व्यंग्य (नईदुनिया, 25.08.2014)
आरटीओ की
शहादत
ओम
वर्मा
om.varma17@gmail.com
एक फोन काल क्या आया, पूरे घर में कोहराम मच गया।
अनोखीलालजी की होने वाली बहू के पिता
बदामीलालजी अपनी बेटी का रिश्ता तोड़ रहे हैं। न तो वे कोई कारण बता रहे थे और न ही
आगे कुछ बात करने को तैयार थे। छह महीने पहले ही उन्होंने बेटे का रिश्ता तय किया था।
दहेज में बीस लाख रुपय्ये नकद गिनकर देने की बात हुई थी। अगले महीने लगन था। लड़का
उनका था तो सिर्फ बी.ए. पास, मगर उसकी नौकरी बड़ी मलाईदार थी। आरटीओ में क्लर्क जो था।
लेकिन आज बदामीलालजी बदाम के नरम बीज से यकायक अखरोट के कठोर छिलकों में
बदल गए थे। अपनी घबराहट पर काबू पाने के लिए उन्होंने अखबार में नजरें गढ़ा दीं।
जैसे दो अपरिचित लोग मौसम या बरसात को लेकर कभी भी और कहीं भी बातचीत का सूत्र पकड़
सकते हैं वैसे ही उन्होंने अखबार में कोई सांत्वना सूत्र तलाशने का प्रयास किया।
एक खबर पर नजर पड़ते ही उनके हाथ से पेपर और पैरों तले जमीन खिसक गई! खबर थी की
सरकार देश के सारे आरटीओ बंद करने का मन बना रही है। जिस मलाईदार महकमे में बेटे
की जुगाड़ जमाने के लिए उन्होंने
दस लाख का ‘इनवेस्टमेंट’ किया था, जिसके बदले विवाह की मण्डी में वे बेटे पर
बीस लाख रु. का 'प्राइस टैग' लगाने में सफल हुए थे, और जिस
कारण बी.ए.पास लड़के को बी.ई. पास लड़की मिल रही थी वह भी नोटों की
गड्डियों के साथ, उनका वही 'कीमती सामान' यकायक रिडक्शन सेल में तब्दील हो गया था।
उन्हें लगा आरटीओ पदस्थ पुत्र के कारण कल
तक सारी बिरादरी में उनकी नाक जो शूर्पणखा की नाक से भी बड़ी हुआ करती थी, उसे लक्ष्मण रूपी परिवहन मंत्री ने एक झटके में
क्षत-विक्षत कर दिया है।
यह दुखड़ा एक अकेले अनोखीलाल का नहीं है। देश में ऐसे कई अनोखीलाल हैं
जिनका दाना-पानी आरटीओ से बँधा है। माना कि सरकार सारे आरटीओ वालों को कहीं न कहीं
‘एडजस्ट’ कर उनकी दालरोटी का इंतजाम तो
कर ही देगी। लेकिन आरटीओ कर्मी चाहे वह अधिकारी हों या चपरासी, एक स्वर में यही कहेंगे कि "सरकार हमें क्यों उल्लू बनाविंग!
उल्लू बनाविंग!!” सीधी-सी बात है बंधु, दाल-रोटी बस
स्टैंड के रामसखा भोजनालय में भी मिलती है और फाइव स्टार होटल में भी। और जाहिर है
कि अन्य सरकारी विभागों की दाल रोटी बस स्टैंड के भोजनालय की दाल रोटी होती है
जबकि एक आरटीओ कर्मी की दाल रोटी फाइव स्टार होटल का शाही टुकड़ा होती है।
आज चाहे 'कफ़न' और 'गोदान' के घीसू- माधौ और होरीराम हों या 'राग दरबारी' का लंग्गड़, सब
जानते हैं कि आरटीओ जैसी समाजवादी व्यवस्था अन्यत्र दुर्लभ है। यहाँ एक बाबू अपने
एक या दो एवजियों से काम करवाकर बेरोजगारी हल करने की दिशा में प्रशंसनीय कार्य
करता है। और ये जो हर आरटीओ
ऑफिस के बाहर ढेर सारे एजेंट, कर
सलाहकार कच्ची पक्की गुमटियाँ बनाकर बैठे हैं क्या ये अपने जमे जमाए कारोबार को
आसानी से छोड़ देंगे? आरटीओ के दलाल सिर्फ खिलाने की कला
जानते हैं, ये कोई तरला दलाल नहीं हैं जिन्हें पकाने का भी शौक
हो।
सच तो यह है कि एजेंट के माध्यम से बिना ट्रायल
के पर्मार्नेंट लायसंस बनवा चुके लोग भी आज आरटीओ की
वर्तमान ‘कार्यप्रणाली’ के इतने अभ्यस्त
हो चुके हैं कि वे इसे अब भ्रष्टाचार नहीं, एक स्वाभिक प्रक्रिया
मानने लगे हैं। और दिल्ली वालों को यह कौन समझाए, जो 'सारे घर के बदल डालूँगा' की
नादानी में लगे हुए हैं। ***
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100, रामनगर एक्सटेंशन, देवास 4565001
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