व्यंग्य कथा
कफ़न -2
ओम वर्मा
खबर गणेश की मूर्तियों के दुग्धपान की तरह पूरे देश मेँ फैल
गई कि पिता-पुत्र घीसू और माधव बुधिया की अंत्येष्टि सामग्री के पैसों से शराब पी
गए हैं और नशे मेँ बदमस्त होकर पास्कल के अड्डे पर औंधे मुँह पड़े हुए हैं।
हुआ कुछ यूँ था कि उस दिन शहर की उस अवैध बस्ती के उस अवैध
कच्चे मकान के अगले कमरे मेँ बैठे माधव व घीसू बिजली के खंबे से अवैध रूप से तार
की हेकड़ी डालकर लिए गए कनेक्शन वाले बिजली के हीटर पर आलू भून कर खा रहे थे। घर
मेँ आटा-दाल और पैसा कौड़ी नदारद था। बचे थे तो सिर्फ आलू। बस्ती मेँ ही कालू दादा
की शराब भट्टी से उधार में लाए गए पाव का भी साथ साथ ‘मज़ा’ लेते जा रहे थे।
अंदर के कमरे मेँ माधव की पत्नी बुधिया प्रसव पीड़ा के मारे तड़प रही थी।
”मालूम होता है कि अस्पताल वालों का जेब भरे
बिना मानेगी नहीं। सारा दिन हो गया दौड़ते भागते और इसकी चिल्लाचोंट सुनते सुनते।
जा, देख तो आ, और तेरे मोबाइल से वो
क्या केते हैं उसकू वो जननी गाड़ी वालों को फोन तो लगा”, घीसू
ने जननी एक्सप्रेस बुलाने का कहना चाहा।
“मैं क्यों लगाऊँ ? बहू तुम्हारी है। तुम लगाओ अपने मोबाइल से। मेरे पास बैलेंस नहीं है।“
माधव ने चिढ़कर जवाब दिया। दरअसल वह अपना कीमती समय ऐसे ‘फालतू’ काम मेँ गँवाना नहीं चाहता था। उसे भय था कि उधर वह बात करे उतनी देर मेँ
बापू कहीं सारे आलू और उसका ठर्रे का पाव भी खत्म न कर दे।
उस तंग बस्ती का यह कुनबा सारे कस्बे मेँ बदनाम था। ‘मनरेगा’ के तहत घीसू
एक दिन काम करता तो तीन दिन आराम। माधव इतना कामचोर था कि हर आधे घण्टे मेँ कभी
बीड़ी पीने भागता तो कभी एक दक्षिणी राज्य के विधायकों की तरह कुछ खास विडियो क्लिप
देखने लग जाता जो उसने अपने मोबाइल मेँ जुगाड़मेंट से ‘फिरी –
फोकट’ मेँ डलवा रखी थी। बीच बीच मेँ जब चाहे तब कभी भूरिया
की घरवाली को मोबाइल लगा देता तो कभी राधिया की बहिन को ‘मुस्काल’ (मिस्ड काल) मार देता। हालांकि मेहनती आदमी के लिए पचासों काम थे मगर इन
दोनों को जो एक बार बुला लेता वह वैसे ही पछताता जैसे लोग चुनावों मेँ अपनी पसंद
के उम्मीदवार के लिए अपनी ऊँगली रँगवाने के बाद पूरे पाँच साल तक पछताते रहते हैं।
इसलिए इनसे तो सब दूर से राम राम करने मेँ ही अपनी भलाई समझते थे। कभी कभी जब किसी
का काम अटक जाए या खेतों मेँ पकी फसल खड़ी हो, मावठे का डर
सता रहा हो और मजदूर भी न मिल रहे हों, तब लोगों को इन्हें
भी सहना पड़ता था। मगर तब उनके पास दोनों से एक का काम पाकर भी संतोष कर लेने के
सिवा कोई चारा न होता। सोयाबीन और गेंहू की फसल कटाई के वक़्त तो दोनों दुगुनी
मज़दूरी माँगते। दोनों फटे चिथड़ों से अपनी नग्नता को ढाँके हुए, क़र्ज़े से लदे हुए, ‘जब
अल्लाह दे खाने को तो कौन जाए कमाने को ’ वाले सिद्धांत
का अक्षरशः अनुसरण करते हुए मस्त जिंदगी जीने मेँ विश्वास रखते थे। घीसू अपने इसी
