सामयिक
व्यंग्य
सोया है उसे मत छेड़ो
ओम वर्मा
जन्म लेते ही बच्चा दो काम करता है –रोना और सोना। नवजात का रोना यानी जीवन का प्रतीक! यह और बात है कि बड़े होकर भी कुछ लोग जिंदगी भर रोते रहते हैं और कुछ दूसरों को रुलाते रहते है। एक लुप्त होती नस्ल उन लोगों की भी है जो यदा कदा रोतों को हँसाने जैसा काम भी कर लिया करते हैं।
लेकिन शयन तो मानव मात्र की मूल प्रवृत्ति व
जन्मसिद्ध अधिकार है। मनुष्य नवजात अवस्था
में चौबीस में से बीस-बाईस घण्टे और बाल्यावस्था से किशोरावस्था तक बारह से चौदह
घण्टे सोता है। बाद में नींद तो सिर्फ किस्मत वालों को ही नसीब होती है। वर्ना कई
लोगों को कभी स्लीपिंग पिल्स तो कभी भाँति भाँति के योगासन लगाकर “नींद न मुझको
आए...” या “आजा री निंदिया...” गाते हुए तो कभी “करवटें बदलते रहे सारी रात हम...”
कहते हुए दिल को समझाना पड़ता है। लेकिन नींद जिन्हें आना है उन्हें कहीं भी आ सकती
है। इसराइली सैनिक गोला बारूद के बक्सों पर तो भीष्म पितामह शर शैया पर सो सकते
हैं और तीर के ही सिरहाने की माँग भी कर बैठते हैं। हठयोगी अग्नि के आगे तो कभी
काँटों की सेज़ पर शयन कर लेते हैं तो कोई खड़ेश्वरी बाबा खड़े खड़े और कोई समाधिस्थ
होकर सो सकते हैं। राकेश शर्मा और सुनीता विलियम्स अंतरिक्ष में सो सकते हैं और तंग
बस्तियों में बच्चे बड़े बड़े पाइपों में या असहनीय दुर्गंध के बीच भी घोड़े बेचकर सो
सकते हैं। ऐसे में सदन में अगर कोई सांसद या राष्ट्रीय पार्टी का उपाध्यक्ष अगर
बीच सत्र में शयनासन लगा बैठे तो हंगामा क्यों बरपा है? वे कोई लक्ष्मण थोड़े ही हैं जो उनके चौदह वर्षीय जागरण की तर्ज़ पर सदन
में पूरे पाँच साल तक निर्निमेष रहें। हो सकता है कि वे समाधिस्थ हो पाँच साल बाद
के मुद्दों की तलाश पर चिंतन कर रहे होंगे। या उन बाईस हज़ार लोगों के भविष्य को
लेकर चिंतन कर रहे हों जिनकी हाल के चुनाव में अपने प्रतिद्वंद्वी उम्मीदवार के
पीएम बन जाने पर कत्ल कर दिए जाने की वे भविष्यवाणी कर चुके थे। या उनका चिंतन
अपने राजनीतिक गुरु की उस चिंता को लेकर हो जिसमें उन्होंने उनकी नेतृत्व क्षमता
पर ही प्रश्न चिन्ह लगा दिया है।
चिंतन हमेशा सकारात्मक रखें। यह
सच है कि उनके पिताश्री के नानाश्री ने कभी आराम को हराम बताया था मगर तब से अब तक
दरियाओं में अनंत लीटर पानी बह चुका है और कई ‘पुण्यसलिलाएँ’ ‘नालों’ में तब्दील हो चुकी
हैं। यह क्या कम है कि कुछ अन्य मान्यवरों की तरह सिर्फ हंगामा खड़ा कर देना भर
उनका मकसद नहीं था। उन्हें सोना ही होता तो वे तबीयत खराब होने का बहाना कर घर
जाकर भी सो सकते थे। मगर उन्होंने सदन में अपने मुट्ठी भर अनुयाइयों के बीच अपनी गरिमामयी उपस्थिति देना ज्यादा जरूरी समझा।
सो जाना हमेशा बुरा नहीं होता। अगर झपकी नहीं
लगती तो रसायन विज्ञानी केकुले को ख्वाब में मुँह में अपनी पूँछ दाबे साँप कहाँ से
दिखता और एरोमेटिक ऑरगनिक केमेस्ट्री के आधारभूत रसायन बेन्जीन का ‘क्लोज्ड रिंग’ संरचना सूत्र कैसे सामने आता? हमारे ग्रंथ पुराण ऐसे अनेक प्रसंगों से भरे पड़े हैं जिनमें अलौकिक
शक्तियाँ कथानायक का जो कि अक्सर गरीब ब्राह्मण हुआ करता था,
स्वप्न में आकर मार्ग ‘प्रशस्त’ कर
दिया करती थीं। और सर्वविदित है कि स्वप्न की पहली जरूरत नींद होती है। मत भूलिए
कि लंका के पतन का कारण सीताहरण था न कि कुंभकरण का छह माही शयन। वैसे भी ‘खाते हुए’ और ‘सोते हुए’ व्यक्ति को डिस्टर्ब न करना हमारी प्राचीन और अब राष्ट्रीय परंपरा
है। ***
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