व्यंग्य
या तो वे कोई त्रिकालदर्शी हैं या अतींद्रिय शक्तियों के स्वामी! सच देखा जाए तो आज देश व समाज को उनके जैसे विचारक व स्वपनदृष्टा की जरूरत है। आज भले ही सामान हमारे पास सौ बरस का हो पर खबर पल भर की भी नहीं होती। ऐसे में सभी सर्वे व ओपिनियन पोल्स में आगे चल रहे या संवैधानिक प्रक्रिया से अपने प्रमुख प्रतिद्वंद्वी के निर्वाचित हो सकने की ’आशंका’ पर उन्होंने जो पूर्वानुमान, भविष्य कथन, चेतावनी या‘धमकी’ दी थी उसे मैं अगर सदी की सबसे बड़ी भविष्यवाणी कहूँ तो शायद स्वर्ग पहुँच चुकी मानव कंप्युटर शकुंतलादेवी या जानदार मेरा मतलब बेजान दारूवाला को भी कोई आपत्ति नहीं होगी। उनकी भविष्यवाणी है कि अगर मतदाताओं ने उनके प्रतिद्वंद्वी को पीएम बनाया तो बाईस हजार लोगों की हत्या हो जाएगी। यानी गुप्त संदेश यह है कि अगर देश की जनता ने अपने इस पवित्र व सबसे बड़े लोकतांत्रिक अधिकार का उपयोग उनके अनुसार नहीं करके निर्भीकता से किया तो बाईस हजार लोगों को इसकी कीमत चुकानी पड़ेगी।
एक राष्ट्रीय दल की अध्यक्ष का बेटा और उपाध्यक्ष जब इतनी बड़ी भविष्यवाणी करता है तो उसे हल्के में नहीं लिया जा सकता। मैं अपना ज्ञान बघारूँ या कथित विशेषज्ञों से बात करूँ इससे बेहतर मैंने यह समझा कि क्यों न उक्त त्रिकालदर्शी नेताजी से ही बात की जाए।
“सर उनके पीएम बनने पर बाईस हजार लोगों की हत्या की बात आपने किस आधार पर कही?”
“हम कोई भी बात हवा में नहीं करते। राजनीति के हमारे ‘अनुभव’ हमारे कार्यकर्ताओं की रिपोर्ट, हमारे बहुत सारे सीनियर लीडर्स के निष्कर्ष और अपने लेपटॉप में दर्ज़ आँकड़ों के आधार पर मैंने यह बात कही थी।”
“मैं नहीं समझ पा रहा हूँ, थोड़ा स्पष्ट करें।”
“हमारे एक वरिष्ठ साथी ने हमें बताया था कि बारह वर्ष पहले उनके राज्य में दंगों में 1300 लोग मारे गए थे। अब आप खुद जोड़ के देख लो कि पूरे देश का क्षेत्रफल गुजरात के क्षेत्रफल का सत्रह गुना है। तेरह सौ इन टु(गुणित) सत्रह = बाईस हजार एक सौ। मैंने सौ कम करके बाईस हजार बताया तो क्या बुरा किया? रेशो प्रपोर्शन का बड़ा ही सिंपल सा गणित! एक और गणित देखें। किसी ने दंगों में मरने वालों की संख्या ग्यारह सौ बताई। आप उसको पॉपुलेशन से रिलेट करके देख लो। देश की पॉपुलेशन, गुजरात की पॉपुलेशन से बीस गुना ज्यादा है। अब ग्यारह सौ में बीस का गुणा करके देख लो। वही बाईस हजार फिर आ जाएगा।” आँकड़ेबाजी में वे मुझे योगेन्द्र यादव व योजना आयोग वालों से भी भारी नज़र आ रहे थे।
“अगर लोग आपकी बात न मानें तो आप क्या करेंगे?”
“देखिए जैसे हम गुजरात में पिछले बारह वर्षों से उनका विरोध करते आए हैं, अगले पाँच वर्ष तक इन बाईस हजार हत्याओं के लिए भी करेंगे और इस ‘भारी’ मुद्दे के आधार पर अगले चुनाव में हम उनका ‘नमो नमो’ का नारा ‘रागा रागा’ में बदल देंगे।”
“देखिए जैसे हम गुजरात में पिछले बारह वर्षों से उनका विरोध करते आए हैं, अगले पाँच वर्ष तक इन बाईस हजार हत्याओं के लिए भी करेंगे और इस ‘भारी’ मुद्दे के आधार पर अगले चुनाव में हम उनका ‘नमो नमो’ का नारा ‘रागा रागा’ में बदल देंगे।”
जनादेश, विकास के मुद्दे और अदालतों की क्लीन चिटें, मुझे कोने में सिसकते नज़र आने लगे। आइए, अपने अपने ढंग से हम प्रार्थना करें कि राहुलजी की 12 व्यक्ति प्रतिदिन के इस संभावित ‘नरसँहार’ की यह आशंका निर्मूल साबित हो...आमीन! ***
----------------------------------------------------------------------------------------- 100, रामनगर एक्सटेंशन, देवास 455001(म.प्र.)