बादशाही अंदाज़ से उम्र के साठ साल काट चुका था और माधव भी अपने ही भक्तों के
तिरस्कार के पात्र बने संत पिता के संत पुत्र की तरह बाप का नाम और उजागर कर रहा
था।
माधव का ब्याह पिछले साल ही हुआ था। जब से यह गृहलक्ष्मी घर
मेँ आई थी, दोनों को कुछ ऐसी राहत मिल गई थी मानों पड़ोसी मुल्क को आतंकी गतिविधियों
के चलते भी अंकल सैम से करोड़ों डालर का पैकेज या जैसे अन्ना हज़ारे के आंदोलन और
भूख हड़ताल से कुछ राजनीतिक दलों को बैठे बैठे ही चुनाव जीतने या लोकपाल बिल पटल पर
रखने का ‘लाभ’ मिल गया हो। कहना
अतिशयोक्ति नहीं होगी कि पाँच-छह घरों का झाड़ू पोंछे और बर्तन का काम करके उसी ने
खानदान मेँ न सिर्फ व्यवस्था की नींव डाली, बल्कि दोनों को
कई बार भूखा सोने से भी बचाया था। जब से वह आई, यह दोनों और
भी आलसी और आरामतलब तो हो ही गए थे और मुट्ठी भर विधायकों या सांसदों के दम पर
सरकार बनाने का दम रखने वाले पार्टी लीडर की तरह कुछ कुछ अकड़ने भी लगे थे। वही औरत
आज प्रसव वेदना से मर रही थी तो दोनों भुने आलू और कच्ची दारू का मज़ा छोड़कर ‘जननी एक्सप्रेस’ वाहन के लिए मोबाइल करने को भी
तैयार नहीं थे।
माधव आशंकित था कि अगर उसने अंदर जाकर घरवाली की दशा देखने
की सौजन्यता दिखाई तो घीसू आलूओं का बड़ा भाग साफ कर देगा। इसी आशंका के तहत घीसू
भी बहू का ‘उघड़ा बदन’ न देख सकने के बहाने आलू भक्षण का लोभ न छोड़ पा रहा था। आलू खाकर दोनों
ने अपने अपने पाव खत्म किए और हीटर का जुगाड़ अलग कर वहीं ढेर हो गए।
सुबह माधव ने अंदर जाकर देखा कि बुधिया के प्राण पखेरू उड़
चुके हैं। मुँह पर मँडराती मक्खियाँ, पति के इंतज़ार मेँ पथरा चुकी आँखें, धूल से लथपथ
देह और पेट मेँ मरा बच्चा। बाप बेटों ने जबर्दस्त स्यापा शुरू कर दिया। शीघ्र ही
आस पड़ोस के लोग इकट्ठे हो गए और इन अभागों को सांत्वना प्रकट कर समझाने लगे। बिना
उपचार के एक गर्भवती स्त्री और वह भी दलित वर्ग की, मरी पड़ी
थी। कुछ ही देर मेँ हमेशा ‘सबसे पहले हमने दिखाया’ का दावा करने वाले टीवी चैनल वाले अपनी अपनी भूमिकाओं का मंचन प्रारंभ कर
चुके थे।
“पत्नी के निधन पर आप कैसा महसूस कर रहे हैं ?” नए नए नियुक्त हुए टीवी पत्रकार ने
प्रशिक्षण मेँ सीखे अपने ज्ञान का परिचय देते हुए प्रश्न किया।
“हे भगवान! गरीबों की तो कोई सुनने वाला ही नहीं है रे!” सामने कैमरा देख माधव और ज़ोर से पछाड़ खाने लगा और कुछ इस तरह विलाप करने लगा जैसे सीता अपहरण के बाद प्रभु श्रीराम वन मेँ कर रहे थे।
“हे भगवान! गरीबों की तो कोई सुनने वाला ही नहीं है रे!” सामने कैमरा देख माधव और ज़ोर से पछाड़ खाने लगा और कुछ इस तरह विलाप करने लगा जैसे सीता अपहरण के बाद प्रभु श्रीराम वन मेँ कर रहे थे।
“मेरे घर से तो
लछमी ही चली गई है भगवान!” घीसू भी छाती माथा कूटने लगा।
“देखिए यहाँ पर
