हिंदू का दूसरा विवाह और लव जेहाद
ओम वर्मा
इन दिनों विवाह सबंधी एक बयान व धार्मिक
पहचान छिपा कर किए जा रहे विवाह की घटनाओं ने समरसता के ताने बाने को विच्छिन्न
करने का जो प्रयास किया है, वह चिंतनीय है।
शंकराचार्य स्वरूपानंदजी ने
एक साक्षात्कार में पीएम नरेंद्र मोदी से माँग की है कि किसी हिंदू पति को पत्नी
के संतानोत्पत्ति योग्य न होने की दशा में दूसरे विवाह का अधिकार दिया जाए। क्या
इसका मतलब यह लगाया जाए कि जीवनसाथी होने का मतलब क्या सिर्फ संतानोत्पत्ति भर है? क्या औरत सिर्फ बच्चा पैदा करने की मशीन है? संतान
न होने की स्थिति में हमेशा क्या सिर्फ पत्नी ही जिम्मेदार होती है? यदि दूसरी पत्नी भी पति को पिता नहीं बना सके तो क्या उसे तीसरा विवाह करना
होगा? यदि पत्नी फरटाइल और पति स्टेराइल हो तो क्या
शंकराचार्यजी ऐसे प्रकरण में पत्नी को पहले पति को त्याग कर दूसरे विवाह का अधिकार
देने की माँग करेंगे? अब जबकि विज्ञान नई ऊँचाइयाँ पर पहुँच चुका
है, तब हम हैं कि मध्य युगीन धारणाओं को दोहराने कि बात करने
लग जाते हैं। आज टेस्ट ट्यूब बेबी व सरोगेसी जैसी कई ऐसी तकनीकें ईज़ाद की जा चुकी
हैं जिन्हें अपनाकर कई निसंतान माँओं की गोदें हरी हो गईं हैं। शुक्र है कि
धर्मगुरू संतानोत्पत्ति के लिए यज्ञ, हवन, व पशु बलि जैसे उपाय नहीं बता रहे हैं। धर्म ग्रंथों के हवाले से तो लोग यह
भी कह सकते हैं कि बेटा ही पिता की चिता को अग्नि दे सकता है या पुत्र से ही वंश
चल सकेगा। अचरज नहीं अगर कल से कोई धर्म गुरू लिंग परीक्षण को वैध करने की माँग कर
बैठे, या कोई पुत्र ‘रत्न’ प्राप्त होने तक ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ जैसा धर्मोपदेश देने लगे! कभी कभी कुछ धर्म गुरुओं
द्वारा अन्य समुदाय की ‘बढ़ती’ जनसंख्या
के परिप्रेक्ष्य में धर्म की रक्षा के लिए संतानवृद्धि पर ज़ोर दिया जाता है। मेरे
विचार से शासन या नेतृत्व करने के लिए संख्यात्मक विकास के बजाय गुणात्मक विकास करना
ज्यादा जरूरी होता है।
दूसरी घटना सामने आई है धर्म परिवर्तन की।
मेरे विचार से एक स्वतंत्र, धर्म-निरपेक्ष या पंथ-निपेक्ष देश
में हर नागरिक को अपनी पसंद का धर्म अपनाने या परिवर्तन करने का अधिकार होना
चाहिए। प्रशासन व हमारे रहनुमाओं को यहाँ यह अवश्य सुनिश्चित करना होगा कि कहीं
इसके पीछे कोई ‘बोफोर्स’ तो नहीं हुई
है! दो विभिन्न धर्मों के लड़के लड़की यदि विवाह करते हैं तो ‘प्यार भरा दिल कभी न तोड़ो, जिस दिल में दिलवर
रहता’ वाले विचार को अपनाना आज समय की आवश्यकता
है।
लेकिन यहाँ समाज में इस मुद्दे पर भी एक
सार्थक विचार विमर्श की जरूरत है कि मुस्लिम लड़के और हिंदू लड़की के विवाह करने पर
धर्म परिवर्तन लड़की ही करती देखी गई है, कहीं लड़के के
धर्म परिवर्तन की बात सुनने में नहीं आई है। यहाँ दोनों के समाज अगर उन पर दबाव न
डालें और दोनों पक्षों को अपनी अपनी धार्मिक पहचान बनाए रखने की ‘छूट’ दे दें तो शायद कुछ सार्थक परिणाम सामने आ
सकें। और कुछ हो न हो कम से कम दो प्यार करने वाले सुख से जी तो सकेंगे। एक महानगर
में मेरे एक पारिवारिक बंगाली मित्र हैं जहाँ सुबह शाम ‘माँ’ की पूजा होती है। उनकी बिटिया ने अपने जिस सहकर्मी से प्रेम विवाह किया
उसके मज़हब में मूर्ति पूजा निषेध है। दोनों परिवारों में पहले इसका विरोध हुआ। फिर
बेटे की विधवा माँ ने बहू को अपनी धार्मिक
पहचान व मान्यता कायम रखने की स्वीकृति दी। पहले कन्या पक्ष ने बंगाली रीति रिवाज
से विवाह कर बेटी को विदा किया। बाद में वर पक्ष ने अपने यहाँ निकाह भी पढ़वाया।
वधू को हालांकि धर्म परिवर्तन के लिए बाध्य तो नहीं किया गया मगर ससुराल में रहकर
उसे तस्वीर लगाने या मूर्ति पूजा और किसी हिंदू त्योहार को मनाने की इजाजत नहीं
है। यहाँ लाख टके का सवाल यह पैदा होता है कि क्या दो प्यार करने वालों को समाज
धर्म के बंधनों से कभी मुक्त नहीं करेगा?
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100, रामनगर एक्सटेंशन देवास 455001 (म.प्र.)
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