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Friday, 6 June 2014
विचार
सोलहवीं लोकसभा के चुनाव में कांग्रेस की जो गत हुई है उसकी कल्पना किसी कांग्रेसी या जी हुज़ूरी के शोर में डूबे गांधी परिवार ने शायद ही कभी की होगी। गांधी परिवार को लेकर कांग्रेसियों की सोच कुछ ऐसी है कि ‘तेरे नाम से शुरू, तेरे नाम पे खतम’! पार्टी अध्यक्ष से लेकर उपाध्यक्ष और संसदीय दल की अध्यक्ष तक गांधी ही गांधी...! 1999 में शरद पवार संगमा व तारीक अनवर के साथ मिलकर सोनिया गांधी के विदेशी मूल के आधार पर अलग होकर भी साथ ही चलते रहे हैं। एनडीए ने नरेंद्र मोदी को पीएम उम्मीदवार के रूप में सामने रखा तो यूपीए सिर्फ संवैधानिक प्रावधान की दुहाई देता रह गया कि पीएम सांसदों के द्वारा चुना जाता है। मगर वे यह भूल गए कि किसी को पीएम उम्मीदवार घोषित करके चुनाव लड़ने पर कोई कानूनी रोक भी तो नहीं है। यह भी सभी जानते थे कि जयपुर सम्मेलन में राहुल गांधी की पार्टी उपाध्यक्ष के रूप में नियुक्ति ही इसलिए की गई थी कि भविष्य में उनका राजतिलक किया जा सके। जब भाजपा ने नरेंद्र मोदी को पीएम पद का दावेदार घोषित कर दिया तब यह कहने की हिम्मत किसी कांग्रेसी में नहीं थी कि नरेंद्र मोदी के खिलाफ राहुल गांधी को लाना ‘निर्बल से लड़ाई बलवान की ’ वाली बात साबित हो जाएगी। और तो और राहुल की तुलना में प्रियंका को लाना शायद ज्यादा फलदायी हो सकता था, यह भी कोई कांग्रेसी न समझ सका न समझा सका। समझाता भी कैसे, मनु सिंघवी सरीखे बड़े वफादार जब यह स्थापित करने पर तुले थे कि “राहुल तो जन्मजात नेता हैं ”, वहीं कुछ लोग सोनियाजी के एक इशारे पर झाड़ू तक लगाने के लिए तैयार बैठे थे।
नरेंद्रभाई एण्ड कं. अपनी सभाओं में, मीडिया में और सभी सोशल साइट्स पर घोटालों व भ्रष्टाचार के मुद्दों को उठाने व भुनाने में सफल रहे, वहीं यूपीए वाले गुजरात के 2002 एपिसोड से कभी आगे ही नहीं बढ़े। रुझान बदलने वाली सबसे महत्वपूर्ण घटनाएँ थीं दो महत्वपूर्ण टीवी इंटरव्यू – टाइम्स पर राहुल गांधी और इंडिया टीवी पर नरेंद्र मोदी। जहाँ राहुल गांधी की बार बार सूई अटक जाती थी वहीं नरेंद्र मोदी चुनाव खर्च के सवाल पर जब यह बोले कि “सरकार उनकी, चुनाव आयोग उनका, सीबीआई उनकी... फिर आनंद शर्मा शिकायत क्यों नहीं करते या जाँच क्यों नहीं करवाते?” दंगों के आरोप व क्षमा याचना की माँग पर सुप्रीम कोर्ट की क्लीन चिट का उल्लेख करते हुए उनका कहना था कि “किसी भी अदालत या किसी भी आयोग से इसकी जाँच करवा ली जाए, अगर मैं हत्याओं का दोषी पाया जाता हूँ मुझे चौराहे पर सरेआम फाँसी दे दी जाए”। और टोपी विवाद पर जब मौलाना मदनी ने यह कहा कि “जिस तरह मुझे कोई तिलक लगाने को बाध्य नहीं कर सकता उसी तरह किसी को टोपी पहनने को बाध्य नहीं किया जा सकता”। ये सब वे बातें हैं जो किसी तटस्थ मतदाता की दृष्टि में मोदी को आरोपमुक्त करती है। अधिकांश जनता की नज़र में मोदी चुनावी रणभूमि में घिरे उस अभिमन्यु की तरह थे जिसे कई परस्पर विपरीत