एक दलित की गर्भवती पत्नी ने समय पर उपचार न मिल पाने के कारण तड़प तड़प कर जान दे
दी है और सरकार के कानों पर जूँ तक नहीं रेंग रही है। यहाँ न तो कोई जनप्रतिनिधि
अभी तक आया है न ही प्रतिपक्ष का कोई नेता !... माधव और घीसू के घर से कैमरामेन
विनोदकुमार के साथ, मैं दीपक
मनबसिया, ‘अभी तक’ के लिए...!” खबरिया चैनलों की जुगाली शुरू हो चुकी थी।
तभी वहाँ सत्ता दल व प्रमुख विपक्षी दल के राजनीतिक
कार्यकर्ता भी अवतरित हो गए।
“यह विपक्ष की चाल है !...हमने जननी सुरक्षा वाहन यहाँ भिजवाया था मगर उसे गलत पता बताकर यहाँ से
अपोजिशन वालों ने लौटा दिया।“ अभी अभी सांत्वना प्रकट करने आए नेताजी ने चैनल
वालों द्वारा घेरे जाने पर पान मसाले की खपत का प्रमाण दे रही बत्तीसी दिखाते हुए
जवाब दिया।
“ये सरकार हर मुद्दे पर फेल है। जो एक गर्भवती दलित औरत की
जिंदगी नहीं बचा सकते उनको सरकार मेँ बने रहने का कोई हक़ नहीं है। मुख्यमंत्री को
तत्काल इस्तीफा दे देना चाहिए।“ प्रतिपक्ष का नेता था वह... जलती चिता पर हाथ
सेंकने मेँ माहिर! आज का अवसर भला क्यों हाथ से जाने देता!
“अब मृतक को तो वापस जिंदा नहीं किया जा सकता
पर मैं शासन की ओर से अंतिम क्रिया करम के लिए पाँच सौ रु॰ की धनराशि प्रदान करता
हूँ।“ नेताजी ने घोषणा कुछ इस अंदाज़ मेँ की मानों भामाशाह ने महाराणा प्रताप के
सामने फिर से युद्ध लड़ने के लिए अपना खज़ाना रख दिया हो। शर्माशर्मी मेँ अपोजिशन
वाले भी अपनी अपनी इच्छा और टीवी वालों के सामने मिल रहे कवरेज़ के मद्देनजर अपनी
सहयोग राशि भी ‘क्रियाकर्म फण्ड’ में
दे देकर चलते बने। दो साँड़ों को मुक्त विचरण के लिए पूरी चरागाह मिल गई थी। करीब
हजारेक रुपए हाथ लग गए थे जिसे दोनों ने जेबों के हवाले किए और क्रियाकर्म का सामान
लेने चल दिए ताकि बुधिया की मिट्टी खराब न हो।
जुआरी के हाथ मेँ पैसे आते ही जैसे खुजली चलने लगती है और
किसी नेता को जनता के सामने शोक सभा मेँ
भी भाषण सूझने लगता है…वैसे ही पैसे
हाथ मेँ आते ही दोनों के नथुने पुलिस के कुत्तों की तरह शराब की गंध खोजने को बेचैन
होने लगे। बाज़ार मेँ उनके पैर स्वतः ही उन्हें पास्कल के दारू के अड्डे पर खींच ले
गए।
“दादा, लोग
हमसे पूछेंगे कि क्रियाकर्म के पैसे कहाँ गए तो हम क्या जवाब देंगे ?” लगभग आधी बोतल खाली करने के बाद माधव को अचानक ज़िम्मेदारी का इल्हाम
हुआ। नशे में भी आदमी के मुँह से कभी कभी
आत्मा की आवाज निकल ही आती है।
घीसू हँसा, “अबे कह
देंगे कि जेब फटी थी और रुपए उसमें से खिसक गए। बहुत ढूँढ़ा,
मिले नहीं। लोगों को विश्वास तो न आएगा लेकिन फिर वही हमें रुपए देंगे। और कोई न
दे तो वो भोत सारे एनजीओ वाले कहाँ जाएँगे। हाँ तब रुपए हमारे हाथ न आएँगे।” फिर स्वर्गवासी बहू के सम्मान मेँ ‘शोक संदेश’ जारी करने जैसी मुद्रा में कहने लगा, “कितनी भली
औरत थी बेचारी जो जाते जाते भी हमारा गला तर कर गई!”
