05 सितंबर, शिक्षक दिवस पर विशेष
पाँच सितंबर यानी शिक्षक दिवस! गुरुओं के सम्मान और महिमागान का दिन!
इलेक्ट्रानिक से लेकर प्रिंट मीडिया तक सभी दूर गुरुजी ही गुरुजी! शिक्षाकर्मी से
लेकर पुराने शिक्षाधर्मी तक... सभी का सम्मान ही सम्मान! ‘मध्यान्ह भोजन’ खिलाने वाले सरकारी स्कूलों से लेकर बच्चों से
घर से तैयार किया हुआ ‘लंच बॉक्स’ व वॉटर बॉटल मँगवाने वाले ‘असरकारी’, मेरा मतलब गैर-सरकारी... सभी स्कूलों में “गुरुः ब्रह्मा, गुरुः विष्णु...” की ही गूँज...! गुरुजी की हालत उस साँप की तरह होने लगती है जिसे नागपंचमी
के दिन दूध ‘पिला-पिलाकर’ पूजित
किया जा रहा है। यानी हर कहीं कुछ ऐसा माहौल बनने लगता है मानों हर वह शख्स जो
गुरु है, वही सर्वश्रेष्ठ है।
लेकिन
मैं इससे सहमत नहीं हूँ । गुरु का पद श्रेष्ठ हो सकता है। गुरु से की गई अपेक्षाओं
के अनुरूप जो कार्य या आचरण करे या किसी ‘कंकर’ को ‘शंकर’ में बदलने के लिए प्रेरित
कर सके उसे ही मैं सच्चा गुरु मानूँगा या ‘गोविंद’ से भी ऊपर की ‘हायरार्कि’ (hierarchy) में रखना पसंद करूँगा। पर
मैं यहाँ कुछ ऐसे गुरुओं की चर्चा कर रहा हूँ जिन्होंने अपने एक कदम या वाक्य से
मुझ जैसे कई शिष्यों की दिशा व दशा दोनों ही बिगाड़ कर रख दी।
सन्
1967-68 में नौवीं क्लास का बायलॉजी समूह का विद्यार्थी था। बायलॉजी और केमिस्ट्री
दोनों विषय हमें पढ़ाते थे पंड्या जी। एक अन्य सेक्शन में यही विषय एक दूसरे शिक्षक
अवधेश जी पढ़ाते थे। अवधेश सर के पढ़ाने के तरीके और विषय में मास्टरी थी इस कारण
उनके घर ट्यूशन पढ़ने वालों की भीड़ लगी रहती थी। क्लास और घर में ट्यूशन पर वे एक
जैसा पढ़ाते थे और यही बात ट्यूशन पर आने वालों से भी पहले ही बता दिया करते थे।
कभी-कभी दूसरे सेक्शन के कुछ विद्यार्थी भी उनकी क्लास में बैठने का लोभ संवरण
नहीं कर पाते थे। उनकी इस लोकप्रियता से पंड्या जी जैसे शिक्षक ईर्ष्या रखते थे।
इसे आत्मप्रवंचना न समझें तो कहना चाहूँगा कि मैं पढ़ने-लिखने में अपेक्षाकृत बहुत
आगे था। न जाने क्यों पंड्या जी को लगा कि मैं अवधेश जी के यहाँ ट्यूशन पढ़ने जाता हूँ।
उन्होंने उनके यहाँ पढ़ने वाले एक छात्र के माध्यम से मुझ तक अवधेश सर को छोड़कर
उनके यहाँ ट्यूशन पर आने का संदेश भिजवाया। सर नाराज़ होकर मुझे कहीं ‘देख’ न लें, इस डर
से मैं दो माह उनके यहाँ ट्यूशन पर गया। इन दो
महीनों के कुल चालीस रु. देने के लिए उन दिनों मेरे पिताश्री ने कैसे पेट काटा
होगा यह वही जानते होंगे।
अगले
वर्ष दसवीं कक्षा में इन्हीं पंड्या जी ने केमिस्ट्री में कार्बन का चेप्टर पढ़ाते समय पहले दिन ही डरा
दिया। कार्बन हर ऑर्गेनिक कंपाउण्ड की संरचना का पहला आवश्यक तत्व है। इसे
सीधे-सरल शब्दों में व्यक्त करने के बजाय इन्होंने यह कहकर कि ‘कार्बन’ एक बहुत ही कठिन और ‘दादा’ टॉपिक है...इसमें अच्छों-अच्छों की...हो
जाती है। अब आप ही सोचिए कि 14-15 आयुवर्ग के विद्यार्थियों पर इन विचारों का क्या
असर पड़ा होगा ! वह भी ऐसे स्कूल में जहाँ पर कि आधे विद्यार्थी आसपास के गाँवों से
आए थे। और प्रायवेट स्कूलों का तो तब चलन ही नहीं था। यह खौफ मुझ पर पूरे
विद्यार्थी जीवन में हावी रहा।
इन्हीं
गुरुजी ने इसी साल एक और हैरतअंगेज़ करतब कर दिखाया। उन दिनों एक छह माही या
अर्धवार्षिक परीक्षा हुआ करती थी। मैं अपना दसवीं कक्षा का केमिस्ट्री का
अर्धवार्षिक परीक्षा का पर्चा दे रहा था। ढाई घण्टे का समय। प्रश्नपत्र हाथ में
आते ही पाँच-दस मिनट में आधा हॉल खाली हो गया। आधा घण्टा भी नहीं बीता होगा कि
मुझे छोड़कर बाकी भी चले गए। यानी आधे घण्टे के बाद परीक्षा हॉल में सिर्फ दो लोग
थे—एक मैं और एक इन्विजिलेटर
पंड्या जी। पहले तो उन्होंने मुझे घूर कर देखा। फिर मेरे हाथ से उत्तर-पुस्तिका ही
छीन ली। बोले,”तुम्हारे अकेले के लिए क्या हम ढाई घण्टे तक
बैठे रहेंगे?” मुझे आज तक अफसोस है कि अपनी ग्रामीण
पृष्ठभूमि, शिक्षक पिता का पुत्र और चौदह वर्ष की आयु
होने के कारण मैं उनका किसी भी तरह से विरोध करने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाया।
पंड्या जी जैसे शिक्षकों ने अपनी ऐसी हरकतों से कितने विद्यार्थियों की जिंदगी में
अवसाद पैदा कर दिया होगा, करियर की दिशा बदल दी होगी, विषय के प्रति अरुचि पैदा कर दी होगी, यह या तो
ऊपर वाला जानता है या पंड्या जी, या फिर मेरे जैसे
भुक्तभोगी!