विचारधारा वाले शत्रुओं ने घेर लिया था फिर भी वे चक्रव्यूह भेदने में सफल रहे। कभी उन्हें राक्षस,कभी गुण्डा, कभी नपुंसक तो कभी दंगा बाबू जैसे अलंकरणों से नवाज़ा गया। मगर ये सभी वार बूमरेंग की तरह आक्रमणकर्ताओं का ही नुकसान करते रहे। जसोदाबेन के प्रकरण में यह तीर कि “जो अपनी पत्नी को नहीं सम्हाल सका वह देश क्या सम्हालेगा”हवा का बुलबुला साबित हुआ। अगर मोदी ने दूसरा विवाह किया होता या उनका कोई बाहरी प्रेम प्रसंग सामने आता या जसोदाबेन के परिजनों ने कभी कोई शिकायत की होती तो जरूर शर्मिंदगी या परेशानी का सबब बन सकता था। पत्नी परित्याग किसी फिल्म या ‘साकेत’ जैसे महाकाव्य का विषय तो बन सकता है पर उसमें राजनीतिक माइलेज़ लेने जैसा कुछ नहीं था। इसी तरह‘कुत्ते के पिल्ले’ वाले कथन में विदेशी साक्षातकारकर्ता ने स्वयं ट्वीट कर खण्डन किया व संदर्भ से काटकर देखे जाने की बात कही। वहीं अटलजी की ‘राजधर्म निभाने’ की बात भी पूरा भाषण देखने पर संदर्भ से काटी गई प्रतीत होती है क्योंकि अटलजी आगे यह भी कहते हैं कि मोदीजी ने राजधर्म निभाया है। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि दिग्विजय - अमृता राय प्रकरण में मोदी ने कोई बदजुबानी नहीं की।
मोदी पर पुस्तकें आना, विदेशी अखबारों में उनके राज्य के विकास की प्रशंसा होना और तभी मनमोहनसिंह को कमजोर पीएम बताने वाली दो किताबें आना व अमेरिका के‘वाल स्ट्रीट जर्नल’ में रॉबर्ट वाड्रा के मायाजाल का खुलासा होना आदि कई ठोस मुद्दों की मानों बरसात हो गई। भाजपा की हालत स्टेशन पर खड़ी उस ट्रेन की तरह हो गई थी जो उत्तर दिशा की ओर जाने वाली है मगर उसमें वो यात्री भी खड़े खड़े यात्रा करने के लिए तैयार हैं जिनके पास किसी अन्य स्टेशन के टिकट हैं। वैसे ‘नीच राजनीति ’ वाले एक साधारण से जुमले को वे नहीं छेड़ते तो ज्यादा अच्छा रहता।
भाजपा को दिग्विजयसिंह, बेनीप्रसाद वर्मा, सलमान खुर्शीद, इमरान मसूद, ममतादी और नीतीशकुमार व उन सभी का भी आभार व्यक्त करना चाहिए जिनकी हैरतअंगेज़ बयानबाजी से मोदी को बैठे बिठाए एडवांटेज मिलता गया। मोदी को उन लोगों का भी अभारी होना चाहिए जिन्होंने प्रवीण तोगड़िया के मुसलमानों को मकान न देने, गिरिराजसिंह का मोदी विरोधियों को पाकिस्तान भेजने व बाबा रामदेव के राहुल गांधी के दलितों के घर हनीमून मनाने जैसे अद्भुत बयानों से नाराज होने के बजाय उनके सुशासन व सबको साथ लेकर चलने के दावे को तवज्जो दी। इस विश्वास पर वे तभी खरे उतर सकते हैं जब उनके कार्यकाल में जसवंतसिंह की ससम्मान वापसी हो और 75+ वालों को दूर रखने का फॉर्मूला लागू करने के नाम पर आडवाणीजी व सुमित्रा महाजन जैसे पुराने चावलों को शोभा की वस्तु बनाकर न रख लिया जाए। मुस्लिम समाज ने जो जबर्दस्त विश्वास भाजपा में दिखाया है उसे सिर्फ संपूर्ण समुदाय में सुरक्षा का भाव जागृत करके ही रिसिप्रोकेट किया जा सकेगा। ***
100, रामनगर एक्सटेंशन, देवास 455001
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