पास्कल की इस अवैध मधुशाला की रौनक अंधेरे के साथ साथ बढ़ती
जा रही थी। शराब का नशा बेसुरे से बेसुरे आदमी को सुरीला होने का गुमान पैदा कर
देता है और अँग्रेजी में हमेशा फेल होते रहने वाले को ‘धाराप्रवाह’ बोलने की
प्रेरणा भी दे देता है। वहाँ भी कोई गाने लग जाता तो कोई अंग्रेज़ी झाड़ने लग जाता।
कोई कोई देश मेँ रोज रोज उजागर हो रहे घोटालों पर घोटालेबाज़ों को गाली बकने लग
जाता था। समझना मुश्किल था कि यह मात्र शराब का असर था या सबके मुख से देश व समाज
की आज की सही तस्वीर सामने आ रही थी।
“कुछ भी कहो दादा, वह बैकुण्ठ मेँ जाएगी, वह बैकुण्ठ की रानी बनेगी।“ माधव ने मछली का एक बड़ा टुकड़ा मुँह मेँ डालते हुए कहा।
“हाँ बेटा, जरूर बैकुण्ठ मेँ जाएगी। इतने दुःख देखने के बाद भी जिसके मुख से कभी किसी के लिए बुरा न निकला वह बैकुण्ठ नहीं जाएगी तो क्या वो बैकुण्ठ जाएंगे जो मुल्क को बेचने पर तुले हैं? क्या वो बैकुण्ठ जाएंगे जो हमारी गाय भैंसों का चारा खा गए हैं...या क्या वे बैकुण्ठ जाएंगे जिन्होंने माँओं के सामने बेटों के कत्ल कर दिए है?,,,नहीं नहीं माधव...तेरी बुधिया जरूर बैकुण्ठ जाएगी।“ घीसू भी आखिर बिलख ही उठा।
“कुछ भी कहो दादा, वह बैकुण्ठ मेँ जाएगी, वह बैकुण्ठ की रानी बनेगी।“ माधव ने मछली का एक बड़ा टुकड़ा मुँह मेँ डालते हुए कहा।
“हाँ बेटा, जरूर बैकुण्ठ मेँ जाएगी। इतने दुःख देखने के बाद भी जिसके मुख से कभी किसी के लिए बुरा न निकला वह बैकुण्ठ नहीं जाएगी तो क्या वो बैकुण्ठ जाएंगे जो मुल्क को बेचने पर तुले हैं? क्या वो बैकुण्ठ जाएंगे जो हमारी गाय भैंसों का चारा खा गए हैं...या क्या वे बैकुण्ठ जाएंगे जिन्होंने माँओं के सामने बेटों के कत्ल कर दिए है?,,,नहीं नहीं माधव...तेरी बुधिया जरूर बैकुण्ठ जाएगी।“ घीसू भी आखिर बिलख ही उठा।
और माधव खड़ा होकर गाने लगे-
“बुधिया बदनाम हुईSSS माधव तेरे लिए...!
घीसू भी सुर मेँ सुर मिलाने लगा-
“बुधिया की जान गईSSS माधव तेरे लिए...!”
फिर दोनों शादियों मेँ नाच रहे अधेड़ों की तरह नाचने लगे।
चुनावों की रैलियों मेँ पैसे लेकर शामिल हुए कार्यकर्ताओं की तरह कभी उछलने, कभी कूदने और कभी मटकने भी लगे। और जैसा कि
अधिकतर शराबियों के साथ होता है, अंत मेँ नशे से बदमस्त होकर
वहीं धड़ाम से गिर पड़े।
सरकार
ने आनन फानन में एक जाँच आयोग बैठा दिया है।
(प्रेमचंद जी से क्षमायाचना सहित)
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100, रामनगर एक्सटेंशन, देवास 455001 (म॰प्र)