सन्
64-65 के सत्र में छठी कक्षा की बात है। एक शिक्षक श्री तुलसीराम वर्मा अक्सर विद्यार्थियों से सिगरेट मँगवाया करते थे। एक बार मैंने भी उन्हें
सिगरेट लाकर दी थी। आज विश्लेषण करने पर समझ में आता है कि अपनी युवावस्था में कुछ
वर्ष मैं धुम्रपान की लत का शिकार रहा तो उसके सीखने की पृष्ठभूमि में एक कारण
गुरुजी को लाकर दी गई सिगरेट भी थी। हाथ में रह गई तंबाकू की मादक गंध और सर का
लाइटर से सिगरेट जलाने का अंदाज़ कई दिन तक मेरे अचेतन में छाए रहे थे।
यही
नहीं, शिक्षकों
की बोलचाल से लेकर बॉडी लेंगवेज़ तक का विद्यार्थियों पर बड़ा जबर्दस्त प्रभाव पड़्ता
है। चौथी क्लास के मेरे क्लास टीचर को पलकें झपकाने की आदत थी। उन्हें देखकर कुछ
बच्चे भी अपनी पलकें झपकाने लग गए थे। दूसरे टीचर्स के समझाने या घर के बड़ों की
डाँट-फटकारों के बाद बच्चों की ये आदतें सुधरीं। इसी तरह प्रायमरी स्कूल की एक
शिक्षिका अनुनासिक स्वर(नेज़ल टोन) में बोलती हैं। उनकी क्लास के बच्चे भी नेज़ल टोन
अपनाते देखे गए हैं। मिडिल स्कूल के एक गुरुजी नवरात्र के दिनों में कड़ा उपवास
रखते थे इसलिए नौ दिन पढ़ाना स्थगित रख चुपचाप बैठे रहते थे। पता नहीं उन्हें इसका
पुण्य लाभ मिला या नहीं पर बच्चों का पढ़ाई का नुकसान अवश्य ही होता था।
इसी
तरह विज्ञान जैसे विषय में पुस्तक रखकर पढ़ाने या सिर्फ एक- दो ‘प्रिय’ छात्रों से ही बार-बार बात करने या पूछने वाले शिक्षक भी कभी भी
विद्यार्थियों से सम्मान नहीं पा सके। बल प्रयोग भी अब न सिर्फ शिक्षक की अक्षमता
में गिना जाता है,बल्कि अनैतिक व असंवैधानिक भी है।
विद्यालयीन शिक्षा, खासकर के छोटी कक्षाओं में सिर्फ
पढ़ाने की कला व बालमनोविज्ञान की टेक्निक ही शिक्षक को विद्यार्थी की नज़रों में
स्थाई रूप से सम्मानीय व वंदनीय बना सकती है।
मेरे
ही शहर में कुछ वर्ष पूर्व एक शिक्षक को कुछ लड़कों के साथ अप्राकृतिक कृत्य के
जुर्म में गिरफ्तार किया गया था। जिन बच्चों के नाम सामने आए थे उन्हें व उनके
परिजनों को कितनी कठिनाइयों का सामना करना
पड़ा होगा!
यहाँ
बात सिर्फ विद्यालयीन शिक्षा से जुड़े शिक्षकों की हो रही है। महाविद्यालयीन शिक्षा
में गुरु-शिष्य अंतरसंबंध विद्यालयीन अंतरसंबंध से बहुत भिन्न होते हैं। वहाँ
बालमनोविज्ञान की कोई भूमिका लगभग नहीं है।
और
अंत में प्रार्थना! पंड्या जी जैसे गुरु जी, ईश्वर करे, किसी
भी बच्चे को न मिलें। ईश्वर सभी को इतना साहस दे कि ट्यूशन के लिए बाध्य करने वाले
या बीच परीक्षा में कॉपी छीनने वाले शिक्षक की शिकायत कर सकें !
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100, रामनगर एक्सटेंशन, देवास 455001(म.प्र.) मो. 09302379199
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